इन दिनों पुलिस की दुनिया से दो ऐसे प्रसंग सामने आए हैं जो पुलिस सुधार के संदर्भ में भारतीय समाज के लिए निराशाजनक अनुभव कहे जाने चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से सीबीआइ के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के विरुद्ध स्वयं सीबीआइ समयबद्ध जांच करेगी। आरोप है कि सिन्हा ने 2-जी घोटाले के अभियुक्तों को लाभ पहुंचाने के क्रम में उनसे अपने निवासस्थान पर मुलाकातें कीं। जाहिर है, एक विश्वसनीय जांच एजेंसी के रूप में सीबीआइ की अपनी प्रतिष्ठा का भी इम्तिहान है। इससे भी अधिक हताश करने वाला सिलसिला रहा बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे अनुशासन में ढले पुलिस दलों के जवानों के (सेना के जवानों के भी) सोशल मीडिया पर कई आक्षेप भरे वीडियो वायरल होने का। इनमें उनकी सेवा-स्थितियों को लेकर उठाए गए गंभीर सवालों ने इन पुलिस बलों की सांगठनिक क्षमता को ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र में पुलिस संबंधी नीतिगत प्राथमिकताओं को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। फिलहाल इन पहलुओं की भी उच्चस्तरीय जांच संबंधित संगठन ही कर रहे हैं।
नरसिंह राव को देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का श्रेय देने वालों की कमी नहीं है। हालांकि कम ही लोगों को याद होगा कि वे सीआरपीएफ के एक विशिष्ट दस्ते रैपिड एक्शन फोर्स के जनक भी थे। यह भी कि केंद्रीय पुलिस बलों की उपस्थिति में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस की राजनीतिक शर्म को धोने की कड़ी के रूप में इस सामरिक दस्ते का जन्म हुआ था। इसे आसानी से सांप्रदायिक तनाव की गंभीरतम स्थितियों से निपटने में आज तक के सबसे विश्वसनीय बल का दर्जा दिया जा सकता है। राव के प्रधानमंत्रित्व पर अगर बाबरी विध्वंस को रोक पाने की नाकामी का धब्बा बना रहा तो आश्चर्य नहीं कि वे इस कारगर दस्ते के अस्तित्व में होने का श्रेय भी चाहते रहे हों। एसपीजी में काम करते हुए मुझे, तब राजनीति में अलग-थलग पड़े पूर्व प्रधानमंत्री से आधा घंटा अकेले बातचीत का एक अवसर मिला- राव बार-बार रैपिड एक्शन फोर्स मॉडल की बनावट और उपयोगिता पर लौट आते थे। दरअसल, संवैधानिक अर्थों में इस दस्ते का गठन पुलिस सुधार का एक महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक कदम था।
प्राय: बाबरी मस्जिद विध्वंस, संसद पर आतंकी हमला, मुंबई में आतंकी हमला, कश्मीर घुसपैठ या नक्सल उभार जैसी गरमाई पृष्ठभूमि तक सीमित संसदीय बहसों ने पुलिस बलों के सैन्यीकरण के आयाम को मजबूत किया है। लिहाजा, केंद्रीय बजट में आंतरिक सुरक्षा के मद में गृह मंत्रालय को धन आबंटन के सैन्यवादी नमूने पर कम ही ध्यान दिया जाता है। लोकतांत्रिक आयाम वाली पुलिस के संदर्भ में तो शायद ही कभी। इसी तीन फरवरी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दखल पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अशांत बस्तर संभाग में नागरिक समाज के विरुद्ध पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए अपनी छह सूत्री कार्रवाई-योजना पेश की है। इसके मुख्य बिंदु हैं, पुलिस की संवेदी ट्रेनिंग को मजबूत करना और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करना। एक तरह से यह राज्य-शक्ति की नागरिक अधिकारों से संतुलन बैठाने की अनिवार्यता की स्वीकारोक्ति ही हुई। कमोबेश, पुलिस कार्य-पद्धति का यह कमजोर आयाम हर राज्य पुलिस और तमाम केंद्रीय सुरक्षा बलों के सामने जब-तब प्रश्न खड़े करता रहता है।
