देश तरक्की कर रहा है। हर सत्तारूढ़ पार्टी का यह दावा होता है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरु यहां तक कि विशाखापट्टनम, पटना, रांची जैसे छोटे शहरों में देखें तो विकास की यह चमक नजर आती है। चौड़ी सड़कें, उपभोक्ता सामान से पटे बाजार, जगमगाते मॉल, नई तर्ज के सिनमाघर, कीमती चमकती गाड़ियां, किसिम-किसिम के खाद्य पदार्थ परोसते होटल, महंगे पांचसितारा होटलों जैसे अस्पताल, अंगरेजी माध्यम के नफीस निजी स्कूल। कोई भी इस भ्रम का शिकार हो जाए कि देश तरक्की कर रहा है। मगर महानगरों, देश के अन्य मंझोले शहरों की परिधि से निकलते ही यह भ्रम दूध की तरह फट जाएगा।

ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, दो-चार-दस किलोमीटर के दायरे में ही वह गरीब देश दिख जाएगा, जिसके बदन पर कपड़ा नहीं, सर पर छत और दो वक्त का निवाला नहीं। यों यह गरीब भारत हम महानगरों में भी देख सकते हैं- शहर के हाशिये पर पसरी झोपड़-पट्टी में, नहीं तो शहर के बाहर किसी भी दिशा में निकल जाइए, दो-चार किमी के बाद हम देश के असली हालात देख सकेंगे। किसी पुलिया के नीचे बसे, बड़े मुंह वाले सीमेंट पाइपों से झांकते, किसी पॉश बाजार में भीख मांगते बच्चों के रूप में। लेकिन उस वक्त भी हमारे जेहन में यह सवाल नहीं उठता कि ऐसा क्यों है?

आजादी के बाद लगातार पंचवर्षीय योजनाएं बनीं और चलीं। सार्वजनिक क्षेत्र में ढेर उद्योग लगे। इंदिरा गांधी ने सत्ता में आने के बाद गरीबी हटाओ का नारा दिया। बैंक और कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ। आदिवासी, दलित जनता के विकास के लिए अनेक योजनाएं चलीं। ग्रामीण इलाकों के विकास पर पानी की तरह पैसा बहाया गया। बावजूद इसके हालात क्यों नहीं बदल रहे? आज ग्रामीण भारत की तस्वीर कैसी है, इसका खुलासा अभी-अभी आए सामाजिक-आर्थिक जाति गणना के खुलासों से होता है।

करीब 25.7 फीसद ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। यानी जिनकी आमदनी प्रतिमाह 816 रुपए से कम है। तीस फीसद ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। दिहाड़ी पर खट कर अपना और अपने परिवार का पेट पालती है। जो गरीबी रेखा के ऊपर हैं, उनकी हालत भी बहुत अच्छी नहीं। महज दस फीसद ग्रामीण आयकर देने की हैसियत में हैं। वित्तमंत्री की चिंता है कि महज 4.6 फीसद ग्रामीण परिवार आयकर देते हैं, शेष से आयकर कैसे वसूला जाए। हमारी चिंता यह है कि आजादी के सड़सठ वर्षों बाद भी दस फीसद ग्रामीण ही क्यों आयकर की श्रेणी में पहुंच पाए!

इस बीच एक दूसरा आंकड़ा भी आया है, जो गरीबी के कारणों का खुलासा करने के अलावा देश की विकास नीतियों पर सवालिया निशान लगाता है। यह आकड़ा ग्लोबल वेल्थ डाटाबुक का है। अपने देश में इस तरह के सर्वेक्षण होने से रहे, इसलिए हमारे पास इन पर भरोसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं। डाटाबुक के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल चल-अचल संपत्ति के उनचास फीसद पर एक फीसद भारतीयों का कब्जा है और चौहत्तर फीसद परिसंपत्ति पर दस फीसद लोगों का। यही आंकड़ा यह भी जानकारी देता है कि दुनिया के कुल गरीबों का बीस फीसद भारत में है, यानी दुनिया का हर चौथा गरीब भारतीय है।

