संसदीय सचिव बनाए गए 21 विधायकों की सदस्यता रद्द होने की तलवार लटकने के बाद एक बार फिर आम आदमी पार्टी (आप) सरकार उन 14 लंबित विधेयकों का मुद्दा उठाने वाली है जिन्हें नियमों को दरकिनार करके पिछले साल विधानसभा में पास कराया गया था। पिछली बार की तरह इस बार भी उपराज्यपाल ने उन गैर-वैधानिक विधेयकों को सदन में रखे जाने से रोकने के लिए अपना संदेश विधानसभा को भेजने के बजाए अपनी टिप्पणी के साथ केंद्र सरकार को भेज दिया था।
इसमें कहा गया था कि विधानसभा के शीतकालीन सत्र में केंद्र सरकार की इजाजत के बिना 14 विधेयकों को पास किया गया है। इसमें वे विधेयक भी हैं, जिनमें सरकारी बजट से पैसे खर्च होने हैं। ऐसे विधेयकों को पेश करने से पहले केंद्र की अनुमति जरूरी है। अब जिस तरह के हालात बन गए हैं उनमें तो इन विधेयकों को मंजूरी मिलने का कोई सवाल ही नहीं है। इनमें चर्चित जनलोकपाल विधेयक भी शामिल है जिसके नाम पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की पार्टी राजनीति में आई थी।
दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है इसलिए उसे ज्यादातर फैसले केंद्र सरकार के प्रतिनिधि उपराज्यपाल को विश्वास में लेकर ही करने पड़ते हैं। केजरीवाल इसके लिए तैयार नहीं हैं और वह वे सभी काम करने की घोषणा करते रहते हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इसी का नतीजा है कि उन्होंने भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) को अपना हथियार बनाना चाहा और पिछले कार्यकाल की तरह इस बार भी अपनी सरकार की सीमा से आगे बढ़कर जांच करवाने की घोषणा कर दी।
तंग आकर उपराज्यपाल ने नया एसीबी प्रमुख नियुक्त करके उसे उन्हें रिपोर्ट करने के आदेश दिए। इस मुद्दे पर इस कदर विवाद हुआ कि एसीबी प्रमुख मुकेश मीणा केजरीवाल के विरोधी हो गए। दिल्ली जल बोर्ड के टैंकर घोटाले में उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के साथ-साथ केजरीवाल से भी पूछताछ करने की जानकारी दे दी। जाहिर है उसकी रिपोर्ट अनूकूल न आने पर या केजरीवाल से पूछताछ जैसे सवाल पर मीणा की आप से ठननी तय है।
करीब तीन साल पहले हुए सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच राष्ट्रपति शासन में उपराज्यपाल पूर्व न्यायाधीश मुकुल मुद्गल से कराई थी। उसमें पाया गया था कि गड़बड़ी हुई है, लेकिन सरकारी धन का नुकसान नहीं हुआ है और किसी अफसर ने इरादतन गड़बड़ी नहीं की है।
इसके कारण उपराज्यपाल ने भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) को आगे कारवाई करने की इजाजत नहीं दी। इसके बावजूद आप सरकार ने नए सिरे से जांच शुरू करवाई। नियमों के विपरीत जाकर सरकार ने एसएन अग्रवाल आयोग बनाया जिसकी केंद्र से मंजूरी नहीं मिली। अग्रवाल कमेटी अभी भी वजूद में है। डीडीसीए घोटाले की जांच के लिए भी बिना केंद्र की अनुमति के आनन-फानन में सरकार ने गोपाल सुब्रमण्यम की अगुआई में जांच आयोग की घोषणा कर दी और लगे हाथ 22 अगस्त 2015 को विधानसभा की बैठक बुलाकर केंद्र सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पास करवा लिया।
पिछली बार 13 फरवरी 2014 को जनलोकपाल बिल के दूसरे रूप को बिना केंद्र की अनुमति के विधानसभा में पेश करने से रोकने के लिए उपराज्यपाल ने विधानसभा को संदेश भेजा, जिससे नाराज होकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया था। इस्तीफा देते हुए केजरीवाल ने कहा था कि दोबारा सरकार में आने के 24 घंटे के भीतर वे रामलीला मैदान में विधानसभा का सत्र बुलाकर इसे पास करेंगे।
अब केजरीवाल की समस्या यह है कि वे केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के साथ अपनी लड़ाई को इस स्तर तक ले आए हैं कि चाहकर भी उसे आसानी से खत्म नहीं कर सकते। जो लोग इस मुद्दे पर उनका साथ दे रहे थे कि केंद्र सरकार उन्हें काम करने नहीं दे रही है, उनकी संख्या भी लगातार कम हो रही है।
नगर निगम उपचुनाव के नतीजों और अब 21 विधायकों की सदस्यता खत्म होने की आशंका से आप की परेशानी ज्यादा बढ़ गई है। इसीलिए वह एक बार फिर केंद्र सरकार से उन विधेयकों को मंजूरी देने की मांग कर रही है जिनके पास होने के बाद उसकी कुछ कामकाजी छवि बनेगी।