हरेक व्यक्ति के लिए अपना मकान सुखद अनुभूति देने वाला होता है। धनी वर्ग के सामने अपना मकान बनाना किसी समस्या की भांति नहीं होता। क्योंकि उनके पास धन की कमी नहीं होती। वे एक से अधिक मकान बनवा सकते हैं। मध्यम वर्ग अपनी जीवन भर की कमाई से आशियाना बनाने का प्रयास करता है। लेकिन निम्न वर्ग के लिए यह सपना ही रहता है। आज तक इस सपने को लेकर सिर्फ राजनीति होती रही है। इसके लिए किसी सरकार ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई है। गांवों से रोजगार के लिए शहर आने वाले झुग्गी बना कर रहने लगते हैं। वे रेलवे पटरी के किनारे रहने के लिए मजबूर हैं। सिर्फ चुनावों के दौरान झुग्गियों को नए मकानों में तब्दील करने की बात होती है। फिर इस वादे को बड़ी आसानी से भुला दिया जाता है।

खेती की लागत बढ़ने के कारण गांव छोड़ने पर मजबूर लोगों पर शायद ही किसी सरकार ने ध्यान दिया हो। इसलिए वे शहर में बसने के लिए मजबूर हैं। रोजी-रोटी की तलाश में वे गांव छोड़ते हैं। फिर वे एक दिन वहां से उजाड़ दिए जाते हैं। गांव की खुली हवा में सांस लेने वाले रोजगार के अभाव में छोटी-सी जगह में बदहाल जिंदगी गुजारने पर मजबूर हैं।

अगर आंकड़ों पर जाएं तो दिल्ली में लगभग सात सौ एकड़ झुग्गियां बसी हुई हैं। इनमें लगभग दस लाख लोग रहते हैं। नब्बे प्रतिशत झुग्गियां सरकारी जमीन पर हैं। इनमें रहने वालों में लगभग अस्सी प्रतिशत हिंदू और लगभग अठारह प्रतिशत मुसलिम हैं। इन बस्तियों में छियालीस प्रतिशत एमसीडी और पीडब्ल्यूडी की जमीनों पर रहते हैं। अट्ठाईस प्रतिशत लोग रेलवे की जमीन पर झोंपड़ी बना कर रहते हैं। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड के अनुसार ऐसी 685 बस्तियां बनी हुई हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में झुग्गी- झोपड़ियों में रहने वालों की जनसंख्या लगभग सवा चार करोड़ है।

संयुक्त राष्ट्र मानव विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट-2009 में कहा गया है कि मुंबई में 54.1 प्रतिशत लोग छह प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं।
मानव विकास रिपोर्ट-2009 के मुताबिक 2006-07 में एक औसत मुंबईकर साल में 65,361 रुपए कमाता था, जबकि पूरे महाराष्ट्र का औसत प्रतिव्यक्ति आय 41,331 रुपए और पूरे देश की औसत आय 29,328 रुपए हुआ करती थी। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि मुंबई देश में ही नहीं, पूरे विश्व का इकलौता शहर है जहां झुग्गियों में रहने वालों की संख्या बाकी लोगों की तुलना में अधिक है। अपने देश के दूसरे शहरों की बात करें तो दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकाता में 11.72 प्रतिशत और चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झोपड़ियों में रहते हैं। जबकि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग झोपड़ों में रहने को विवश हैं। इन आंकड़ों पर सरकार को संजीदगी से ध्यान देने की जरूरत है।

राजनीतिक दलों को झुग्गियों में रहने वालों की याद सिर्फ चुनावी घोषणापत्र बनाते समय आती है। झुग्गियों में रहने वाले लोग कई प्रकार की समस्याओं का सामना करते है। वहां सबसे ज्यादा समस्या पानी की होती है। साफ पेयजल न मिलने से वहां पर बीमारियां फैलती हैं। गंदगी की भरमार होने की वजह से लोग हैजा, टीबी जैसी गंभीर बीमारियों की चपेट में आते हैं। वहां पर रहने वाले लोगों को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। क्योंकि वे राशन कार्ड भी नहीं बना पाते। इससे उन्हें कई प्रकार की हानि होती है। सबसे बड़ी समस्या तो शौचालय की होती है। महिलाओं को इंतजार करना पड़ता है, या खुले में शौच जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

इन समस्याओं का स्थानीय स्तर पर हल ढूंढ़ना होगा। आसपास के क्षेत्र में अस्पताल, शौचालय और पाठशाला का इंतजाम करवाना चाहिए जिससे इन बस्तियों के लोगों को भी मूलभूत सुविधाएं मिल सकें। सबसे अच्छा समाधान तो यह होगा कि ऐसे लोगों को उनके मूल परिवेश में ही रोजगार मुहैया कराया जाय। इससे पलायन रुकेगा। वरना यह संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाएगी। फिर बिना बताए बस्तियां उजाड़ दी जाएंगी। इससे छोटे बच्चों और महिलाओं के सामने बड़ी त्रासद स्थिति उत्पन्न होती है।

दिल्ली के शकूरबस्ती में रेल मंत्रालय की ओर से हुई अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई में पांच सौ झुग्गियां तोड़ दी गर्इं। यह एक संवेदनशील मामला है, जिस पर राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तरह से रोटियां सेंकीं। लेकिन कोई हल नहीं निकल सका। एक दूसरे पर आरोप लगते रहे। लेकिन बस्ती वालों को त्वरित राहत पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मामले को बढ़ता देख न्यायालय को दखल देना पड़ा। हाईकोर्ट ने रेल मंत्रालय, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस, सभी को न सिर्फ कड़ी फटकार लगाई बल्कि कानूनी नोटिस भी थमा दिया है। कोर्ट ने घटना को अमानवीय बताते हुए जहां तीनों को नोटिस जारी किया है, वहीं रेलवे से पूछा कि क्या उसने पूर्व की गलतियों से कोई सीख नहीं ली है?

