विज्ञान और वैज्ञानिक सोच समझ के चलते दुनिया भर में यह यकीन लौट रहा है कि कोरोनाविषाणु पर जल्दी जीत मिलेगी। पहली बार दुनिया का कोई देश इस महामारी से अछूता नहीं रहा और यह भी पहली बार हो रहा है कि लोगों की आस्था चर्च, मंदिर, मस्जिद या दुनिया भर के धर्म द्वीपों से हट कर विज्ञान और उसकी प्रयोगशालाओं की तरफ लौटी है। इसका तुरंत असर शिक्षा व्यवस्था और विशेषकर विज्ञान की शिक्षा पर पढ़ना लाजिमी है। निश्चित रूप से आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाओं में भी बदलाव आएगा, लेकिन इन सब बदलावों की बुनियाद में रहेगी शिक्षा और उसका चरित्र। इसी शिक्षा के बूते नौजवान पीढ़ी को रोजगार मिलेगा और उसी के बूते देश का विकास। मनुष्य के इतिहास ने इसे बार-बार सिद्ध किया है।

यूरोप के पुनर्जागरण को याद करें। लगभग पांच सौ वर्ष पहले इसी वैज्ञानिक सोच तर्कशक्ति का अंजाम था भौतिकी, रसायन से लेकर डार्विन के विकासवाद तक के सिद्धांत। पोप और उनके धर्मावलंबियों को चर्च तक सीमित कर दिया गया था और कोलंबस, वास्को डि गामा, कप्तान कुक विज्ञान के रथ पर बैठ कर निकल पड़े थे दुनिया को जीतने के लिए। भारत की खोज भी यूरोपियों के लिए उसी अभियान का हिस्सा थी और वैसे ही अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया के द्वीपों की। लेकिन विज्ञान सफल तो तभी होगा, जब आपके स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली पीढ़ी उसे समझेगी और आगे बढ़ाएगी।

कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड और दूसरे विश्वविद्यालय इन्हीं खोजों, शोध और सिद्धांत के लिए दुनियाभर में मशहूर हुए। जिसे कुछ उपनिवेशवाद कहते हैं, वह उन देशों के लिए नए रोजगार नए साम्राज्य की तलाश थी। भारत, चीन जैसे देशों की सभ्यता हजारों साल पुरानी जरूर थी, लेकिन वे विज्ञान के आगे कहीं नहीं टिक पाए। उन्हें गुलाम होना पड़ा और इस गुलामी से मुक्ति मिली दूसरे विश्व युद्ध के बाद। पहले और दूसरे विश्व युद्ध ने भी विज्ञान की पताका ही फहराई। बड़े-बड़े रासायनिक उद्योग, आॅटोमोबाइल उद्योग, हवाई जहाज, परमाणु बम से लेकर पेनिसिलिन और दूसरी दवाएं। यानी जितनी बड़ी घटना होगी, होमो सेपियंस की जिजीविषा बताती है, उतने ही बड़े बदलाव होंगे।

कोरोनाविषाणु की महामारी को तो मनुष्य जाति के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी परिघटना माना जा रहा है। भारत में पूर्णबंदी और दूसरे कदम तुरंत उठाते हुए अभी तक अद्वितीय सूझबूझ का परिचय दिया है। अंजाम भी सामने है। दुनिया की बाईस फीसद आबादी वाले देश में महामारी का प्रकोप दो फीसद से भी कम है। लेकिन यही वक्त है उत्तर कोरोना काल के लिए तुरंत तैयार रहने का। इसमें जो जीता वाही सिकंदर! दुनिया भर के वैज्ञानिक अभी भी ऐसी संभावनाओं से घिरे हुए हैं कि जब तक इस विषाणु की कोई मुकम्मल काट नहीं खोज ली जाती और दुनिया भर में यदि एक भी व्यक्ति उससे संक्रमित रहता है, तो इसकी वापसी फिर वैसा ही कहर ढहा सकती है। हम सबने देश के लाखों मजदूरों को हाल में सड़कों पर रोते बिलखते देखा है और यह तबका ऐसे ही निर्वासन में आधा पेट काटने को मजबूर है। पूरी व्यवस्था के लिए शर्मनाक है। पर अच्छी बात यह है कि देश के डॉक्टर, नर्स और पुलिस कर्मी जान की परवाह न करते हुए इस महामारी के मुकाबले के लिए अग्रिम मोर्चे पर तैनात हैं।

लेकिन भविष्य तो शिक्षा में बुनियादी बदलाव से ही संभव है। शिक्षा के बुनियादी बदलाव में विज्ञान की वैसे ही वापसी करनी होगी जैसे 1957 में शीत युद्ध के दौर में रूस के अंतरिक्ष विज्ञान में आगे बढ़ने की भनक ने अमेरिका की विज्ञान नीति को सदा के लिए बदल डाला था। या पिछले दो दशक में चीन ने विज्ञान और तकनीकी के बूते युद्ध, शोध, शिक्षा, रोजगार और यहां तक कि राजनय संस्कृति तक के समीकरण बदल दिए हैं। कोरोनाविषाणु चीन से शुरू जरूर हुआ है, लेकिन विज्ञान के बूते ही चीन पर उतना असर नहीं हुआ जितना सारी दुनिया पर। यहां तक कि उत्तर कोरोना काल में चीन अपने विज्ञान और शिक्षा के बूते और बेहतर ढंग से दुनिया पर कब्जे की तरफ अग्रसर है।

