वीरेंद्र कुमार पैन्यूल  

एक हिमालय नीति की जरूरत दशकों से महसूस की जा रही है। पूरे विश्व ने व संयुक्त राष्ट्र ने भी आधिकारिक रूप से यह माना है कि पहाड़ों के विकास की अलग रणनीति और तौर-तरीके होने चाहिए। पूर्व में अंतरराष्ट्रीय पर्वतीय वर्ष भी मनाया गया था। अमेरिका में तो पर्वतीय विकास पर काम करने के लिए अलग से एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान है। इसी क्रम में हिमालय के लिए एक अलग विकास नीति बनाने की मांग दो दशक से उठाई जा रही है। काठमांडू में भी हिमालय के विकास पर अध्ययन करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ‘ईसीमौड’ संस्था लगभग दो दशक से काम कर रही है। देश में ही हिमालय के नाम पर वैज्ञानिक काम करने करने वाली संस्थाओं की कोई कमी नहीं है। पर सब कुछ प्रोजेक्ट मोड और फंड की उपलब्धता तक सीमित रहता है। न सातत्य है और न वे शोध सरकार या जनता के कामों को अब तक प्रभावित करते दिखे हैं।  अब तो जलवायु बदलाव के कुप्रभावों को कम करने के संदर्भ में भी हिमालय नीति की आवश्यकता है। हिमालय के संरक्षण व हिमालयवासियों के संरक्षण के बीच तालमेल बिठाना एक बड़ी चुनौती है।

सभी भारतीय हिमालयी राज्यों में केंद्र के पर्यावरण और वन संबंधी निषेधात्मक कानूनों, अभयारण्यों आदि के कारण पहाड़ों में सड़क, अस्पताल, पेयजल, उद्योग, बिजली, पुनर्वास आदि की विभिन्न योजनाओं को लागू करने में अवरोध आते हैं। इनसे स्थनीय लोगों के विकास व आजीविका के अवसर भी कम होते हैं। राज्य सरकारों की आय व जनहित में काम करने की उनकी क्षमता में कमी आती है। इसीलिए आज पर्वतीय निवासी व राज्य, उन्हें निषेधात्मक नियमों के कारण अवसरों से जो वंचित होना पड़ता है उसके लिए केंद्र से ‘अवसर कीमत’ (मुआवजा व रियायतों) की मांग कर रहे हैं। जंगलों को बचाने के एवज में वे कॉर्बन बोनस व आॅक्सीजन रॉयल्टी की माग कर रहे हैं। और अब तो जल निधि के लिए बोनस ब्लू बोनस की भी मांग होने लगी है।उत्तराखंड भी ग्रीन बोनस, ब्लू बोनस और आॅक्सीजन रॉयल्टी के हजारों करोड़ रु. के बोनस की मांग मुख्यत: पर्यावरण प्रहरी बने रहने के एवज में कर रहा है। यदि ये बोनस मिलें, तो ग्राम सभाओं व वन पंचायतों के पास जाने चाहिए, न कि सरकारी खजाने में।

‘हिमालय नीति’ पर कुछ बरसों से सारे पहाड़ी राज्यों में चर्चा हो रही है। जुलाई 2014 में नई संसद व मोदी सरकार ने भी हिमालय के लिए अलग विकास नीति के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की। मीडिया भी हिमालयी विषयों के प्रति चेतना जगाने में मददगार रहा है। पर राजनीतिक भाषणबाजी की बात छोड़ दें तो उत्तराखंड जैसे राज्य में भी, जिसे आंदोलन के बाद एक पहाड़ी राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश से अलग कर बनाया गया था, पहाड़ों में अपने कर्मचारियों को भेजने में नाकों चने चबाना पड़ता है। पलायन लगातार जारी है। नीति तो है ही कि पहाड़ों के अंतराल तक कर्मचारी पहुंचाएं जाएं। या ऐसे तथाकथित विकास-कार्य न किए जाएं जिससे पहाड़ों में आपदाओं के कुप्रभाव बढ़ें। पर ऐसा होता नहीं है।
हिमालय नीति के लिए हुए अनगिनत जन-संवादों में यह बात भी उभरी है कि विशाल हिमालय को लंबवत व क्षैतिज परिमाप में भी एक ही नीति, एक ही नियोजन और एक ही टेक्नोलॉजी से नहीं संचालित किया जा सकता। कई देशों में फैले हिमालय की बात न भी करें तो भी भारत में ही कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम, पूर्वोत्तर के राज्यों के अपने-अपने अलग-अलग अनुभवों से हमारा सामना हो जाएगा। हिमालय के पूरे विस्तार में अशांत क्षेत्र भी हैं। पूरे हिमालय के अलग-अलग हिस्सों में राजनीतिक, सामरिक, सामाजिक, जनजातीय और सांस्कृतिक मसले भी हैं। इनके प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। चीन यदि तिब्बत तक सड़क बनाता है, रेलगाड़ियां लाता है, भारी तोड़-फोड़ करता है, या भारत की ओर प्राकृतिक रूप से आने वाली नदियों को विपरीत दिशा देता है, तो उससे भारतीय हिमालय पर भी असर पड़ता है।

