‘औरत हर जगह दलित होती है, कहीं कम कहीं ज्यादा। हर रीति रिवाज, परंपरा सभी जगह।’ जयश्री रॉय ने वाणी प्रकाशन की ओर से शनिवार को अपनी किताब के लोकार्पण पर यह बात कही। चिंतक व कथाकार सुशीला टाकभौरे के उपन्यास ‘वह लड़की’ और जयश्री रॉय के ताजा कहानी संग्रह ‘मोहे रंग दो लाल’ का शनिवार को लोकार्पण किया गया। ‘वह लड़की’ में अनेक नए मुद्दों को उठाया गया है। शोषण पहले भी था, अभी भी हो रहा है। तो कैसे नई पीढ़ी की लड़कियां शिक्षित होकर स्त्री-पुरुष असमानता और लिंग भेद को खत्म करने के कदम उठाती हैं। जयश्री रॉय का कहानी संग्रह ‘मोहे रंग दो लाल’ तीक्ष्ण व्यंजनाबोध, रससिक्त पठनीयता और गहरी सामाजिक चेतना से आबद्ध शोधदृष्टि के कारण सहज ही पाठकों के मर्म पर दस्तक देता है। दिलीप कठेरिया ने कहा कि दलित साहित्य में सभी विधाओं में साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन उपन्यास की विधा का अभाव मिलता है। उम्मीद है निकट भविष्य में अनेक उपन्यास भी प्रकाशित होंगे जिससे युवा लेखन सामने आएगा।
अरुण माहेश्वरी ने कहा कि दलित साहित्य इसलिए सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि उसमें कहने की ललक है, प्रेरणास्रोत हैं जिससे हमारे सोचने का तरीका बदलता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे टेकचंद ने कहा कि स्त्रीवादी साहित्य मुख्यधारा के साहित्य को लोकतांत्रिक साहित्य और उसे संपूर्ण बनाता है। सुशीला जी का यह उपन्यास अहम सिद्ध होगा। रजनी तिलक ने कहा कि लोकतंत्रीकरण के लिए चाहिए कि दलित स्त्री साहित्य आए। नहीं तो हम सिर्फ एकतरफा साहित्य ही पढ़ते रहेंगे। ‘हंस’ के संपादक संजय सहाय का कहना था कि सुशीला जी सशक्त रचनाकार हैं। मैं इस किताब के लिए उन्हें बधाई देता हूँ। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की प्रोफेसर हेमलता माहेश्वर ने कहा कि सुशीला जी ने यह उपन्यास लिखकर मील का पत्थर खड़ा किया है। आप लड़की को पहले पढ़ाएं क्योंकि जब एक लड़की पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ता है। दलित समाज कोई अलग समाज नहीं है। वह भी गैर दलित समाज की तरह उन्नत होना चाहता है। पितृसत्ता का शिकार दलित समाज भी है। ‘मोहे रंग दो लाल’ पर संजीव ने कहा कि जयश्री रॉय ने अपनी कहानियों में दर्द की बारीकियों से गुजरते हुए नए प्रतिमान गढ़े हैं। जैसे दर्द से दर्द जुड़ जाता है। संजय सहाय ने कहा कि जयश्री ने रचनाशीलता के आवरण के अंदर विषय को प्रस्तुत करती हैं जिससे भौतिक सुख की अनुभूति तो होती है, आत्मसुख भी प्राप्त होता है।