एक बात तो पक्की तौर पर कही जा सकती है कि भागलपुर के एनजीओ सृजन महिला विकास सहयोग समिति लिमिटेड और दो बैंकों पर जिला प्रशासन की ख़ास मेहरबानी थी। इसी वजह से प्रशासन ने इस एनजीओ की निगरानी अपने मातहत नाजीरों के भरोसे छोड़ दी थी इसका नतीजा ये हुआ कि 700 करोड़ रुपये के सरकारी धन पर डाका पड़ा और बंदरबांट हुआ। ये नाजिर एक अर्से से यहां जमे हैं। अगर एक दो बार ट्रांसफर भी हुए तो फिर से जुगाड़ बैठाकर वापस आ गए। सरकारी धन की लूट में संतरी से मंत्री तक ने फायदा उठाया। सृजन दफ्तर में लगी रसूखदारों की फोटो इस बात की गवाह है। पर संदेह है कि इस रहस्य से पुलिस पर्दा उठा पाएगी। अब तक फर्जीवाड़े के खेल में इंडियन बैंक , बैंक आफ बड़ौदा के अधिकारी और कर्मचारी दबोचे गए है। कई फरार है। सृजन की भी प्रबंधक, ऑडिटर और इनके लिए फर्जी बैंक पासबुक व विवरणी बनाने वाले सबूत के साथ गिरफ्तार हुए हैं।
संस्था की सचिव प्रिया कुमार और इनके पति अमित कुमार फरार है। सरकारी तौर पर घपले में शरीक कल्याण अधिकारी अरुण कुमार के अलावे कल्याण महकमा के नाजिर महेश मंडल, डीएम के सहायक प्रेम कुमार, भू- अर्जन के नाजिर राकेश कुमार झा, ज़िला परिषद के नाजिर राकेश यादव तो पुलिस के शिकंजे में आ चुके है। मगर नजारत के सहायक नाजिर अमरेंद्र कुमार यादव और भू – अर्जन के पूर्व अधिकारी राजीव रंजन गायब है। साथ ही कल्याण महकमा के अधिकारी अरुण कुमार की पत्नी इंदु गुप्ता भी फरार हो गई है। रविवार को इनके पटना आवास पर भागलपुर से गई पुलिस टीम ने छापा मारा था। पर कामयाबी नहीं मिली। इनका भी सृजन के खाते से करोड़ों का लेनदेन सामने आया है।
दिलचस्प बात यह है कि 2004 से अबतक ज़िले में 11 डीएम आए गए। मगर ये नाजिर भागलपुर में ही इर्दगिर्द पोस्टिंग पाते रहे। केपी रंमैया, मिहिर कुमार सिंह, विपिन कुमार, संतोष कुमार मल्ल, चंदना प्रेयसी, राहुल सिंह , नर्मदेश्वर लाल, प्रेम सिंह मीणा, बी कार्तिकेय, वीरेंद्र कुमार यादव और आदेश तितमारे। ये फिलहाल यहीं है और अगस्त 2015 में इन्होंने भागलपुर जिलाधीश का पद भार ग्रहण किया था। ये तमाम डीएम आईएएस है। जांच के दौरान पता चला है कि सृजन संस्था की शुरुआत 1996 में हुई थी। जिसकी संथापक मनोरमा देवी है। जिनका निधन इसी साल फरवरी में हुआ है। इसके बाद इनकी पुत्रवधू प्रिया कुमार संस्था की सचिव बनी। 2004 में भागलपुर सेंट्रल कॉपरेटिव से इसे मान्यता मिली। तब से बैंकिंग काम सृजन ने करना शुरू किया। मगर इसके लेनदेन की सीमा थी। इस सीमा को रसूखदारों और ज़िले में पोस्टेड आला अफसरों के प्रभाव का इस्तेमाल कर तोड़ डाला गया और सरकारी धन पर ही डाका डाला गया।
शक की गुंजाइश इस वजह से भी है कि इन नाजीरों ने सरकारी धन को इंडियन बैंक और बैंक आफ बड़ौदा में ही रखने का खेल खेला। साहब को भी इन्होंने पटाया। क्योंकि सृजन संस्था के छह खाते इन्हीं बैंकों में थे। सरकारी धन को सरकारी खाते से सृजन के खाते में ट्रांसफर कर फर्जीवाड़ा करने में आसानी थी। और बैंक से भी मोटी रकम जमा के एवज में खुशीभक्ति मिल जाती थी। इसी तरह नौकरी के कम समय में ही ये नाजिर करोड़ों की हैसियत वाले हो गए। जांच में इसका खुलासा हुआ है। अब सवाल ये है कि इस घोटाले में जिन रसूखदारों ने करोड़ों रुपये का फायदा कमाया है पुलिस और प्रशासन की जांच उनकी गिरेबां तक पहुंच पाएगी?
जबकि गोड्डा के निवासी संजीत कुमार ने 25 जुलाई 2012 को सृजन के कामकाज पर सवाल उठाते हुए भारत के वित्त मंत्री को पत्र लिखा था। इस पर भारतीय रिजर्व बैंक ने सितंबर 2013 में बिहार सरकार के सहकारिता विभाग को पत्र भेज सख्त कार्रवाई करने का आदेश दिया था। जांच कमेटी भी बनी। पर कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ किसी को कुछ पता नहीं है। जांच करने वाले एक अधिकारी के मुताबिक सृजन के बैंक खातों में सरकारी धन के हस्तान्तरण का सिलसिला 2009 से तेजी पकड़ा और 2014 आते आते हस्तान्तरण की रफ्तार बुलेट ट्रेन से भी ज्यादा हो गई। जाहिर है किसी ने इस गोरखधंधे पर ग़ौर नहीं किया।
