असम सरकार राज्य के पारंपरिक पहनावे को बढ़ावा देने के मकसद से सरकारी कमर्चारियों के लिए ड्रेस कोड तय करना चाहती है। यह हालांकि अभी प्रस्ताव के स्तर पर ही है लेकिन कमर्चारियों का एक गुट इसका विरोध कर रहा है। वैसे, यह स्वैच्छिक होगा। इसके तहत पारंपरिक पहनावे को बढ़ावा दिया जाएगा। प्रस्तावित ड्रेस कोड के तहत पुरुषों को धोती-कुर्ते और महिलाओं को मेखला-चादर में दफ्तर आने को कहा जाएगा। यह ड्रेस कोड महीने के पहले व तीसरे शनिवार को लागू होगा। कार्मिक विभाग के प्रधान सचिव पी.के. बरठाकुर ने प्रधान सचिव (सामान्य प्रशासन) पी.के. तिवारी को भेजे एक पत्र में इस बारे में एक समुचित प्रस्ताव तैयार करने को कहा है। पत्र के मुताबिक, मुख्य सचिव वी.के. पिपरसेना ने इसकी सलाह दी है। बरठाकुर ने लिखा है कि देखने में आया है कि दफ्तर के औपचारिक कामकाज के दौरान अफसरों व कर्मचारियों के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं है। उनमें पारंपरिक पहनावे को बढ़ावा देना जरूरी है। इसलिए कर्मचारियों को महीने के पहले व तीसरे शनिवार को स्वैच्छिक तरीके से पारंपरिक पहनावे में दफ्तर आने को कहा जा सकता है।
दूसरी ओर, कर्मचारियों के एक तबके ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए पारंपरिक शब्द का खुलासा करने की मांग की है। उनका कहना है कि असम में कई जनजातियां रहती हैं। सरकारी नौकरियों में भी तमाम जनजातियों के लोग हैं। ऐसे में पारंपरिक पहनावे का मतलब आखिर क्या है।इन कर्मचारियों का कहना है कि अगर पारंपरिक पहनावे का मतलब धोती-कुर्ता और मेखला-चादर हुआ तो इसे जबरन थोपना कहा जाएगा। कई को इसमें संघ परिवार की चाल नजर आ रही है। सरकार ने पहले उन स्कूलों में संस्कृत की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया है जहां इसके शिक्षक हैं। उससे कर्मियों के एक तबके में संदेह घना हुआ हैं।
बोडो जनजाति के लोगों ने भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं। अखिल बोडो छात्र संघ (आब्सू) का सवाल है कि पारंपरिक पहनावे का मतलब क्या असमिया पहनावे से हैं। विपक्षी कांग्रेस ने भी इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खुश करने की सरकारी कोशिश करार दिया है। इस मुद्दे पर असमिया कर्मियों में भी मतभेद है। एक गुट का मानना है कि इससे अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा में सहायता मिलेगी तो दूसरा गुट इससे होने वाले व्यावहारिक दिक्कतों की दलील देता है। इस गुट का कहना है कि बिना आदत के धोती-कुर्ता पहन कर दफ्तर का काम करने में परेशानी पेश आएगी। आधा समय तो धोती को संभालने में ही निकल जाएगा।
असम में रहने वाली तमाम जनजातियों के पारंपिरक पहनावे भी अलग-अलग हैं। अगर सरकार का मतलब असमिया पहनावे से है तो यह जबरन थोपने के समान है।
प्रमोद बोडो, आब्सू अध्यक्ष
यह महज संघ को खुश करने की कवायद है। ड्रेस कोड से कामकाज पर असर पड़ेगा। अपूर्व कुमार भट्टाचार्य,
कांग्रेस प्रवक्ता
असम में हर जनजाति और संप्रदाय का पारंपरिक पहनावा एक-दूसरे से भिन्न है। ऐसे में ड्रेस कोड पर सरकार के फैसले से भ्रामक स्थिति पैदा हो जाएगी।
बासव कलिता
सदौ असम कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष

