kuldeep Nayar Lal Bahadur Shastri: कुलदीप नैयर (kuldeep Nayar) की गिनती देश के उन चुनिंदा पत्रकारों में होती है, जिन्होंने आजाद भारत की कई बड़ी राजनीतिक घटनाओं को अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बियॉन्ड दी लाइंस एन ऑटोबायोग्राफी’ में कई राजनीतिक घटनाओं का जिक्र किया है। नैयर (kuldeep Nayar) के मुताबिक उनके एक लेख के चलते लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) को प्रधानमंत्री का पद मिल गया था। हालांकि उन्होंने किताब में यह साफ किया है कि जिस लेख की चर्चा कई दिनों तक राजनीतिक गलियारों में हो रही थी, उसका उद्देश्य न तो लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) को फायदा पहुंचाना था और न ही मोरारजी देसाई को नुकसान पहुंचाना।

अपनी किताब ‘Beyond The Lines: An Autobiography’ में वह लिखते हैं कि जवाहर लाल नेहरु के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए जोड़ तोड़ तेज हो चला था। प्रधानमंत्री पद के लिए कई बड़े राजनेताओं का नाम उछल रहा था, जिसमें लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई और जय प्रकाश नारायण प्रमुख थे। कुलदीप नैयर उन दिनों समाचार एजेंसी UNI के लिए काम किया करते थे। उन्होंने अपने एजेंसी पर मोरारजी देसाई से संबंधित एक खबर जारी कर दी।

उनकी खबर का परिणाम ये हुआ कि लोग मोरारजी देसाई को महत्वकांक्षी मानने लगे और पार्टी नेताओं और समर्थकों में नाराजगी आ गई। अपनी किताब में वह बताते हैं कि मोरारजी देसाई के समर्थकों ने यह बात मानी थी कि खबर के कारण उन्हें उम्मीद से 100 वोट कम मिले। अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं कि खबर के बाद के कामराज ने उन्हें थैक्यू कहा था और लाल बहादुर शास्त्री जब संसद भवन में उनसे मिले तो उन्हें अपने गले लगा लिया था।

इस प्रकरण के बाद मोरारजी देसाई व उनके समर्थकों को ऐसा लगने लगा कि वह खबर लाल बहादुर शास्त्री को फायदा पहुंचाने के इरादे से लिखी गई थी। वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि मैंने मोरारजी औऱ लाल बहादुर शास्त्री को कई बार समझाने की कोशिश की वह खबर किसी को लक्ष्य करके नहीं लिखी गई थी। अपनी किताब में उन्होंने यह माना था कि शास्त्री की छवि को बेहतर बनाने के लिए कई खबरें लिखीं।

कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लाल बहादुर शास्त्री के स्मारक से संबंधी एक घटना का जिक्र किया है। उन्होंने बताया था कि इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री की दिल्ली में प्रतिमा बनाने के पक्ष में नहीं थी लेकिन ललिता शास्त्री ने आमरण की चेतावनी दी तो इंदिरा गांधी ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए अपना फैसला बदला था और दिल्ली में समाधि बनाने का आदेश दिया था।