पिछले एक दशक से पुलिस सुधार के नाम पर सरकारी या प्रबुद्ध नागरिक तबकों में कोई भी बहस, सन 2006 के प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में ही होती आई है। इस निर्णय की घोषित दिशा थी, राजनीतिक/प्रशासनिक कार्यपालिका के दखल से स्वतंत्र एक स्वायत्त और जवाबदेह पुलिस की स्थापना। इसे हासिल करने के प्रमुख उपकरण भी निर्णय में चिह्नित किए गए थे- अहम पुलिस पदों पर निश्चित कार्यकाल, मार्गदर्शन के लिए व्यापक प्रतिनिधित्व वाला पुलिस स्थापना बोर्ड, पुलिस का अपना आंतरिक पारदर्शी नियुक्ति बोर्ड और पुलिस के विरुद्ध आरोपों की त्वरित जांच करने में समर्थ बाह्य शिकायत समिति। हालांकि इन सुधारों के कार्यान्वयन को लेकर राजनीतिक-प्रशासनिक कार्यपालिका का उपेक्षित व्यवहार इन्हें अपेक्षित मुकाम पर पहुंचाने में बड़ी बाधा बना रहा है। तो भी, उपरोक्त दो प्रसंगों के आलोक में पहले दो उपकरण एक तरह से बेमानी ही सिद्ध हो जाते हैं। शेष दो उपकरण अन्यथा भी बरायनाम रहे हैं- नियुक्ति बोर्ड तबादलों की वही सिफारिशें करता है जो राजनीतिक आका चाहते हैं, जबकि शिकायत समितियां एक और पोस्ट आॅफिस भर सिद्ध हुई हैं।
रंजीत सिन्हा दो वर्ष के निश्चित कार्यकाल वाले निदेशक-सीबीआइ के पद पर कार्यरत थे। उन्हें मनमोहन सिंह सरकार ने कृपापूर्वक दो वर्ष के लिए निदेशक तब बनाया था जब उनके सेवानिवृत्त होने में दो महीने ही बचे थे। जाहिर है, राजनीतिक हलकों से ऐसी कृपा ठोंक-बजा कर ही की जाती है। इसी समीकरण के तहत, हाल में मोदी सरकार ने बजाय नियमित निदेशक लगाने के कृपापात्र गैर-वरीय राकेश अस्थाना को सीबीआइ का कार्यवाहक निदेशक नियुक्त कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद ही यह विसंगति दूर हो सकी। बीएसएफ और सीआरपीएफ आदि केंद्रीय बलों के लिए सर्वोच्च स्थापना बोर्ड का दायित्व स्वयं केंद्रीय गृह मंत्रालय इन संगठनों के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर उठाता है और तब भी वहां असंतोष के बढ़ते रिसाव को रोका नहीं जा सका। अब वीडियो सिलसिले के बाद भी, अनुशासन के परदे में छिपाया ही ज्यादा जा रहा है। कड़वी सच्चाई है कि ये दो प्रसंग पुलिस सुधार की विरूपित हो चुकी तस्वीर की एक झलक मात्र पेश करते हैं। दुर्भाग्य से दोनों प्रसंगों में घोषित जांच का दायरा भी सीमित है।
पंजाब के विधानसभा चुनाव में भी कानून-व्यवस्था एक बड़ा राजनीतिक मुद््दा बना हुआ था और उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी यह एक प्रमुख मुद््दा है। यही इसकी विसंगति भी है। मुद््दा बनाया जाना चाहिए था कानूनों की जन-विमुख संरचना और पुलिस व अदालतों की सामंती कार्यप्रणाली को। रोज जनता के संपर्क में आने वाली पुलिस को लोकतांत्रिक कलेवर प्रदान करना मुद््दा होना चाहिए था। केरल की जन-मैत्री पुलिस का प्रयोग देश में एकमात्र उदाहरण है जो सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के लिए दलगत राजनीति का नहीं, प्रशासन में पारदर्शी जन-भागीदारी का मुद््दा बनता है। इसलिए यह पुलिस सुधार का एक सफल, बेशक सीमित, मॉडल कहा जा सकता है।
2017-18 के केंद्रीय बजट में भी केंद्रीय पुलिस बलों का आबंटन पुलिस सुधार को भुला दिए जाने की दिशा में ही रखा जा सकता है। औपनिवेशिक जमाने के क्रम में, सामंती अनुशासन से ग्रस्त केंद्रीय पुलिस बलों के कुल आबंटन 83,100 करोड़ के मुकाबले केवल 800 करोड़ का प्रावधान किया गया है राज्य पुलिस बलों के आधुनिकीकरण के लिए। यह गत वर्ष से भी 85 करोड़ कम है। केंद्र के पास अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी से उदासीन रहने का वही घिसा-पिटा तर्क मिलेगा कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। दरअसल, चिदंबरम के केंद्रीय गृहमंत्री रहते लगभग दो हजार करोड़ तक जा पहुंची यह राशि तब से नीचे ही फिसलती गई है। यहां तक कि स्वयं केंद्रीय बलों की संविधान-संवेदी ट्रेनिंग के लिए केंद्रीय बजट में अलग से कोई असरदार व्यवस्था नहीं की जाती है। उनके लिए भी आधुनिकीकरण का मतलब बस सैन्य रणनीति को इकतरफा मजबूत करना बना दिया गया है।
सोचना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय समर्थित पुलिस सुधार की गाड़ी भी इतनी आसानी से पटरी से कैसे उतरती चली गई? दरअसल, प्रकाश सिंह मामले की सर्वोच्च न्यायालय में चली लंबी सुनवाई से निकले पुलिस सुधार के तमाम उपकरण पुलिस के सामंती-सैन्यवादी ढांचे पर चोट करते ही नहीं। लोकतांत्रिक अर्थों में वास्तविक सुधार लाने के लिए, वांछित नीतिगत पहल का स्वरूप केंद्रीय बजट में प्रतिबिंबित होना चाहिए।