सिंहस्थ बाईस अप्रैल से प्रारंभ हो चुका है। इस बार के सिंहस्थ की तैयारियां मध्यप्रदेश सरकार काफी पहले से कर रही थी। सिंहस्थ के लिए निर्धारित बजट की राशि भी कई गुना बढ़ा कर लगभग पैंतीस सौ करोड़ रुपए स्वीकृत हुई। हालांकि सरकार के प्रबंधकों का यह अनुमान है कि अभी इसमें पंद्रह सौ करोड़ रुपए का इजाफा और हो सकता है। यानी सिंहस्थ सूखा-पीड़ित जनता और राजकोष के ऊपर लगभग पांच हजार करोड़ रुपए खर्च के साथ संपन्न होगा। सिंहस्थ के प्रचार पर भी सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च किए हैं और आम जनता में यह मजाकिया जुमला चल पड़ा है कि सिंहस्थ छोटा हो गया है और मुख्यमंत्री बड़े।

यह भी जानकारी मिली है कि कई अखाड़ों के मुखियों को जहां अभी तक अस्थायी तौर पर केवल सिंहस्थ की अवधि के लिए जमीन का आबंटन होता था, वहीं प्रदेश सरकार ने उन जगहों को स्थायी रूप से आबंटित कर दिया है तथा व्यवस्था के लिए बड़ी राशि दी है। जाहिर है कि अगर ऐसा हुआ है तो इससे अखाड़ा परिषद वालों का खुश होना स्वाभाविक है। बड़े-बड़े नामधारी महंतों के लिए सरकार ने भारी व्यवस्थाएं की हैं और साधु-संत वातानुकूलित विशालकाय तंबुओं में विश्व कल्याण के मार्ग बता रहे हैं। हालांकि सफाई, शौचालय व्यवस्था तथा निर्माण-कार्य की गुणवत्ता को लेकर कुछ साधु-संतों की तरफ से आक्रोश जाहिर करने के समाचार भी आते रहे हैं। इतने बड़े आयोजन में कुछ-कुछ अव्यवस्था का कारण हमारे प्रशासन और सत्ता के कारक भी हैं। कतिपय साधु-संतों का गुस्सा हमलावर शैली में होता है, विशेषकर नागा साधुओं का, जिससे उनके साधु या संत होने पर ही प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।

सरकार ने इस सिंहस्थ में पांच करोड़ लोगों के आने का दावा किया था, पर अभी तक की जो सूचनाएं हैं वे लाखों तक ही पहुंची हैं। मीडिया के एक हिस्से में यह भी समाचार देखने को मिले हैं कि भाजपा ने अपने जिला अध्यक्षों और विधायकों व मंत्रियों को निर्देश दिए हैं कि वे अपने-अपने क्षेत्र के कम से कम सौ-सौ परिवार भेजने की कृपा करें। सरकार ने अपने प्रशासनिक अमले के माध्यम से सिंहस्थ में जाने वाले श्रद्वालुओं के लिए मुफ्त बसों की व्यवस्था की है और परिवहन अधिकारियों के माध्यम से इन बसों को उपलब्ध कराया जा रहा है। मगर परिवहन अधिकारी व बसों के मालिक परेशान हैं क्योंकि उनकी बसें श्रद्वालुओं के इंतजार में खाली खड़ी हैं और श्रद्धालु घर से निकलने को तैयार नहीं हैं। दैनिक यात्री बसों के अभाव से जूझ रहे हैं। क्योंकि यात्री बसों का अप्रत्यक्ष अधिग्रहण जैसा हो गया है। सरकार के विज्ञापन, भोजन और भंडारे की सुविधाएं भी अपेक्षित संख्या में श्रद्धालुओं को आकर्षित नहीं कर पा रही हैं, और सरकार के आलोचक तबके का कहना है कि सरकार ने सिंहस्थ को आमदनी का और भाजपा का सिंहस्थ बना दिया।

सिंहस्थ भारत की प्राचीन परंपरा है। इस अवसर पर सैकड़ों वर्षों से बगैर किसी निमंत्रण या सुविधा के अपने पैसे से अपना खाकर लोग पहुंचते थे। पर अब बसें और रेलगाड़ियां मुफ्त होने पर भी श्रद्धालुओं को जुटाना कठिन हो रहा है। बहुत संभव है कि इसका कारण श्रद्धालुओं का असंतोष हो, हो सकता है कुंभ के आयोजन को राजनीतिक पुट दिए जाने और दलीय प्रचार से वे क्षुब्ध हुए हों।

इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी सिंहस्थ की कोई प्राचीन परंपराओं से भिन्न सामाजिक या जनकल्याणकारी लक्ष्य की दिशा नजर नहीं आती। क्षिप्रा नदी को मोक्षदायिनी कहा जाता है, पर क्षिप्रा पूरी सूख चूकी है और नर्मदा के जल से क्षिप्रा को मोक्ष मिला है। जब नर्मदा का जल ही क्षिप्रा को जीवनदान दे रहा है तो क्षिप्रा से कौन-से कल्याण या मोक्ष की उम्मीद करेंगे! नर्मदा किनारों के पास की बड़ी आबादी जब यह जान रही है कि उनकी नर्मदा का ही पानी है, न कि क्षिप्रा का, तो नर्मदा-जल से स्नान करने की अपने घर के पास ही सुविधा उन्हें प्राप्त है। वे वहां क्यों जाएं?

मीडिया से यह भी जानकारी मिली है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री को विस्तार से सिंहस्थ की तैयारियों से अवगत कराया है और प्रधानमंत्री ने उनकी व्यवस्थाओं की तारीफ की है तथा वहां आयोजित होने वाले विचार मंच में भाग लेने की सहमति दी है, विशेषकर उन्होंने उज्जैन शहर की सफाई-व्यवस्था की तारीफ की है। हालांकि वहां के वास्तविक तथ्यों से प्रधानमंत्री कार्यालय पूर्णत: अवगत प्रतीत होता है।

जहां एक तरह से सिंहस्थ का यह एक पहलू है, जिसमें साधु-संत, उनके विचित्र-विचित्र कर्तव्य, उपदेश, स्नान के लिए साफ पानी, तंबू, सफाई की व्यवस्था, यातायात व्यवस्था, भोजन-भंडारे की व्यवस्था आदि शामिल हैं, वहीं इस सिंहस्थ का दूसरा पहलू भी है जो बिल्कुल अचर्चित और उपेक्षित है। सिंहस्थ में व्यवस्था के लिए समूचे प्रदेश से हजारों की संख्या में पुलिसकर्मी, होमगार्ड भेजे गए, पर उनकी स्थिति क्या है? सत्तर-अस्सी पुलिसकर्मियों या होमगार्ड के जवानों को एक टेंट लगाया गया है जिसमें मात्र तीन पंखे हैं। उन्हें औसतन सोलह-अठारह घंटे काम करना होता है।

पुलिस की नौकरी में ‘ना’ की कोई गुंजाइश नहीं होती है, अत: करना लाचारी है। शासन ने इनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की है। जो दो-चार घंटे सोने का समय मिलता है उसमें वे चालीस डिग्री तापमान में पसीना बहाते आधी बेहोशी जैसी हालत में पडेÞ रहते हैं। इनको मच्छरों से भी राहत दिलाने का कोई प्रबंध नहीं है। अधिकारियों से जवानों ने अनुरोध किया तो अधिकारियों ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया और कहा ‘जो शासन ने हमें दिया है वह हम आपको दे रहे हैं।’

सिंहस्थ के आयोजन में लगे पुलिस, राजस्व, निगम और सफाई महकमों के कर्मचारी, जिनकी संख्या एक लाख के आसपास है, बंधुआ मजदूरों जैसी स्थिति में काम कर रहे हैं। उन्हें ओवरटाइम देने का या भविष्य में छुट्टियां या पैसा देने का निर्णय सरकार ने नहीं किया। सिंहस्थ हो जाएगा, श्रद्धालु पुण्य कमा कर चले जाएंगे, साधु-संत अपना धार्मिक दायित्व पूरा कर लेंगे। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रभारी मंत्री विभिन्न महकमों के अफसर साहबान की तारीफ करेंगे, पर इन गरीब कर्मचारियों को न पैसा मिलना है न पदोन्नति मिलनी न प्रतिष्ठा मिलनी है। और चंूकि वे ड्यूटी से बंधे होने के कारण शाही स्नान नहीं कर सकेंगे अत: पुण्य के भागीदार भी नहीं हो पाएंगे। अच्छा होता अगर प्रधानमंत्रीजी मुख्यमंत्री से इन कर्मचारियों की पीड़ा की भी कुछ चर्चा करते।

