तमाम गुटबाजी के बावजूद गैरभाजपा मतों के विभाजन के भरोसे भाजपा दिल्ली की सभी लोकसभा सीटें फिर से जीतने की तैयारी में लगी हुई है। तैयारी के नाम पर हुई पार्टी प्रमुख अमित शाह की 21 जून की बैठक में भी इसी तरह के सवाल उठाए गए लेकिन पार्टी नेतृत्व दिल्ली की गुटबाजी रोकने पर ठोस फैसला नहीं कर पा रहा है। दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी किसी भी तरह की गुटबाजी से इनकार करते हैं। उनका मानना है कि दिल्ली भी देश के लोगों के साथ रहेगी और फिर से दिल्ली की सातों सीटें भाजपा जीतेगी।
पिछले साल नगर निगमों के चुनाव में तमाम अटकलों को झुठलाते हुए भाजपा ने जीत हासिल की। मनोज तिवारी दावा तो करते हैं, लेकिन भाजपा के लिए निगम चुनावों में औसत वोट न बढ़ने के वे कारण नहीं बता पाते। 2014 में भाजपा को 46 फीसद से ज्यादा वोट और दिल्ली की सभी सातों सीटें मिली थी। मनोज तिवारी का मानना है कि जब चुनाव अभियान की अगुआई खुद अमित शाह कर रहे हैं तो किसी गुटबाजी का कोई सवाल ही नहीं उठता। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न दिखती है। तीस नवंबर 2016 को बिहार मूल के लोकप्रिय भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी को दिल्ली की बागडोर सौंपी गई। इससे पहले 2014 के उन्हें दिल्ली उत्तर-पूर्व लोकसभा से भाजपा का उम्मीदवार बनाया गया, जिसमें वे कामयाब हुए। संगठन के आदमी न माने जाने वाले तिवारी के सामने 2017 निगम चुनाव जीतने की चुनौती थी। लगातार दस साल से निगमों में काबिज भाजपा के खिलाफ दिल्ली में भारी माहौल था। चुनाव में भाजपा अध्यक्ष की सभी नए उम्मीदवार देने की योजना का लाभ तो हुआ ही मनोज तिवारी के चलते प्रवासी वोटरों में भाजपा की पैठ बढ़ी। कुल 32 पूर्वांचल मूल के उम्मीदवारों में से 22 चुनाव जीत गए।
बावजूद इसके पार्टी संगठन में तिवारी का दखल नहीं बढ़ा। प्रभारी श्याम जाजू से लेकर दिल्ली के संगठन महामंत्री सिद्धार्थन से उनके बेहतर संबंध नहीं बन पाए। दिल्ली के अनेक स्थापित नेता भी उनके अनुकूल नहीं माने जाते हैं। पार्टी अनुशासन के नाम पर अब तक कहीं भी खुलेआम बगावत नहीं हुई है। कहा जा रहा है कि बावजूद इसके दिल्ली और देश भर में मनोज तिवारी की उपयोगिता के चलते ही उन्हें तमाम अटकलों के बावजूद नहीं बदला गया। दिल्ली में भाजपा एक खास वर्ग और कुछ जातियों की पार्टी मानी जाने के बावजूद पंजाबी और बनिया के अलावा किसी दूसरे बिरादरी के नेता को कभी चेहरा नहीं बना पाई। सालों से दिल्ली का बिरादरी समीकरण बदल गया है। यहां 70 में से 50 विधान सभा सीटें ऐसी हैं जहां पूर्वांचल (बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश) के प्रवासी मतदाता 10 से 60 फीसद तक हैं। यह वर्ग पहले कांग्रेस के साथ था अब आम आदमी पार्टी (आप) के साथ जुड़ गया है। इसी के कारण भाजपा का वोट औसत 34 से 37 के बीच ही रह रहा है। तीन बार नगर निगम जीतने पर भी उसे उतने ही वोट आए। अपवाद केवल 2014 का लोकसभा चुनाव था जब भाजपा को 46 फीसद से ज्यादा वोट मिले।
2014 के चुनाव में आप को 32 फीसद और कांग्रेस को दस फीसद वोट मिले, लेकिन 2017 के निगम चुनाव में भाजपा को 36 फीसद, आप को 26 फीसद और कांग्रेस को 22 फीसद वोट मिल गए थे। गैर भाजपा मतों के इस विभाजन का भाजपा को लाभ मिला और वह तीनों निगमों में वापस सत्ता में आ गई। भाजपा के लिए खतरा यह है कि अगर ‘आप’ के पक्ष में गैर भाजपा मतों का ध्रुवीकरण हो जाए या कांग्रेस अल्पसंख्यक मतों को अपने साथ जोड़ ले या आप और कांग्रेस में सीटों का तालमेल हो जाए तो भाजपा के लिए चुनाव कठिन हो जाएगा।
भाजपा के सातों सांसदों में कई के टिकट बदलने की भी चर्चा है। इस का असर भी होगा। आलाकमान की 21 जून की बैठक में किसी नेता के खिलाफ ज्यादा बातें नहीं कही गर्इं लेकिन शाह ने सभी को साथ चलने और 2019 में भी 2014 जैसे नतीजे लाने को कहा। बैठक में दिल्ली के सभी प्रमुख भाजपा नेता मौजूद थे। भाजपा के रणनीतिकार तो यही मानकर चल रहे हैं कि गैर भाजपा मतों के बंटवारे और प्रधानमंत्री का नाम उन्हें लोकसभा की सीटें दिलवा देगा। लोक सभा चुनाव को देखते हुए पार्टी संगठन में जो बदलाव होने हैं वह तुरंत होंगे, अन्यथा यही टीम चुनाव तक रहेगी। इसी से लगता है कि दिल्ली की स्थानीय राजनीति में तमाम उठापटक के बावजूद भाजपा तुरंत दिल्ली विधान सभा चुनाव नहीं करवाना चाहती।
