कांग्रेस नेतृत्व चार महीने में प्रदेश कांग्रेस के नए मुखिया की तलाश नहीं कर पाया और बिना नाम तय हुए ही चार साल से प्रदेश अध्यक्ष रहे अजय माकन का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। 2015 के विधानसभा चुनाव में दस फीसद से कम वोट पाकर पूरी तरह से हाशिए पर पहुंची कांग्रेस को भाजपा और आम आदमी पार्टी (आप) के मुकाबले खड़ा करने के माकन और दिल्ली के दूसरे नेताओं की कोशिशों पर आलाकमान ने लगभग पलीता लगा दिया और अभी भी नए अध्यक्ष के नाम पर अटकलबाजी ही चल रही है। पिछले महीने तीन राज्यों के चुनावों में मिली जीत के बाद देशभर में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनता दिखने लगा है। इसके अलावा लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने बचे हैं, ऐसे में दिल्ली के नए मुखिया का नाम तय करने में पार्टी जितनी देर करेगी, उसे उतना ही नुकसान होगा।
कांग्रेस ने अजय माकन को 2015 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया और चुनाव के बाद अरविंदर सिंह लवली को हटाकर प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर सौंप दी। अपने पूरे कार्यकाल में माकन पार्टी दोबारा मजबूत करने में लगे रहे, लेकिन पिछले साल हुए निगम चुनाव में कई नेताओं ने उनकी कार्य प्रणाली पर सवाल उठा दिया। इसके कारण माकन ने इस्तीफे की पेशकश कर दी जिसे पार्टी नेतृत्व ने नहीं स्वीकारा। पिछले साल सितंबर में माकन ने बीमारी के कारण प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, जिसे स्वीकारने में कांग्रेस नेतृत्व ने चार महीने लगा दिए। पहले कहा गया कि मई 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी इस स्तर पर कोई बदलाव नहीं करेगी, लेकिन अचानक बिना नया नाम तय हुए ही माकन का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया।
अब कहा जा रहा है कि 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को पार्टी की बागडोर सौंपी जाएगी। इस बाबत शीला दीक्षित ने कहा कि दिल्ली के प्रभारी पीसी चाको उनसे मिले थे, लेकिन उनके बीच लोकसभा चुनाव की तैयारी पर चर्चा हुई। उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी जो भी जिम्मेदारी देगी, वे उसे निभाएंगी। वहीं माकन अपने पद से इस्तीफा देने के बाद अपना समय लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में लगाना चाहते हैं। पार्टी नेतृत्व में उनकी अच्छी पैठ है। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की इच्छा के खिलाफ उन्होंने लोकसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का विरोध किया। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘आप’ के बजाय मायावती की पार्टी बसपा से तालमेल करने का सुझाव दिया। हालांकि अभी तक कांग्रेस नेतृत्व इस बारे में भी कोई फैसला नहीं कर पाया है। 2015 के विधानसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद कांग्रेस दिल्ली में लगातार अपनी ताकत में बढ़ोतरी करने में जुटी रही। 2017 के निगम चुनाव में अगर बगावत न होती तो कांग्रेस दूसरे नंबर पर होती। पिछले साल दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव (डूसू) में भले ही भाजपा समर्थित छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने ज्यादातर सीटें जीतीं, लेकिन कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआइ एक प्रमुख सीट जीत गई और परिषद को कड़ी टक्कर दे पाई।
‘आप’ की छात्र इकाई सीवाईएसएस चुनाव में कहीं नजर तक नहीं आई। डूसू को दिल्ली का छोटा आम चुनाव माना जाता है, इसलिए कांग्रेस के नेता खासे उत्साहित रहे, लेकिन माकन के इस्तीफे ने कांग्रेस नेताओं के उत्साह को कम कर दिया। कांग्रेस को अब तक दलित, अल्पसंख्यक, कमजोर वर्ग, पूर्वांचल के प्रवासी (बिहार, झारखंड व पूर्वी उत्तर प्रदेश के मूल निवासी) और दिल्ली देहात के लोगों से समर्थन मिलता रहा है। उन्ही के बूते कांग्रेस सालों साल दिल्ली पर राज करती रही, लेकिन अब ये सभी वर्ग आम आदमी पार्टी के साथ हो गए हैं। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 50 पर पूर्वांचल के लोगों की संख्या 20 से 60 फीसद तक है। अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए ही भाजपा ने बिहार मूल के मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। उसकी यह नीति कारगर भी साबित हुई और नगर निगम चुनाव में भाजपा की जीत हुई। पहले यह वर्ग कांग्रेस के साथ था। इसी वर्ग के महाबल मिश्र पहली बार कांग्रेस के टिकट पर पश्चिमी दिल्ली से सांसद बने थे।
