प्रयागराज में कुंभ मेला अब पूरी तरह रंग में आ चुका है। कुंभ के मेलों में करोड़ों की तादाद में लोग शिरकत करते हैं ऐसे में कई बार लोग अपनों से बिछड़ जाते हैं। कुंभ के बिछड़ों का मिलना बॉलीवुड की भी कई फिल्मों का आधार रहा है। 70 और 80 के दशक में कई ऐसी फिल्में बनीं, जिनमें कुंभ मेले से दो भाई जुदा हुए और फिर बरसों बाद उनका मिलन हुआ। लेकिन अब कुंभ से मिलने-बिछड़ने के सिलसिले में तकनीकी विस्तार के चलते धीरे-धीरे सुधार आया है। बिछड़ों को मिलाने में सिर्फ तकनीक का ही नहीं कुछ फरिश्तों का भी हाथ होता है। ‘भूले-भटके बाबा’ के नाम से मशहूर राजाराम तिवारी भी इस मामले में किसी फरिश्ते से कम नहीं थे।
तिवारी को क्यों मिला ये अनोखा नामः दरअसल राजाराम तिवारी कुंभ के मेले में बिछड़ जाने वालों को उनके अपनों से मिलाने को ही जिंदगी का मिशन बना चुके थे। अगस्त 2016 में उनका निधन हो गया लेकिन उनका बेटा अब भी उनके मिशन को बरकरार रखे हुए है। उनका शिविर प्रयागराज कुंभ 2019 में भी करीब 20 हजार से ज्यादा बिछड़े हुए लोगों को अपनों से मिला चुका है। बताया जाता है कि राजाराम तिवारी ने अपनी जिंदगी के 70 साल कुंभ में बिछड़े लोगों को मिलाने में लगा दिए। इन 73 सालों में भूले- भटके कैंप से अब तक 1 करोड़ 25 लाख बिछड़े लोगों को उनके परिवार से मिलाया जा चुका है। यह कैंप छह कुंभ, छह अर्धकुंभ और करीब 60 माघ मेलों में शिरकत कर चुका है।
1946 में यूं हुई थी शुरुआतः बाबा के बेटे उमेश तिवारी ने एक समाचार एजेंसी से बातचीत में बताया कि कभी-कभी इस काम में कुछ दिन लग जाते हैं तो कभी कुछ घंटों की बात होती है। वे कहते हैं, ‘मेरे पिता ज्यादातर मामलों में अपने परिवारों के साथ खोए हुए लोगों को फिर से मिलाने में सफल रहे हैं। इसकी शुरुआत 1946 में इलाहाबाद में संगम तट पर लगे माघ मेले से हुई थी। शुरुआत में उन्हें बिछड़े हुए लोगों के आंसुओं को खुशी में तब्दील होते देखकर खुशी मिली और यहीं से यह उनका मिशन बन गया।