‘बुरा मत देखो’, ‘बुरा मत कहो’ और ‘बुरा मत सुनो’। नैतिक शिक्षा का उपदेश देती, बापू के इन तीन बंदरों की मूर्तियों को कौन नहीं जानता। बंदर की इन तीन मूर्तियों के माध्यम से महात्मा गांधी ने नैतिक शिक्षा का यह संदेश जन-जन तक पहुंचाया, लेकिन इन तीन बंदरों की मूर्तियों के इतिहास से आज भी अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। मानव जाति को नैतिकता की सीख देती हुई, तीन बंदरों की पत्थर से बनी मूर्तियां रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में प्रदर्शित की गई हैं। संग्रहालय में लिखा हुआ है कि ये मूर्तियां 16 वीं या 70 वीं शताब्दी की हैं और इन्हें राजनंदगांव के पूर्व शासक महंत राजा घासीदास के व्यक्तिगत संग्रह से प्राप्त किया गया था।

संभव है कि महात्मा गांधी ने भी यह संग्रहालय देखा हो और नैतिकता की शिक्षा देते हुए बंदरों की इन तीन मूर्तियों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यह संदेश जन-जन तक पहुंचा दिया। महंत घासीदास संग्रहालय छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर में है। यह संग्रहालय राजभवन से मात्र कुछ ही कदम की दूरी पर है। इसे नंदगांव रियासत के बैरागी राजा महंत घासीदास ने सन 1875 में बनवाया था। नंदगांव रियासत की राजधानी राजनंदगांव में थी।

1953 में राजमाता जयंती देवी और उनके पुत्र राजा दिग्विजय दास ने इस भवन का पुनर्निर्माण कराया था। संग्रहालय के नए भवन का लोकार्पण भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के कर कमलों किया गया। रानी जयंती देवी का विवाह 2 मार्च 1932 को नंदगांव के राजा सर्वेश्वर दास से कोलकता में हुआ था। राजकुमारी जयंती देवी मयूरभंज के राजा केशव चंद्र सेन की पौत्री थी। राजा महंत घासीदास नंदगांव रियासत के आठवें राजा थे।

1 जनवरी 1948 को इस रियासत का स्वतंत्र भारत में विलय हो गया। उस वक्त रियासत के आखिरी राजा, दिग्विजय दास नाबालिग थे, इसलिए विलय की संधि पर राजमाता जयंती देवी ने हस्ताक्षर किए। महंत घासीदास संग्रहालय एक पुरातात्विक संग्रहालय है जो भारत के अत्यंत प्राचीनतम 10 संग्रहालय में से एक है। इस संग्रहालय में बैरागी राजाओं के हथियारों के अतिरिक्त देवताओं की अनेक मूर्तियां, प्राचीन सिक्के और छत्तीसगढ़ की जनजातीय संस्कृति से संबंधित अनेक चीजें प्रदर्शित की गई हैं।

नंदगांव रियासत की स्थापना, वैष्णव परंपरा से संबंध रखने वाले निंबार्क संप्रदाय और निर्मोही अखाड़े के संत प्रसाद दास बैरागी ने की थी। प्रसाद दास बैरागी पंजाब से आए थे और वे बिलासपुर के निकट स्थित रतनपुर नामक स्थान पर मराठा राजा बिंबा जी के राजगुरु बन गए थे। प्रसाद दास बैरागी, सनातन धर्म की वैष्णव परंपरा का प्रचार करने के लिए पंजाब से 1665 में रतनपुर आए और मराठा राजाओं ने उन्हें एक छोटी सी जमीदारी दान में दी।

बाद में बैरागी संत के उत्तराधिकारी, महंत रघुवर दास और महंत हिमाचल दास ने तीन अन्य जमीदारी भी अपनी रियासत में शामिल कर ली। ये बैरागी राजा निर्मोही अखाड़े से संबंध रखते थे इसलिए उन्हें लड़ाई और शस्त्रों का भी अच्छा अनुभव था। राजनांदगांव के राजा सनातन धर्म के बहुत बड़े संतों में से थे। इसलिए वे राजा होने के साथ-साथ अन्य कई रियासतों के राजगुरु भी थे। उनकी संत प्रवृत्ति की झलक पत्थर से बनी इन तीन मूर्तियों में बड़ी आसानी से देखी जा सकती है जो कुछ भी न बोलकर, कई शताब्दियों से मानव जाति को नैतिकता का पाठ पढ़ा रही हैं।

(लेखक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी हैं)