शरणार्थी समस्या इस समय दुनिया भर में सबसे गहरी चिंता का विषय है। इसका कोई निदान किसी के पास नहीं है। आतंकवाद से जूझ रहा सीरिया एक ऐसा देश हो गया है, जिसका हर नागरिक वहां से पलायन करने की सोच रहा है। पलायन में कुछ सफल हो जाते हैं, तो कुछ विफल। इस समय सीरिया की आधी आबादी या तो बाहर निकल कर कहीं न कहीं शरणार्थी बन चुकी है, बनने की प्रक्रिया में है या बनने के लिए भटक रही है। सीरिया की कुल जनसंख्या 2.3 करोड़ थी, जिसमें से 1.1 करोड़ लोगों ने देश छोड़ दिया है। यानी आज वहां 1.2 करोड़ लोग बचे हैं और उनमें से प्रतिदिन नौ हजार लोग किसी तरह बाहर भाग रहे हैं।

पिछले दिनों हमने एक तीन वर्षीय बच्चे एलन कुर्दी की तुर्की के समुद्र किनारे पड़े शव की तस्वीरें देखीं, उसकी मौत की कारुणिक कथा सुनी। लेकिन वह अपने आप में अकेली घटना नहीं थी। सच यह है कि किसी तरह भागने के क्रम में कम से कम चार हजार लोगों के समुद्र में समा जाने का रिकॉर्ड है, पर कितने परिवार एक-दूसरे से बिछड़े होंगे, कितने कहीं की जेलों में पहुंच गए होंगे, कितनों का अपहरण हो गया या कितने गुलाम बना लिए गए, उनकी संख्या का पता लगाना मुश्किल है। यह आधुनिक युग की ऐसी मानवीय त्रासदी है, जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी।

आखिर ये क्यों देश छोड़ कर भाग रहे हैं? कहां भाग रहे हैं? कैसे भाग रहे हैं? भागने के बाद इन पर क्या बीत रही है? कहने की आवश्यकता नहीं कि आइएसआइएस और कुछ अल कायदा का कहर और उन्हें नियंत्रित करने में सीरिया, इराक और अमेरिका आदि के सैनिकों की विफलता ने इनका जीना दुश्वार कर दिया है। सबको अपने बच्चों की जिंदगी की चिंता है, इसलिए वे पलायन कर रहे हैं। जाने के लिए कोई सरकारी या व्यवस्थित तंत्र नहीं है, इसलिए जान की बाजी लगा रहे हैं। तो जान जोखिम में डाल कर छोटी नावों से ये भागते हैं। पार कर गए तो अपनी किस्मत से, न कर पाए तो मारे जाते हैं। नावों के दलाल इनसे मनमानी रकम भी वसूलते हैं, पर सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती।

ये लोग मुख्य रूप से भूमध्य सागर के रास्ते यूरोप में दाखिल हो रहे हैं। हाल में खबर आई कि ग्रीस के लेसबोस आईलैंड पर पलायन करने वालों द्वारा छोड़ी गई छोटी नावें, सेफ्टी जैकेट और टायरों का बारह फीट से भी ऊंचा मलबा जमा हो गया है। आश्चर्य की बात है कि इस समस्या को लेकर संयुक्त राष्ट्र चिंता तो जता रहा है, लेकिन कोई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित नहीं कर रहा।

इनकी त्रासदी देखिए कि लीबिया के रास्ते इटली जाने वाले हजारों शरणार्थियों को लीबियाई विद्रोही गुट बंधक बना रहे हैं। बंधक बना कर उन्हें गुलाम बनाते हैं, फिर गुलाम के रूप में बेचते भी हैं। उस क्षेत्र में गुलामों का बाजार बढ़ रहा है। आधुनिक युग में मनुष्य की गुलाम के रूप में खरीद बिक्री! इस पर सहसा विश्वास नहीं होता, लेकिन यह समय का कू्रर सच है। ये नाव डूबने से तो मरते ही हैं, आसानी से कोई देश इन्हें स्वीकार नहीं करता। हंगरी ने सर्बिया, क्रोएशिया से लगी सीमा बंद कर दी है। उसने बाड़ तक लगा दी है।

