जयप्रकाश त्रिपाठी
आधुनिक दासता यानी जबरन मजदूरी, वह चाहे किसी भी रूप में हो, मानवता के विरुद्ध अपराध है। इसलिए भारत जैसे देश में इसके उन्मूलन की तत्काल आवश्यकता है। इसका अंतिम लक्ष्य एकीकृत और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना है, जो सभी के लिए समान अवसर और बुनियादी तौर पर न्यूनतम मजदूरी के साथ व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करे। हमारे देश में जबरन श्रम, बेगारी का मुद्दा मूलत: व्यापक कृषि समस्या का एक हिस्सा है।
आज भी दुनिया भर में पांच करोड़ से ज्यादा लोग आधुनिक किस्म की गुलामी में कैद हैं। आधुनिक लोकतंत्र में गुलामी का यह कलंक है बेगारी यानी जबरन श्रम, जिस पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और यूरोपीय कमीशन की एक ताजा रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि सात साल पहले तक दुनिया भर में, जो करीब 2.80 करोड़ लोग जबरन श्रम वाली स्थितियों में काम कर रहे थे, अब उनकी संख्या में दस गुना (28 करोड़ से ज्यादा) इजाफा हो चुका है। इस रिपोर्ट का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी है कि यह मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
दुनिया में लगभग 4.03 करोड़ लोग आधुनिक गुलामी का शिकार हैं, जिनमें से 2.49 करोड़ लोगों से जबरन मजदूरी कराई जा रही है। हमारे देश में भी ऐसे हजारों बंधुआ मजदूर हैं, जो घरेलू श्रमिक, कपड़े धोने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने, बागवानी आदि के काम करते हैं। उन्हें मामूली मजदूरी दी जाती है, वह भी समय पर नहीं। बहुत सारे मजदूरों को तो मजदूरी के बदले मात्र खाना, कपड़ा और आवासीय सुविधा दी जाती है।
एक अनुमान के मुताबिक, पूरी दुनिया में कम से कम 6.8 करोड़ महिलाएं और पुरुष घरेलू नौकर के रूप में कार्यरत हैं। इनमें भी गांवों से विस्थापित लगभग अस्सी फीसद लड़कियां और महिलाएं हैं। कानूनी परिधि में इन्हें श्रमिक के बजाय मददगार बता दिया जाता है। ये न्यूनतम वेतन, कानूनी समझौता, स्वास्थ्य देखभाल, छुट्टियों, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ आदि से वंचित होते हैं।
आधुनिक विश्व में करोड़ों लोग गैरकानूनी ‘जबरन श्रम’ से प्रभावित हैं। ये अक्सर उन उद्योगों में भी पाए जाते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में श्रमिक होते हैं, लेकिन विनियमन कम होता है। ये ज्यादातर कृषि, मत्स्य पालन, निर्माण, खनन, खदान, र्इंट भट्टे, विनिर्माण, पैकेजिंग, वेश्यावृत्ति और यौन शोषण, बाजार व्यापार के साथ ही आपराधिक अवैध गतिविधियों में इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
हमारे देश में प्रवासी श्रमिकों के रूप में गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समूहों को निशाना बनाया जाता है। इस तरह देखें तो, इक्कीसवीं सदी में भी गुलामी खत्म नहीं हुई है, सिर्फ इसका स्वरूप बदला हुआ है। मूल्य चुकाए बिना श्रम कराने की प्रथा बेगार है। राष्ट्र संघ भले वर्ष 2030 तक मानव तस्करी, जबरन मजदूरी, बाल श्रम और गुलामी को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हो, सामंती, साम्राज्यवादी और अफसरशाही की शक्तियां डंके की चोट पर समाज के कमजोर लोगों से बेगार करवा रही हैं।
आज भी दुनिया में प्रत्येक एक हजार लोगों में से कम से कम तीन लोग जबरन श्रम (बेगारी) करने को अभिशप्त हैं। यूरोपीय कमीशन ने जबरन श्रम के खिलाफ एक कानूनी व्यवस्था बनाने पर जोर देते हुए गत वर्ष पहली बार ऐसे उत्पादों के आयात-निर्यात को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव यूरोपीय संसद में प्रस्तुत किया, जिनके विनिर्माण में मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए दासता के उपायों का प्रयोग किया गया हो। उससे पहले अमेरिका ने एक कानून बनाकर ऐसे उत्पादों को प्रभावी रूप से प्रतिबंधित कर दिया। उधर, संयुक्त राष्ट्र का अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन इस दिशा में सक्रिय हो गया।
बताया गया कि दुनिया में ऐसे गुलामी या दासता से पचास फीसद से अधिक उत्पीड़ित एशिया-प्रशांत क्षेत्र के हैं। इसके बाद पूरी दुनिया में ऐसी सरकारों और उद्योगों से जुड़ी नियंत्रक शक्तियों में हड़कंप मच गया, जहां उत्पादन में जबरन मानव श्रम का इस्तेमाल हो रहा है। दुनिया में पहली बार उन वस्तुओं पर कड़े प्रतिबंध की पहल की गई, जिनके उत्पादन में जबरन श्रम का इस्तेमाल हुआ हो। उसके बाद से, चीन के साथ ही, दो सबसे बड़े पाम आयल उत्पादकों- मलेशिया और इंडोनेशिया- के साथ एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ है।