मैं प्रधानमंत्रीजी को राम और भरत मिलाप, (जो राम के वनवास के बाद हुआ) के समय हुए वार्तालाप का स्मरण कराना चाहूंगा। राम ने भरत से माता-पिता व प्रजा के बारे में तो पूछा ही, साथ ही यह भी पूछा कि राज्य के कर्मचारी संतुष्ट हैं कि नहीं। यानी सुशासन की परिकल्पना में कर्मचारियों की सुविधा और सुख भी शामिल है। अच्छा होता कि इस सिंहस्थ को इस काल में दुनिया के सबसे बड़े संकट ‘जल संकट’ पर केंद्रित किया जाता और मानवता को इस संकट से कैसे निजात मिले तथा इसमें सरकार, समाज, संसद और धर्म की क्या भूमिका हो इस पर कोई ठोस चर्चा होती और संकल्पित निर्णय होते; वरना सिंहस्थ केवल एक मेला जैसा बन कर रह जाएगा।

पांच मई की शाम को आई तेज आंधी और बारिश से सिंहस्थ की व्यवस्थाओं को भारी क्षति हुई। एक साधु समेत सात लोगों की मौत हो गई और करीब अस्सी लोग घायल हो गए। आंधी के चलते मेला क्षेत्र में लगाए गए कई पंडाल गिर गए। आंधी-पानी ने मेला क्षेत्र में सरकार के सारे इंतजाम चौपट कर दिए। अधिकांश पंडाल जो खेतों में लगाए गए थे, कीचड़ से सन गए। मैं जानता हूं कि यह प्राकृतिक विपत्ति है और इसके लिए राजनीतिक दोषारोपण उचित नहीं है। मैं मृतकों को अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करता हूं और राजनैतिक व सत्ताधारी नेताओं से अनुरोध करता हूं कि प्रशासनिक तंत्र को व्यवस्थाओं का पुन: निर्माण करने में लगाएं, न कि उसे दौरे की औपचारिकता में फंसाए। क्योंकि हमारे देश में वीआइपी के फोटो खिंचाऊ दौरे, राहत कम देते हैं, असुविधा ज्यादा पैदा करते हैं।

राज्य सरकार ने पांच मई को हुए हादसे को कैसी संवेदना से लिया, इसका अंदाजा एक कैबिनेट मंत्री के बयान से हो जाता है। एक तरफ प्रभारी मंत्री प्रभावित लोगों का हालचाल ले रहे थे, और दूसरी तरफ उनके एक कैबिनेट सहयोगी संवाददाताओं के सामने फरमा रहे थे कि छोटी-मोटी घटनाएं तो होती रहती हैं। अच्छा हो कि सत्ताधीश सिंहस्थ को श्रद्धालुओं, साधु-संतों व प्रशासन के जिम्मे सौंपे तथा राजधानी से ही समीक्षा करते रहें। हालांकि इस दुर्घटना ने सिंहस्थ की वैज्ञानिकता और हमारी सरकार के आपदा प्रबंधन पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए।

सिंहस्थ जैसे आयोजन या अवसर हमें अहसास कराते हैं कि तीर्थों और नदियों के प्रति इस देश के लोगों में कितनी गहरी आस्था है। लेकिन सवाल है कि यह आस्था तीर्थों व नदियों की दुर्दशा देख कर आहत क्यों नहीं होती? गंगा के प्रति हिंदू समाज की क्या भावना है यह बताने की जरूरत नहीं। पर गंगा के प्रति उनकी गहन आस्था के बावजूद गंगा प्रदूषित की जाती रही। और आज हाल यह है कि गंगा समेत जीवनदायिनी कही जाने वाली हमारी सारी नदियां भयंकर प्रदूषण की चपेट में हैं और इस कारण हमारी सरकारों को बार-बार अदालत की फटकार सुननी पड़ती है। हमारी आस्था में कर्म का बल कब आएगा!