हंगरी की जनसंख्या ही है एक करोड़। छोटे-से उस देश के लिए शरणार्थियों का बोझ उठाना मुश्किल है। इस वर्ष दो लाख से ज्यादा लोग हंगरी में घुस गए। वैसे हंगरी होकर ही ज्यादातर लोग आॅस्ट्रिया, जर्मनी और स्वीडन गए हैं। इस नाते वह एक पारगमन स्थल है। अगर वह रास्ता बंद हो गया तो फिर शरणार्थियों का यूरोप के दूसरे देशों में जाना कठिन होगा। जब शरणार्थियों ने बाड़ देखी तो उसे काटना शुरू कर दिया। वे जबरन घुसने की कोशिश कर रहे थे। हंगरी की पुलिस ने इन पर कई बार आंसू गैस के गोले छोड़े। सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया। यह त्रासदी रोजमर्रा जैसी हो गई है।

हंगरी ने प्रवासियों के आने के संकट को देखते हुए अपनी दो काउंटियों में आपातकाल तक घोषित कर दिया है। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑरबन ने साफ कहा है कि सर्बिया से हंगरी आने वाले शरणार्थियों के यहां पनाह देने के आवेदन को स्वीकार नहीं किया जाएगा। यह भी कहा कि शरणार्थी अपने खिलाफ कार्रवाई के जोखिम पर ही यहां आ सकते हैं। हंगरी ने प्रवासियों को रोकने के लिए सीमा पर सेना तैनात कर दिया है, ताकि कोई कहीं से भी सीमा पार न कर सके। हंगरी ने क्रोएशिया के साथ अपनी सीमा को बंद करने के लिए सेना को टैंक वाहनों के साथ तैनात कर दिया है।

वहीं स्लोवेनिया में भी प्रवासियों की पुलिस के साथ झड़प हो चुकी है। क्रोएशिया प्रवासियों को बसों में भर कर हंगरी भेजता है। क्रोएशिया के प्रधानमंत्री जोरान मिलानोविक ने कहा है कि वह प्रवासियों को स्वीकार करने के लिए हंगरी को बाध्य करेगा। इस बयान से तनाव और बढ़ गया है। हंगरी आरोप लगा रहा है कि क्रोएशिया शरणार्थियों को बिना निबंधित किए भेज रहा है और वह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन कर रहा है। कई देशों के सीमा बंद करने के बाद आस्ट्रिया में 6700 शरणार्थी हंगरी से घुस आए थे।

हालांकि इनमें सीरिया के अलावा अफगानिस्तान और लीबिया के शरणार्थी भी होते हैं, पर उनकी संख्या इनसे कम होती है। हंगरी की सीमा बंद होने से शरणार्थी क्रोएशिया के रास्ते यूरोप जा रहे हैं। यह रास्ता इतना भयावह है कि किसी की जान जा सकती है। यहां के 680 किलोमीटर के क्षेत्र में बारूदी सुरंगें बिछी हुई हैं। 1990 में बाल्कन युद्ध के समय बारूदी सुरंगें बिछाई गई थीं। उन्हें हटाने का काम पूरा हुआ नहीं है। बारूदी सुरंगों में विस्फोट से अब तक करीब पांच सौ लोगों की मौत हो चुकी है।