अदालत ने सख्त लहजे में कहा कि झुग्गियों को तोड़े जाने की घटना ने लोगों की तकलीफ बढ़ाई है और ऐसा आगे से नहीं किया जाए। कोर्ट ने कहा, ‘यह गंभीर मुद्दा है। यह लोगों की जान का सवाल है।’ रेलवे से कोर्ट ने अपने सभी सर्वे और अब तक कितने घर तोड़े गए इसका पूरा रिकॉर्ड पेश करने को कहा है, साथ ही यह बताने को कहा है कि घर तोड़ने से पहले कोई सर्वे किया गया या नहीं। लिहाजा, दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी तोड़े जाने को लेकर कोर्ट ने रेलवे की कड़ी निंदा की और पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए दिल्ली और केंद्र सरकार की तमाम एजेंसियों को तुरंत काम करने के आदेश दिए।

हो-हल्ला मचने और अदालत के आदेश का फल यह हुआ कि रेलवे की तरफ से उजाड़े गए लोगों को फिलहाल वहां बने रहने की इजाजत मिल गई। लेकिन यह कोई ऐसी समस्या नहीं है जो फौरी राहत-कार्य से सुलझ जाए। झुग्गी-झोपड़ियों की तादाद बढ़ते जाने का मूल कारण विकास की हमारी विसंगति में है। हमने विकास का जो मॉडल अपनाया हुआ है उसमें विभिन्न तबकों के बीच तो गैर-बराबरी बढ़ती ही है, क्षेत्रीय असमानता भी बढ़ती जाती है। इस सब का एक नतीजा गांवों से शहरों की ओर पलायन के रूप में आता है।

शहरों की ओर भागे ये लोग बेहद अमानवीय हालात में जीते हैं। वे ऐसी जगहों में रहते हैं जहां कोई नागरिक सुविधा नहीं होती। पर वे जाएं तो कहां जाएं! झुग्गियां उजाड़े जाने पर राजनीतिक दल भले शोर मचाएं, पर उनके पास न कोई सोच है न कोई योजना। शहरी नियोजन में झुग्गीवासियों के पुनर्वास के बारे में कभी सोचा नहीं जाता, न वैसी नीतियों और वैसे कार्यक्रमों की बात होती है जो शहरों की तरफ ग्रामीणों के पलायन पर विराम लगा सकें।

सरकारों को सजग होना पड़ेगा। गांवों में रोजगार के ज्यादा से ज्यादा साधन उपलब्ध कराने होंगे, जिससे लोग ऐसी बस्तियों में आने को मजबूर न हों। अगर लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहने को मजबूर हैं तो उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और भोजन की जिम्मेदारी सरकारों को तय करनी पड़ेगी। रेलवे किनारे की जमीनों पर झुग्गियां न बनने दी जाएं, जिससे कोई अनहोनी होने से बचा जा सके। इस पर सख्त कदम उठाने की जरूरत है। सरकारों को सिर्फ घोषणापत्र के लिए झुग्गी-झोपड़ी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। बल्कि उन पर ठोस रणनीति बना कर काम करना होगा जिससे ऐसे बस्ती के लोगों का अच्छा जीवनयापन हो सके।

समस्या किसी एक झुग्गी बस्ती को हटाने तक सीमित नहीं है। प्रत्येक महानगर में ऐसी बस्तियां हैं जो प्राय: किसी न किसी विभाग की खाली पड़ी जमीन पर बनी हैं। ऐसे में कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा। वैधानिक स्थिति तथा झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोगों की मानवीय आवश्यकताओं पर सहानभूतिपूर्वक विचार करना होगा। कुछ मामलों में जमीन कई विभागों से संबंधित होती है। ऐसे में शासन के शीर्ष स्तर पर व्यवस्था करनी होगी। कई स्थानों पर केंद्र व राज्य सरकारों के बीच तालमेल की आवश्यकता होती है। अलग-अलग पार्टियों की सरकार में यह कार्य अधिक कठिन होता है।

बहरहाल, इन सब कामों के लिए अल्पकालिक योजना भी बनानी होगी और दीर्घकालीन योजना भी। अल्पकालीन योजना झुग्गियों में रहने वालों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने की होनी चाहिए। साथ ही झुग्गियों के लिए नए अतिक्रमण को सख्ती से रोकना भी होगा। दीर्घकालिक योजना के तहत गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने का प्रयास करना होगा। इसमें जोर-जबर्दस्ती नहीं की जा सकती। पलायन तभी रुकेगा जब ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। ग्रामीणों की आय बढ़ने की गुंजाइश होगी।
खेती की हालत यह है कि वह घाटे का धंधा हो गई है। खुद कृषि मंत्रालय का एक अध्ययन बताता है कि खेती पर आश्रित लोगों में से चालीस फीसद, अगर विकल्प मिले तो, तुरंत खेती छोड़ने को तैयार हैं। फिर हस्तशिल और कुटीर तथा लघु उद्योग भी उजड़ते गए हैं। विभिन्न परियोजनाओं के चलते विस्थापित होने वाले लोग भी झुग्गियों में शरण लेते हैं। लिहाजा, झुग्गियां असंतुलित की विकास की देन हैं। विडंबना यह है कि हम झुग्गियों से तो निजात चाहते हैं, पर प्रचलित विकास नीति को बदलने को तैयार नहीं हैं!