दक्षिणपूर्व एशिया में यूरोपीय व्यापार का प्रतिनिधित्व करने वाली ईयू-आसियान बिजनेस काउंसिल का कहना है कि दक्षिणपूर्व एशिया के देश यूरोपीय यूनियन के इस कानूनी कदम से चिंतित हैं। उसके प्रस्तावों पर दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के साथ आपसी सहमति, असमति को लेकर वार्ताएं जारी हैं। इस बात पर साझा सहमति बनाने की कोशिशें चल रही हैं कि मानवाधिकार के संरक्षण के लिए उत्पादन में हो रहे कानूनी उल्लंघन रोकने में जरूरी नियामक बना कर एक-दूसरे का सहयोग बरकरार रहे।
इन सब बातों के साथ ही उत्पादन में जबरन श्रम का मुद्दा अब दुनिया के अमूमन ज्यादातर देशों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एक गंभीर अड़चन बन चुका है। इसका सर्वमान्य समाधान कतई आसान नहीं दिख रहा है, क्योंकि दक्षिणपूर्व एशियाई देशों से यूरोपीय देशों में निर्यात होने वाले ज्यादातर सामान (जूते, कपड़े आदि) के उत्पादन में अन्य जगहों से आयातित कच्चे माल का इस्तेमाल हो रहा है। सबसे बड़ी मुश्किल कच्चे माल और उत्पादन की आपूर्ति शृंखला की पारदर्शिता पर पार पाने को लेकर है। एक ताजा जानकारी के मुताबिक, दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाओं और खुद यूरोपीय संघ में सात प्रतिशत कामगार बंधुआ मजदूर हैं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 स्पष्ट रूप से जबरन श्रम यानी बंधुआ मजदूरी, बेगारी, मानव श्रम की तस्करी आदि का सख्त निषेध करता है। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 में प्रावधान है कि किसी भी व्यावसायिक उद्यम में चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों का नियोजन गैरकानूनी है। आश्चर्यजनक रूप से गौरतलब है कि इसमें कृषि के साथ-साथ घरेलू कार्य सहित असंगठित क्षेत्रों के मेहनतकश बच्चों का एक वर्ग शामिल नहीं किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मजदूरी की व्याख्या उस मजदूरी के भुगतान के रूप में की है, जो प्रचलित बाजार मजदूरी और कानूनी न्यूनतम मजदूरी से कम है। हमारे देश में ऐसे बंधुआ मजदूर ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में र्इंट भट्टों, पत्थर की खदानों, कोयला खनन, कृषि श्रम, घरेलू दासता, सर्कस और यौन दासता जैसे असंगठित उद्योगों में पाए जाते हैं।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 24 कहता है कि चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खान में काम पर नहीं लगाया जाएगा या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाएगा। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 ने राज्य के लिए यह सुनिश्चित करना अनिवार्य कर दिया है कि छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चे स्कूल में हों और निशुल्क शिक्षा प्राप्त करें।
खान अधिनियम 1952 के अनुसार अठारह वर्ष से कम आयु के बच्चों का खानों में नियोजन अवैध है। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन समझौता संख्या 138 (रोजगार के लिए न्यूनतम आयु) और समझौता संख्या 182 (बाल श्रम का सबसे खराब रूप) की पुष्टि करता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 374 के तहत ‘गैरकानूनी अनिवार्य मजदूरी’ शब्द को परिभाषित किया गया है, जो कहता है कि कोई भी किसी व्यक्ति को उस व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध मजदूरी करने के लिए मजबूर करता है, उसे जेल और जुर्माना दोनों से दंडित किया जा सकता है। यहां तक कि हमारे देश में भीख मांगना भी जबरन मजदूरी की वर्जित श्रेणी में रेखांकित है।
आधुनिक दासता यानी जबरन मजदूरी, वह चाहे किसी भी रूप में हो, मानवता के विरुद्ध अपराध है। इसलिए भारत जैसे देश में इसके उन्मूलन की तत्काल आवश्यकता है। इसका अंतिम लक्ष्य एकीकृत और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना है, जो सभी के लिए समान अवसर और बुनियादी तौर पर न्यूनतम मजदूरी के साथ व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करे। हमारे देश में बंधुआ मजदूरी (जबरन श्रम), बेगारी का मुद्दा मूलत: व्यापक कृषि समस्या का एक हिस्सा है। ग्रामीण कृषि संरचना और सामाजिक संबंधों में मूलभूत बदलाव लाकर ही इस समस्या का स्थायी समाधान किया सकता है।