बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जल्दी ही शराबियों के प्रति कुछ उदारता दिखाने वाले हैं। पहले शराबबंदी के लिए कठोर कानून बनाया फिर उसमें पुलिस प्रशासन को पूरी तरह से झोंक भी दिया। नतीजतन एक लाख से ज्यादा लोग जेल में हैं। उनके परिवार वाले तो इससे संकट में होंगे ही। पर उलटबांसी तो यह है कि इसके बावजूद सूबे में शराब का धंधा पूरी तरह बंद नहीं हो पाया। शायद इसी के मद्देनजर नीतीश अब शराबबंदी के कानून में फेरबदल करने वाले हैं। आगामी मानसून सत्र में विधानसभा में उसकी पहल दिखनी चाहिए। कठोर कानून में फेरबदल से कम से कम यह होगा कि जेल जाने वाले शराबियों में कमी आएगी। जमानत का प्रावधान होने से लोग जेल जाने से बच पाएंगे। लोकसभा चुनाव को देखते हुए जेल में बंद शराबियों को भी एक साथ माफी दे दी जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

नीतीश अपने फैसलों पर अडिग रहते हैं। शराबबंदी की ठान ली थी तो करके भी दिखा दिया। वह भी पूरी सतर्कता से। उस समय कहा भी था कि उनके आगे शराब माफिया की एक नहीं चलेगी। यों कर्पूरी ठाकुर के जमाने में भी शराबबंदी हुई थी। लेकिन बाद में शराब माफिया के कारण हटा दी गई। कर्पूरी ठाकुर को भी मजबूर होना पड़ा था। नीतीश के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई कि वे शराबबंदी के प्रति उदारता बरतने चले हैं। दरअसल चुनाव और वोट जो न करा दे।

आधी आबादी के वोट अपने लिए पुख्ता करने की मंशा से शराबबंदी की रणनीति अपनाई। लेकिन अब अपने ही घर के लोगों को जेल जाते देख आधी आबादी को भी परेशान होना पड़ रहा है। बलात्कार की तुलना में शराब सेवन की सजा ज्यादा है। संपत्ति की कुर्की जब्ती अलग से। चुनाव में पीड़ित परिवारों की नाराजगी का खमियाजा अलग भुगतना पड़ेगा। वैसे भी ज्यादातर प्रभावित परिवार तो गरीबों, अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के ठहरे। फिर सुराप्रेमियों की आबादी भी कोई कम नहीं है। बेचारे दुखी हैं। उनके बीच तो मजाक भी चलने लगा है कि जो पार्टी शराबबंदी हटाएगी, वोट उसी को दे देंगे। सुशासन बाबू को भी वोट की चिंता क्यों न हो। उन्हें भी अपने नेटवर्क से वोट कटने का फीडबैक मिला होगा। अन्यथा क्यों सोचते उदारता बरतने की बात।