हंगरी ऐसा करने वाला अकेला देश नहीं था। इसके पूर्व ब्रिटेन में डेविड कैमरन की सरकार ने शरणार्थियों को अस्वीकार करने की नीति अपनाई थी। स्लोवाकिया, चेक गणराज्य, पोलैंड आदि ने भी सीमा सील कर दी थी। दबाव बढ़ने पर स्लोवाकिया ने कहा कि वह सिर्फ ईसाई शरणार्थियों को बसाने पर विचार कर सकता है। वैसे चालीस लाख सीरियाई शरणार्थी जॉर्डन में हैं। दस लाख लेबनान चले गए। लेबनान की क्षमता इतने ही शरणार्थियों को झेलने की नहीं है। सीरिया जैसे संपन्न और उदार शासन के नागरिकों के लिए ऐसे देशों की व्यवस्था में रहना कठिन भी है। पश्चिम एशिया और खाड़ी का कोई देश शरणार्थियों के लिए आगे नहीं आ रहा है। इस्लाम के नाम पर भी नहीं। यह आश्चर्य का विषय है। इसका कारण शायद आइएस का भय है। यानी ये आइएस को दूर रखना चाहते हैं। यह बात अलग है कि आइएस सउदी अरब से लेकर संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत तक अपनी हिंसक दस्तक दे चुका है।

बहरहाल, इन सब कारणों से शरणार्थियों का मुख्य लक्ष्य यूरोप है। इसमें एकमात्र तुर्की है, जो बीस लाख से ज्यादा सीरियाई शरणार्थियों का भार तत्काल वहन कर रहा है। तुर्की के धिक्कार और दुनिया की आलोचना के बाद यूरोपीय देशों- जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन- ने हालांकि अपने यहां शरणार्थियों को शरण देने की बात स्वीकार की थी। जर्मनी ने विशेष उदारता दिखाई। इससे उम्मीद जगी कि शरणार्थियों को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप जीने का तंत्र मिल जाएगा। लेकिन उनके देशों में भी एक वर्ग अगर इसका समर्थन कर रहा है, तो दूसरा विरोध।

फ्रांस हमले के बाद शरणार्थियों को लेकर सारे देश फिर से सशंकित हो गए हैं। जी 20 के सम्मेलन में किसी ने पुरजोर ढंग से इस विषय को नहीं उठाया। जर्मनी में तो शरणार्थी शिविरों पर चरमपंथी तत्त्व हमले कर रहे हैं। उनको लगता है कि ये उनके हिस्से का खान-पान, नौकरी आदि लेने आ गए हैं। इससे बचाना जर्मनी के लिए अलग चुनौती है। चांसलर एंजेला मर्केल ने स्वयं शरणार्थी शिविरों का दौरा किया और सुरक्षा का आश्वासन दिया है। हाल में कैथोलिक पोप ने यह बयान दे दिया कि शरणार्थियों के वेश में आतंकवादी भी आ सकते हैं। इस बयान ने भी यूरोपीय देशों को सोचने पर मजबूर किया। यह आशंका निर्मूल भी नहीं है।

फ्रांस हमले के बाद पोप की बात का वजन और बढ़ गया है। वैसे भी आइएस, जो यूरोपीय देशों पर कब्जा करने तक की धमकी दे रहा है, के आतंकवादी इनके बीच शामिल होकर आ सकते हैं। दूसरे आतंकवादी समूहों के सदस्य भी आ सकते हैं। उनको पहचानना जरा कठिन होगा। लेकिन उनके भय से जीने के लिए भागते मनुष्यों की इतनी बड़ी संख्या को आप भगवान या शैतान के भरोसे तो नहीं छोड़ सकते।

फिर सवाल वही उठता है कि आखिर इसका अंतिम निदान क्या है? अनवरत काल तक तो इन्हें शरणार्थी रखा नहीं जा सकता। तो रास्ता एक ही है- आइएस और अल कायदा तथा उनसे प्रभावित ऐसे आतंकवादी समूहों का अंत। विश्व समुदाय इनके अंत पर विचार करे और संकल्प के साथ कार्रवाई के लिए आगे आए, अन्यथा दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें देशों से लोग ऐसे ही भागने लगेंगे, फिर यह मानवीय त्रासदी बिल्कुल निदान से परे हो जाएगी। लेकिन यह भी संभव नहीं है कि आप कार्रवाई करने तक शरणार्थी संकट की अनदेखी करें। इस मानवीय त्रासदी से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर विचार और नीति समय की मांग है। (अवधेश कुमार)