दो दशक गुमनामी में रहे दिल्ली विधानसभा के पहले (1993-98) अध्यक्ष चरती लाल गोयल ने अड़कर और केंद्र सरकार को समझाकर विधानसभा को कई ऐसे अधिकार दिला दिए जो सालों संघर्ष करने पर भी उसे नहीं मिलते। कानून व्यवस्था और भूमि (डीडीए) से जुड़े मुद्दों पर विधानसभा में अन्य विषयों की तरह चर्चा ही नहीं होती बल्कि विधानसभा कब बुलाया जाए, कब बजट पेश हो यह विधानसभा अध्यक्ष को विश्वास में लेकर दिल्ली सरकार तय करती है। उसकी सूचना भर उपराज्यपाल को औपचारिकता के नाते उसी तरह से दी जाती है जिस तरह से अन्य राज्यों में राज्यपाल को दी जाती है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के दबाव के बावजूद गोयल ने एक अलग नियमावली नहीं बनने दी। अपने अफसरों के तबादले अपने हिसाब से करवाने के लिए उपराज्यपाल के दफ्तर से ही नहीं केंद्र सरकार से टकराव लिया और बात सड़क पर नहीं जाने दी। इतना ही नहीं विधानसभा को अदालत की परिधि से बाहर मान कर हाई कोर्ट के समन पर भी अदालत जाने को तैयार नहीं हुए। पेशे से वकील चरती लाल गोयल का 89 साल की उम्र में 16 अगस्त को निधन हो गया।
1991 में 69वें संविधान संशोधन के जरिए दिल्ली को सीमित अधिकारों वाली विधानसभा मिली। इस बारे में भारत के संविधान (अनुच्छेद 239 एए और अनुच्छेद 239एबी) में जो कहा गया है उसका विस्तार संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 में किया गया है। उसी के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा पारित कामकाज की नियमावली (ट्रांजेक्शन आफ बिजनेश रूल्स) और कार्य आबंटन नियम बना है। परंपरागत तौर पर विधानसभा दूसरे राज्य (उत्तर प्रदेश) की नियमावली से 1993 में विधानसभा गठित होने के बाद चलनी शुरू हुई। लेकिन उत्तर प्रदेश में दो सदन (विधान सभा और विधान परिषद), सदन शुरू होने का अलग समय और प्रदेश का अलग स्वरूप, अलग विधान आदि के कारण विधानसभा की नियमावली बनानी जरूरी हो गई। बाद में विधानसभा के कामकाज में विधानसभा द्वारा पारित नियमावली बनाई गई। इन्हीं के आधार पर दिल्ली का शासन चलता है। विधानसभा बन जाने के के बावजूद दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है। इस कारण राष्ट्रपति इसके शासक होते हैं और वे अपने प्रतिनिधि (उप राज्यपाल) के माध्यम से दिल्ली का शासन चलाते हैं। दिल्ली में विधानसभा को 66 राज्य सूची के विषयों में से 63 सौंपे गए। लेकिन पुलिस, कानून-व्यवस्था, पुलिस और राज निवास से जुड़े मामले केंद्र के ही अधीन रहे। इन्हें आरक्षित विषय कहा जाता है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय चाहता था कि पुडुचेरी की तरह दिल्ली विधानसभा भी आरक्षित विषयों के लिए अलग नियमावली बनाए। जीएनसीटी एक्ट की धारा 33 में कहा गया है कि उपराज्यपाल विधानसभा अध्यक्ष की सलाह से कानून-व्यवस्था और भूमि (डीडीए) जैसे आरक्षित विषयों पर चर्चा करने और किसी वित्तीय मामले, बजट अथवा वित्तीय विधेयक की प्रक्रिया के समय पर निपटान के लिए अलग नियमावली बनाए। ऐसा होने पर आरक्षित विषयों पर सवाल केवल राजनिवास की इजाजत से पूछे जाते और विधानसभा में दिल्ली की कानून-व्यवस्था, डीडीए आदि पर चर्चा ही संभव नहीं थी। बजट किस दिन पेश हो यह सरकार स्पीकर (विधानसभा अध्यक्ष) की सलाह से तय करने के बजाए उपराज्यपाल के आदेश से तय होता। यानी विधानसभा राजनिवास के रहमोकरम पर चलती। गोयल के साथ सचिव रहे एसके शर्मा बताते हैं कि नियमावली तो उन्होंने गोयल के निर्देशन में बना दी। लेकिन दूसरी नियमावली के बारे में गृह मंत्रालय के पत्रों को पहले टाला, फिर अध्यक्ष को बताया।
अध्यक्ष ने विस्तार से जानकारी ली और पूछा कि अगर ऐसा न किया जाए तो क्या हो सकता है। उन्होंने अध्यक्ष को बताया कि बार-बार पत्र आएगा और संभव है अगर आप न मानें तो विधानसभा भंग कर दी जाए। गोयल ने कहा, ‘यह नियमावली नहीं बनेगी। विधानसभा भंग होती है तो होने दो’। शर्मा का मानना था कि अगर दूसरी नियमावली बन जाती तो विधानसभा का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इतना ही नहीं गोयल ने अपनी ही पार्टी के संसदीय कार्यमंत्री को विधानसभा के किसी भी काम में दखल देने की इजाजत नहीं दी और इसके लिए लंबी लड़ाई लड़ी। उनकी जानकारी के बिना उनके सचिवालय के अधिकारियों के तबादले हुए। उन्होंने दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव कोे बुलाकर नाराजगी जताई और उनके अड़ने पर उनके वेतन से जुड़ा बजट विधानसभा में पास न करने देने की धमकी दे डाली। तब के विपक्ष के सदस्य और बाद में सालों दिल्ली सरकार के मंत्री रहे राज कुमार चौहान ने अपनी बात असमय रखने की जिद में सदन के भीतर कुर्सी फेंक दी और उनके समर्थकों ने दर्शक दीर्घा से पर्चे फेंके।
उन्हें सुरक्षाकर्मियों ने गिरफ्तार कर लिया। अध्यक्ष ने उन्हें जेल भेजने का आदेश दे दिया। ऐसा न पहले हुआ न ही बाद में। अधिकारियों ने संसद से पता करके उनके आदेश का पालन करवाया। इस आदेश के खिलाफ चौहान हाई कोर्ट गए। हाई कोर्ट ने स्पीकर और सचिव को अदालत में हाजिर होने के लिए समन जारी कर दिया। अध्यक्ष ने यह कह कर कि विधानसभा और विधानसभा अध्यक्ष का फैसला अदालत की परिधि से बाहर का है, अदालत में पेश नहीं हुए। दिल्ली सरकार के विधि विभाग के अधिकारियों ने मामले को हाई कोर्ट से निबटाया। लेकिन गोयल ने हाई कोर्ट के समन को नहीं माना। गोयल ने पहली विधानसभा भंग होते ही सक्रिय राजनीति से अलग होने का फैसला कर लिया।