हर जगह पर्वतीय समुदायों का अनुभव रहा है कि जब-जब अचानक पहाड़ों को विकास की मुख्यधारा में लाने की बात की जाती है तो वह किसी नियोजित नीति के अंतर्गत नहीं होती, बल्कि अक्सर तब की जाती है, या कहें कि पहाड़ों की याद तब आती है जब उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना होता है या राज्यों या राष्ट्रों की अपनी सुरक्षा या औद्योगिक कारणों से उस पहाड़ी क्षेत्र में खास ढंग के निर्माण की अनिवार्यता हो जाती है। उदाहरण के तौर पर, चीन के आक्रमण के बाद, उत्तराखंड के विकास में तेजी देखी। या हाल में जैसा अरुणाचल में या कश्मीर में हो रहा है। हम हिमालय से क्या चाहते हैं, जब तक इसमें स्पष्टता नहीं होगी, तब तक नीति बनाने का काम शायद ही हो सकेगा। हिमालय से क्या चाहते हैं, इसको लेकर भी पहाड़ी राज्यों की जनता व सरकारों में अलग-अलग सोच है। उदाहरण के लिए, अपने-अपने राज्य में अधिकतर सरकारों को बड़ी- बड़ी परियोजनाओं को पहाड़ों में लगाने से कोई परहेज नहीं रहा है, वहीं वहां की आम जनता इन परियोजनाओं को ही हिमालयी क्षेत्र में लगातार बढ़ती प्राकृतिक व मानवीय विपदाओं का प्रमुख कारण मानती है।
हकीकत यह भी है कि हिमालय जो कुछ हद तक एशिया में मौसम का नियंत्रक भी है, खुद जलवायु बदलाव से त्रस्त है। उसके हिमनदों का कम होता जीवन व विस्तार चर्चा में है। बरसात व बर्फबारी का क्रम अनियमित हो गया है। मौसम बदलाव की मार खेती, बागवानी, पशुपालन व पर्यटन पर पड़ी है। इससे यहां के निवासियों के जीवनयापन के साधनों पर असर पड़ा है। अत: हिमालय नीति का एक मुख्य अंग हिमालय में जलवायु बदलाव की आक्रामकता कम करना होना चाहिए।

पहाड़ों में तो प्रकृति पहाड़ी नस्ल के अलग तरह के जानवर, अलग तरह की वनस्पति पैदा करती है। पहाड़ के जलस्रोत, पहाड़ में खेती के लिए आवश्यक मिट्टी की पतली परत, पहाड़ों की भूकम्पीय सक्रियता, सभी कुछ इस आवश्यकता का बोध कराते हैं कि विकास के तरीकों का जरा भी गलत चुनाव विनाश की फिसलनों की ओर ले जाने के लिए काफी है। इसी क्रम में पहाड़ों में जो पारंपरिक बीजों से खाद्य फसलें होती थीं, या जंगलों में लोगों के लिए जो फूल, सब्जियां, कंद खाने में शामिल थे, उन पर आए व आने वाले संकटों को कैसे कम किया जा सकता है इस पर नीति बनाना व कार्य करना भी हिमालय नीति का अंग होना चाहिए। अंतत: हिमालय नीति का मुख्य मुद्दा तो हिमालय के साथ चाहे बाहर वाले हों या भीतर वाले, उनकी व्यवहार संहिता तय करने का है। हिमालय के साथ एक पर्वतारोही, एक पर्यटक, एक उद्यमी, एक किसान, एक नगर नियोजक, एक इंजीनियर, एक आम आदमी के तौर पर हमारा व्यवहार क्या होगा और उसे कैसे मर्यादित किया जाएगा, जिससे हिमालय भी रहे व हिमालय वाले भी रहें, इसके लिए नीति बनानी होगी।उत्तराखंड में एक लोकोक्ति रही है- पहाड़ का वासु, कुल कू नाशू। इसका अर्थ है कि पहाड़ में रह कर परिवार का आगे बढ़ना नहीं हो सकता है। यदि आगे बढ़ना है, तो पहाड़ छोड़ना ही होगा। विडंबना है कि आज भी अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों की सच्चाई यही है। अत: हिमालय नीति की एक कसौटी यह भी होनी चाहिए कि कितने लोग स्वेच्छा से पहाड़ों में ही रह कर अपने विकास व अपनी स्थितियों से संतुष्ट हैं।