अमरेंद्र किशोर
यह स्पष्ट है कि स्थानीय आदिवासी गैंडों का शिकार नहीं करते। गैंडों के अवैध शिकार में शामिल लोगों के तार अंतरराष्ट्रीय गिरोहों से जुड़े हैं। सरकार का खुफिया तंत्र सब कुछ जानता है, पर सवाल है कि क्या सरकार की ओर से उन इलाकों में ऐसा कोई जागरूकता अभियान चलाया गया है? 2015 में जितने गैंडों को शिकारियों ने मारा, उससे ज्यादा लोग पार्क के सुरक्षाकर्मियों की गोली से मरे।
काजीरंगा अभयारण्य में गैंडों की आबादी पिछले दो दशकों में दोगुनी हुई है। 1985 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के तौर पर घोषित यह अभयारण्य सरकार और स्थानीय संस्थाओं के समन्वय से हासिल एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर दुनिया के सामने नजीर है। मगर 2017 में वहां गैंडों के संरक्षण को लेकर सरकार के तौर-तरीकों पर अचानक दुनिया भर में बहस छिड़ गई।
गैंडों के संरक्षण की आड़ में स्थानीय मूल निवासियों के उत्पीड़न और शोषण की बातें होने लगीं। चूंकि गैंडों को बचाने और उनकी आबादी बढ़ाने की मुहिम एक संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय मसला है, इसलिए वन्यजीवों और वनवासियों के हितों पर काम करनेवाली संस्थाओं के सामने काजीरंगा अध्ययन का विषय बन गया।
वन्य जीवों के संरक्षण को लेकर नामचीन संस्थाओं को गैंडों की उन पांच प्रजातियों की चिंता है, जो आज धरती के कुछ खास इलाकों में पाई जाती हैं। संयोग है कि उन जंगलों में विविध प्रकार के दुर्लभ और संकटग्रस्त वन्य-जीवों के अलावा आदिवासी भी रहा करते हैं। भारत में सवा दो करोड़ आदिवासी आबादी के बीच हजारों की संख्या में गैंडे भी रहते हैं। मगर भारत में गैंडों को बचाने की मुहिम कुछ अलग किस्म की लगती है।
बताया जाता है कि पूर्वोत्तर भारत में आदिवासियों की जान की कीमत पर गैंडों की आबादी बढ़ाई जा रही है। इससे जुड़ी प्रामाणिक खबरें नागरिक समाज तक पहुंचीं, तो जैसे वितंडा मच गया। ऐसे में जंगलात विभाग की जमकर फजीहत हुई। अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि काजीरंगा के वन अधिकारियों पर शिकारियों के खिलाफ कार्रवाई दर्शाने का भारी दबाव बना रहता है। तभी तो जंगलों में घुसपैठ करते शिकारी मारे जाते हैं।
विज्ञान पत्रिका ‘नेचर कम्युनिकेशन’ में लंदन की एक गैर-सरकारी संस्था ‘वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन’ की छपी एक रिपोर्ट में असम की तीन प्रमुख जनजातियों, बायेट, दिमासा और कार्बी के लोगों के वन्यजीवों के अवैध शिकार में शामिल होने की पुष्टि की गई है। वैसे तो भारत में गैंडों को बचाने और उनकी आबादी बढ़ाने के तौर-तरीकों पर लंबे समय से अंगुलियां उठाई जाती रही हैं।
पर ‘अवैध शिकार पर पूरी तरह से नियंत्रण अभियान’ के नतीजे दिखाने के लिए निर्दोष आदिवासियों की हत्या जैसे निष्कर्षों तक जाने की बातें नहीं हुई थीं। सरकार की दलील है कि गरीबी में आदिवासी समझौता कर लेते हैं और तस्करों के एजेंट बन जाते हैं। हालांकि, स्थानीय समुदायों की खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मतलब भुखमरी से उन्हें उबारने को लेकर सरकार की ओर से अनेकानेक प्रयास किए जाते रहे हैं।
मगर ‘आदिवासियों की अपनी जड़वत सोच, सुस्त जीवन-शैली और शेष दुनिया से खुद को अलग रखने के निश्छल संजातीय खासियत के चलते वे सरकार के उद्धार और कल्याण वाले कार्यक्रमों से जुड़ नहीं पाते।’ यह भी सच है कि उद्यान के आला अधिकारी अवैध शिकार पर रोक लगाने के लिए स्थानीय जासूस भी पालते हैं। ये जासूस कभी-कभार निजी रंजिश निकालने के लिए स्थानीय निर्दोष आदिवासियों को भी शिकार बना लेते हैं।
असम में जो हो रहा है, उससे कमोबेश समूची दुनिया हैरान है। आदिवासी इलाकों में जहां युगीन जैव-विविधता को बाहरी हस्तक्षेप ने बर्बाद किया, तो बाद में संवर्द्धन के नाम पर शासकीय संरक्षण के चलते प्रकृति के साथ मूल बाशिंदों का तारतम्य कमजोर पड़ गया। राजकीय संरक्षण को आदिवासियों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया।
