अनेकता में एकता की बेजोड़ मिसाल देखनी हो तो झारखंड के सुल्तानगंज से देवघर के बीच पथरीले कांवड़िया रास्ते पर आइए। सभी गेरुआ रंग में रंगे मिलेंगे और सभी की जुबां पर बोल बम के जयकारे के सिवा दूसरे शब्द नहीं मिलेंगे। इस पथरीले रास्ते पर दिक्कतों की कोई परवाह नहीं। अपनी मंजिल बाबाधाम पहुंचने की लालसा के सिवा इन कांवड़ियों को कुछ पता नहीं। सावन की दूसरी सोमवारी को देवघर में करीब एक लाख कांवड़ियों ने बाबा वैद्यनाथ का गंगाजल से जलाभिषेक किया। दूसरे शहरों के छोटे-बड़े शिवालयों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ देखी गई।
मगर सुल्तानगंज के अजगैबीनाथ मंदिर और देवघर में तो अहले सुबह से ही कांवड़ियों का तांता लगा था। अन्य दिनों में सुनसान दिखने वाला यह 105 किलोमीटर लंबा रास्ता सावन मे गुलजार हो उठा है। देश ही नहीं विदेशों से भी आने वाले कांवड़िए गेरुआ रंग में रंगे हुए हैं। यहां आकर इनकी दिनचर्या के साथ-साथ बोली भी बदल जाती है। बच्चा बम , माता बम, बहना बम, बूढ़ा बम, लड़का बम, चलो बम, हटो बम मसलन सब बम-बम। कांवड़िए एक-दूसरे को रास्ते में ऐसे ही आपस में पुकारते है। रास्ते में पैदल चलने के दौरान इन्हें सड़क किनारे जहां जगह मिल जाए, वहीं इनका विश्राम स्थल बन जाता है। फर्श पर लेटते तनिक भी इन्हें संकोच नहीं। यों जगह-जगह इंतजाम भी हैं। फिर भी ये अपनी मंजिल जल्द से जल्द तय करने में ही मशगूल होते हैं। भले ही ये अपने घरों में मोटे-मोटे गद्दे और वातानुकूलित में सोते-रहते हों लेकिन यहां सभी बम एक समान हैं।

सुल्तानगंज से देवघर तक नंगे पांव 105 किलोमीटर की यह कष्टप्रद यात्रा कई तो बिना रुके 24 घंटे के अंदर ही पूरी कर लेते हैं। ऐसों को डाक बम कहते हैं। इनकी दिनचर्या तो अलग ही है। ये जल भर कर सीधे चल देते हैं। रात-दिन चलकर बाबाधाम पहुंचते है। रास्ते में न रुकना, न सोना और न ही शंका का निवारण करना। जो भी करना है, जलाभिषेक के बाद ही करना होता है। रोजाना हजारों की संख्या में ऐसे डाक कांवड़िए रवाना हो रहे हैं।
बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएं कंधे पर कांवड़ ले पैरों में पड़े छालों की परवाह किए बगैर ऐसे चलते हैं जैसे मानों इन्हें कोई तकलीफ ही न हो। रास्ते में इनके लिए बने उपचार केंद्र इनकी मरहम पट्टी करते हैं। फिर भी ये कांवड़िए अपना हौसला नहीं हारते। धनवान हों या गरीब, रास्ते में सब एक जैसे हैं। मजाल नहीं कोई इन्हें तंग कर ले। यहां बाबा की फौज एक साथ गलत करनेवालों पर टूट पड़ती है। छपरा के एक कांवड़िए बाबू ठाकुर की करंट लगने से जलेबिया मोड़ के पास मौत हो गई। उसकी सहायता में पूरी कांवड़िया की फौज इकठ्ठा हो गई। किसी ने नहीं देखा कि बाबू ठाकुर ऊंची जाति के हैं या नीची जाति के। अनेकता में एकता का यह नायाब नमूना यहां महीने भर देखने को मिलता है।
दरअसल, एक महीने तक अनवरत चलने वाले इस मेले की यही खासियत है। यहां रात-दिन का फर्क ही नहीं होता। आपसी भेदभाव भी ख़त्म हो जाता है। मगर डाक बम के साथ देवघर प्रशासन बड़ा अन्याय कर रहा है। इतनी परेशानी झेलकर बाबाधाम मंदिर पहुंचने वाले डाक बम कांवड़ियों के लिए प्रशासन अलग से कोई सुविधा मुहैया नहीं कराता है। लहेरियासराय दरभंगा के डाक बम गिरीश मंडल और देबू राय ने बताया कि डाक बम को भी लाईन में लगवा देवघर प्रशासन नाइंसाफी कर रहा है। देवघर पहुंचते-पहुंचते ऐसे कांवड़ियों की हालत पतली हो जाती है। कई तो बेहोश हो गिर जाते हैं। कुछ न कुछ इंतजाम होना चाहिए।
बाबजूद इसके इन कांवड़ियों की अटूट आस्था के केंद्र हैं बाबा वैद्यनाथधाम और वासुकीनाथ धाम। देवघर जाने वाले वासुकीनाथ जरूर जाते हैं। चाहे वाहन से ही जाएं। असल में श्रद्धालु देवघर को सिविल और वासुकीनाथ को फौजदारी बाबा मानते हैं।