पुरानी कहावत का सहारा लें तो लोहा ही लोहे को काट सकता है, यानी इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और तकनीकी की चुनौतियों को विज्ञान और तकनीकी से ही परास्त करने की जरूरत है, न कि धर्म के काढ़े से। यह अटकलबाजी जरूर चल रही है कि दुनियाभर की बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन का विकल्प भारत में खोज रही हैं। पर यह हकीकत से दूर की कौड़ी है। क्या हमारे पास ज्ञान-विज्ञान में चीन की टक्कर की पढ़ी-लिखी पीढ़ी है? हम भले ही दुनिया की सबसे नौजवान आबादी पर फक्र करते रहें, उस आबादी के बारे में हाल में एक प्रसिद्ध वैश्विक एजेंसी ने दावा किया है कि उसके पास दर्ज स्नातकों में से साठ फीसद किसी काम के नहीं हैं। उनके पास न तकनीकी कौशल है, न दूसरे सामान्य ज्ञान की समझ। सिर्फ डिग्री बांट कर हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए श्रम सस्ता जरूर है, लेकिन गुणवत्ता यदि नहीं मिली तो वे फिर चीन की तरफ ही लौटेंगे।

मौजूदा वक्त को चौथी क्रांति कहा जाता है यानी इंटरनेट और दूसरे माध्यमों से ज्ञान की असीमित उपलब्धता। पहली तीन क्रांतियों में भारत कई कारणों से फिसड्डी साबित हुआ है। लेकिन मौजूदा कोरोना ने पढ़े-लिखे लोगों से लेकर गांव-देहात तक प्लाज्मा, न्यूमोनिया, बैक्टीरिया, वैक्सीन, एंटीबॉडीज, मास्क, आरोग्य सेतु जैसे वैज्ञानिक शब्दों को पहुंचा दिया है। यानी विज्ञान की बुनियादी बातें जैसे- साफ-सफाई, बीमारियों के कारण, शारीरिक दूरी, स्वावलंबन आदि रोजाना मीडिया के जरिए जन-जन तक पहुंच रही हैं। इन सब बातों को तुरंत पाठ्यक्रम और दूसरे मंचों के जरिए नई पीढ़ी के दिमाग में एक सहज तर्क से डालने की जरूरत है। मौजूदा पाठ्यक्रम रटने से शिक्षा का सड़ा हुआ चौखटा नहीं टूटने वाला। आॅनलाइन शिक्षा में भी इससे बचना होगा और इसके लिए शिक्षकों के दिमाग और समाज को भी बदलने की जरूरत है।

अफसोस की बात है कि हम आजादी के बाद वैज्ञानिक चेतना के नारे तो दीवारों पर लिखते रहे हैं, लेकिन समाज में वैज्ञानिक चेतना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। वहां पथरी, पीलिया, कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज से लेकर सामान्य बुखार और दस्त के इलाज भी झाड़-फूंक से होते रहते हैं। शर्तिया लड़का होने की दवा धड़ल्ले से बिकती है। पुराने ज्ञान आयुर्वेदिक प्रणाली आदि को नए वैज्ञानिक ढंग से दुनिया भर के सामने आजमाने और प्रस्तुत करने की जरूरत है और साथ ही नई वैज्ञानिक खोजों को भी तुरंत आत्मसात करने की। रोजगार भी उन्हीं को मिलेगा जो ऐसी वैज्ञानिक शिक्षा से सुसज्जित हों।

अब विज्ञान पढ़ाने का पूरा ढंग बदलना होगा। आजादी के पहले भी विज्ञान और शोध की स्थिति ब्रिटिश दौर में कहीं बेहतर थी। सीवी रमन, प्रफुल्ल चंद्र रे, जगदीश चंद्र बसु, मेघनाथ साहा, सत्येंद्रनाथ बोस की गिनती दुनिया के वैज्ञानिकों में तब भी होती थी और आज भी। आजादी के बाद हर बीते दशक में विज्ञान और शोध में हम पिछड़े हैं। जो भी कुछ मूल शोध हो पाया है, वह तभी जब इस देश के मेधावी वैज्ञानिक दूसरे देशों में बस गए हैं। इसीलिए कुछ दिनों पहले 2009 के नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकट रामकृष्णन ने भारत में वैज्ञानिक शोध की स्थितियों को मजाक उड़ाते हुए इसे सर्कस का नाम दिया था। हकीकत यही है कि ज्ञान-विज्ञान के जरिए ही न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया संकटों से मिक्त पा सकती है। जो राष्ट्र समाज इसे जितना जल्दी समझेंगे, उत्तर कोरना काल में जीत उन्हीं की होगी।