क्योंकि जहां युगों से आदिवासी पुश्तैनी अधिकारों के साथ जी रहे थे, अब उन्हें अनुदार राजकीय कृपा का मोहताज होना पड़ा है। इस तथ्य को काजीरंगा के बोडो आदिवासियों के बीच महसूस किया जा सकता है। नतीजतन, व्यवस्था-विरोधी अघोषित टकराहटों का माहौल बन जाता है। कई स्वयंसेवी संस्थाओं और वन्यजीव कार्यकर्ताओं के विश्लेषण और निष्कर्षों के बाद अब काजीरंगा को निर्दोष आदिवासियों का ‘वध-भूमि’ कहा जाने लगा है।
2014 के बाद से केवल दो शिकारियों को सजा हुई है, जबकि पचास संदिग्ध लोगों को गोली मार दी गई। उल्लेखनीय है कि काजीरंगा सदियों से बोडो आदिवासियों का कुदरती रिहाइश रहा है। ये आदिवासी यहां से जलावन की लकड़ियां, परंपरागत जीवन-शैली के लिए जड़ी-बूटियां और भोजन के लिए विभिन्न प्रजाति के औषधीय पौधों पर निर्भर रहे हैं।
देश के अन्य जनजातीय समुदायों की तरह इन बोडो लोगों की जंगल के चप्पे-चप्पे में पहुंच है। उनका वहां के वन्य जीवों से गहरा नाता रहा है। आदिवासियों का दावा है कि उनके पूर्वजों ने न सिर्फ गैंडों, बल्कि अन्य प्रजाति के पशु-पक्षियों के साथ सामंजस्य और साहचर्य का जीवन बिताया है। इनमें से कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई थीं, उन्हें बचाने में आदिवासियों का बड़ा योगदान रहा है।
मगर ऐसी दावेदारियों के बीच सरकार की ओर से इल्जाम क्यों लगाए जा रहे हैं? क्या सच में वन्य जीवों के अंधाधुंध शिकार में स्थानीय आदिवासी समुदायों की संलिप्तता रही है? बोडो परंपरागत तौर पर शिकार पसंद प्रजाति है। क्या वे अपनी शिकार-प्रथा में गैंडों को मारते रहे हैं? क्या गैंडों के अंतरराष्ट्रीय बाजार से स्थानीय आदिवासियों का कोई ताना-बाना है?
कुछ दशक पहले गैंडों के अस्तित्व पर संकट के लिए स्थानीय आदिवासी समुदायों को जिम्मेदार माना गया था। इसी बीच 2015 में खबर आई कि विभिन्न मुठभेड़ों में जंगलात विभाग ने साल भर में चौबीस आदिवासियों को मार गिराया। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी से पता चला कि 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत 2010 से 2015 के बीच कुल 636 लोगों को गिरफ्तार किया गया था।
1980 के दशक में असम में निहित स्वार्थी तत्त्वों के सरकार के साथ संघर्ष के बीच वन्य जीवों के संरक्षण की चिंता नहीं की गई। उस अवधि के बाद जब विद्रोहियों ने मानस राष्ट्रीय उद्यान में शरण ली, तो लकड़ियों और वन्य उत्पादों का भरपूर दोहन किया गया। उनमें गैंडों के अवैध शिकार से विद्रोही अकूत दौलत कमा रहे थे। उसी दौरान आदिवासियों को इस काम में शामिल होने के लिए बाध्य किया जाता था।
ऐसा नहीं कि सरकार ने गैंडों और अन्य वन्य जीवों के शिकार पर रोक लगाने की कोशिश नहीं की थी। सरकार ने पारिस्थितिकी बोर्ड की स्थापना करके तस्करों की मदद करने वाले हजारों आदिवासियों और वनाश्रित समुदायों को हथियार छोड़ कर सामान्य जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया, फिर भी ऐसे लोग अवैध कारोबार छोड़ने को तैयार नहीं हुए।
यह स्पष्ट है कि स्थानीय आदिवासी लोग गैंडों का शिकार नहीं करते। गैंडों के अवैध शिकार में शामिल लोगों के तार अंतरराष्ट्रीय गिरोहों से जुड़े हैं। सरकार का खुफिया तंत्र सब कुछ जानता है, पर सवाल है कि क्या सरकार की ओर से उन इलाकों में ऐसा कोई जागरूकता अभियान चलाया गया है? 2015 में जितने गैंडों को शिकारियों ने मारा, उससे ज्यादा लोग पार्क के सुरक्षाकर्मियों की गोली से मरे।
ज्यादातर बेगुनाह ग्रामीण आदिवासी हैं, जो इस संघर्ष की चपेट में आ जाते हैं- कुछ शिकारियों को पार्क में जाने के लिए मदद करने के दौरान मारे जाते हैं। कुछ प्रतिबंधित इलाके में अपने पशुओं को चराते हुए पहुंच जाते हैं। दरअसल, काजीरंगा के अधिकारी शिकारियों के खिलाफ ‘असाधारण उपाय’ अपनाने के दोषी हैं, क्योंकि उनमें जंगलों में संदिग्धों को ‘देखते ही गोली मार देने’ का आदेश मानने का जुनून है। वन्य जीवों की हिफाजत जरूरी तो है, पर सवाल है कि किस कीमत पर। क्या स्थानीय आदिवासियों के बीच जागरूकता अभियान चलाकर इस पूरे मुद्दे के तमाम पहलुओं पर प्रकाश डालना जरूरी नहीं?