बिहार विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा वक़्त नहीं बचा है। ऐसे में राज्य में सियासत गरम है और सभी राजनीतिक पार्टियां जातीय समीकरण साधने और चुनावी गोटी बिठाने में जुटी हुई हैं। ऐसे में एनडीए से नाराज़ चल रही लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) की राह मुश्किल नज़र आ रही है। अवसरवादी राजनीति का ठप्पा लगवा चुकी एलजेपी हर तरह से एनडीए पर दवाब बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन उनके तेवर को न तो एनडीए कोई तवज्जो दे रहा है और न ही महागठबंधन।

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के एनडीए में शामिल होने से नाराज़ एलजेपी की कमान युवा चिराग पासवान संभाल रहे हैं। नीतीश ने दलित वोटों को साधने के लिए जीतनराम मांझी को साथ कर लिया है। ऐसे में एलजेपी के गठबंधन में न होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बिहार में एलजेपी हर तरह से दांव आजमा चुकी है, अकेले भी लड़कर व गठबंधन के सहारे भी, लेकिन नतीजे कुछ खास नहीं रहे। आखिरी बार 2005 में एलजेपी ने 178 सीटों में चुनाव लड़ा था जिसमें से पार्टी 29 सीटें जीतने में सफल रही थी। लेकिन तब सरकार नहीं बन पाई थी और विधानसभा को भंग कर दिया गया था।

वहीं जीतनराम मांझी वर्ष 2018 तक एनडीए के साथ थे, लेकिन सियासी वजहों से उन्होंने इससे नाता तोड़ लिया था और आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल हो गए थे। लेकिन, पिछले महीने मांझी ने महागठबंधन से भी नाता तोड़ लिया। मांझी की एनडीए में एंट्री से एनडीए की हार-जीत में बहुत अंतर भले नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे एलजेपी कुछ हद तक कमजोर ज़रूर होगी क्योंकि वह एनडीए में एकमात्र दलित चेहरा होने को लेकर अब जेडीयू को ब्लैकमेल नहीं कर पाएगी। अगर एलजेपी अब भी अपनी जिद पर अड़ी रहती है, तो एनडीए से उसकी विदाई हो सकती है और उसकी जगह मांझी को मिल सकती है।

जीतन राम मांझी अनुसूचित जाति की बिरादरी से आते हैं। चिराग पासवान भी इसी बिरादरी का हिस्सा हैं। बिहार में महादलित व अनुसूचित जातियों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है। इनमें पासवान यानी दुसाध बिरादरी 5 प्रतिशत और मुसहर 1.8 प्रतिशत हैं। वहीं, ओबीसी आबादी करीब 50% प्रतिशत है।

जीतन राम मांझी का प्रभाव गया जिले और उसके आसपास के इलाक़ों में माना जाता है। राजनीति में आने के बाद से मांझी फ़तेहपुर, बाराचट्टी, बोधगया, मखदूमपुर और इमामगंज से भी चुनाव लड़े और जीत हासिल की, लेकिन गया सीट से सांसद के रूप में उनके निर्वाचित होने का सपना उनका अभी तक पूरा नहीं हो सका है, जो उनकी सीमितता को दर्शाता है। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनावों में जीतनराम मांझी की पार्टी ने 21 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन, पार्टी एक सीट ही जीत पाई थी।