अंशुमान शुक्ल

लखनऊ की गलियां, सड़कें और चौराहे अटल बिहारी वाजपेयी की यादों को संजोए हुए हैं। करीब 70 साल पहले नवाबों के इस शहर को अपना बना चुके वाजपेयी को इस शहर के लोगों ने कभी पैदल तो कभी साइकिल से चलते भी देखा है। उन्हें भारत रत्न मिलने पर पूरा शहर प्रसन्न है। मानो उन्हीं के किसी अपने को भारत सरकार ने यह सम्मान दिया हो।

लखनऊ से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे अटल बिहारी वाजपेयी का रिश्ता करीब सत्तर बरस पुराना है। जनसंघ की स्थापना के पहले उन्होंने इसी शहर में तीन समाचार पत्रों राष्ट्रधर्म, स्वदेश और मदरलैंड का संपादन किया। यह वह दौर था जब अटल बिहारी वाजपेयी चौक-चौराहे पर अक्सर शाम को सिर्फ तीन घंटे ही लगने वाली दीक्षित की चाट खाने पहुंच जाया करते थे। कभी पैदल, कभी साइकिल से तो कभी रिक्शे पर। चौक के चौरस्ते पर राजा की ठंडई की दुकान से अक्सर शुरू होने वाला वाजपेयी का सफर राम आसरे की मिठाई की दुकान के मलाई पान पर जाकर समाप्त होता था और वे वापस अपने ठिकाने को लौट जाते थे। पचास से अधिक बरसों से उनके साथ रहने वाले लखनऊ के पूर्व सांसद लालजी टंडन अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न मिलने से बेहद प्रसन्न हैं। वे कहते हैं, इस शहर में लोगों के अटल थे और अटल के लोग थे। कौन ऐसा था जो उनका सानिध्य प्राप्त करने की लालसा न रखता हो।

वाजपेयी की संगत के कारण खान-पान के शौकीन हुए लालजी टंडन कहते हैं- बात 1960 की है। उस वक्त चौक-चौराहे पर लोग तख्त रख कर चाट बेचा करते थे। मैं भी जवान था और अटल जी भी। हम दोनों जब उधर से गुजरते थे और जैसे ही अटल जी की निगाहें दीक्षित जी की चाट की तख्त पर जाती थीं वह हमारी तरफ देखने लगते थे। उस वक्त उनकी आंखों से एक बालक का आग्रह परिलक्षित होता था। मानो कह रहे हों, टंडन जी चलो कुछ पानी के बताशे खा ही लेते हैं। उसके बाद हम लोग इत्मीनान से दीक्षित जी के गोलगप्पे खाते थे और बढ़ चलते थे शिव आधार की ठंडई की दुकान की तरफ। क्या ठंठई बनाता था शिव आधार। भाई वाह। वहां ठंडई पीने के बाद हम दोनों जाते थे राम आसरे की मिठाई की दुकान पर। वाजपेयी को देखते ही राम आसरे पीतल की प्लेट या ढाक के पात पर मलाई पान निकालते थे और उन्हें दे देते थे। मलाई पान मुंह में जाते ही गल जाता था और उसके बाद उसकी शान में वाजपेयी की कसीदेकारी शुरू होती थी जो गली के बाहर निकलने तक जारी रहती थी।

मीराबाई मार्ग स्थित राज्य अतिथि गृह में लंबे समय तक अटल बिहारी वाजपेयी का अस्थायी निवास था। बतौर सांसद वह यहीं रहना पसंद करते थे क्योंकि लोगों से यहां मिल पाना आसान होता था और भोजन का बंदोबस्त भी बेहद आसानी से हो जाया करता था। लालजी टंडन कहते हैं-अटल जी को अपने लोगों से कभी भय नहीं लगता था। जहां मन किया रुके, लोगों से भेंट करते और आगे बढ़ जाते। अब भाजपाइयों में उनके जैसे संस्कार दिखते नहीं। महंगी गाड़ियों और ऊंची अट्टालिकाएं नेताओं की हैसियत बयां करती हैं। सोचिए करीब 70 बरस अटल जी ने लखनऊ में गुजारे। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वे हमेशा इस शहर के ही होकर रह गए। लेकिन इस शहर में उनकी न ही एक इंच जमीन है और न छोटी सी झोपड़ी। शायद यही वजह थी कि जब वे लखनऊ आते थे तो पूरे शहर को लगता था कि उनका कोई अपना, घर आ रहा है। इसी का नतीजा है कि आज पूरा लखनऊ उन्हें भारत रत्न मिलने पर खुशियां मना रहा है।