चीन से हमारी बड़ी प्रतिस्पर्धा रहती है और बताया जाता है कि चीन के बाद दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्था भारत है, लेकिन चीन में दुनिया के कुल गरीबों का महज तीन फीसद आबादी रहती है। अमीर बनने की यह रफ्तार या यों कहें कि गरीबी-अमीरी की यह खाई पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी है। ग्लोबल डाटाबुक के आंकड़ों के अनुसार सन 2000 में एक फीसद अमीर भारतीयों के पास सैंतीस फीसद संपत्ति थी और दस फीसद भारतीय देश की छियासठ फीसद व्यक्तिगत संपत्ति के मालिक थे। भारतीयों के अमीर बनने की यह रफ्तार जारी रही, तो आने वाले कुछ वर्षों में अमीरों के पास संपत्ति का और ज्यादा केंद्रीकरण और गरीबों की संख्या में और इजाफा होगा।

सवाल है कि ऐसा क्यों है? इसका जवाब हमें ऊपर के आंकड़ों से मिल सकता है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि भारत एक विशाल घनी आबादी वाला देश है। हमारे पास प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं, लेकिन जमीन का रकबा रूस, चीन या अमेरिका जैसा विशाल नहीं है। इसलिए अगर जमीन और अन्य संसाधनों का समुचित उपयोग और पैदा होने वाली संपत्ति का समुचित वितरण नहीं होगा तो विषमता की यह खाई बढ़ेगी ही।

सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों के अनुसार निजी और सरकारी क्षेत्र में रोजगार अधिकतम बारह से पंद्रह फीसद लोगों को मिल सकता है। शेष लोगों को जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ उद्यम और व्यक्तिगत प्रयास करने होंगे। लेकिन व्यक्तिगत उद्यम के लिए भी संसाधन तो होना चाहिए। मसलन, आज भी जमीन का बड़ा हिस्सा मुट््ठी भर बड़े किसानों-सामंतों के कब्जे में है। करीब तीस फीसद ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। जिनके पास एकाध एकड़ जमीन है भी, वे सिंचाई के अभाव में खेती छोड़ कर दिहाड़ी मजूर बन गए हैं।

और जमीन के नीचे का माल? वह तो सरकार का है, जिसे वह कौड़ियों के मोल कॉरपोरेट जगत को बेच रही है। महज छब्बीस रुपए प्रति टन राजस्व के बदले लौह अयस्क बिक रहा है, जबकि एक टन लोहे की कीमत आठ से दस हजार रुपए है। इसलिए झारखंड के नोवामुंडी और गुवा क्षेत्र से लौह अयस्क उठाने वाली कंपनी या उनकी दलाली करने वाले तो मालामाल हो जाते हैं, पर वहां का आदिवासी हमेशा की तरह गरीब।

विडंबना यह भी कि हमारे यहां मानव-श्रम की कीमत बेहद कम है। दुनिया भर में सबसे सस्ता मानव-श्रम भारत में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस पर कोई झेंप नहीं। जिन देशों में भी गए, वहां उन्होंने गर्व से बताया कि हमारे यहां सस्ता श्रम है, आइए और उसका जम कर दोहन कीजिए। हम सभी श्रम कानूनों को हटा रहे हैं। आइए, जरा देखें श्रम की कीमत क्या है उन देशों में, जहां मोदी यह प्रचार कर आए हैं।

अमेरिका में वार्षिक न्यूनतम वेतन 15,080 डॉलर, आस्ट्रेलिया में प्रति वर्ष 32,835 डॉलर, चीन में 2,516 डॉलर, जापान में 14,428 डॉलर, इजराइल में 15,485 डॉलर, यहां तक की अपने अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में 1,535 और भूटान में 768 डॉलर प्रति वर्ष न्यूनतम वेतन है, जबकि भारत में सिर्फ 628 डॉलर प्रति वर्ष। अगर प्रति घंटे के हिसाब से मजूरी को कूतें तो अमेरिका में 7.25 डॉलर, अस्ट्रेलिया में 16.62 डॉलर, चीन में 1.21 डॉलर, जापान में 6.93 डॉलर, इजराइल में 6.93 डॉलर, पाकिस्तान में 0.61 डॉलर, भूटान में 0.37 डॉलर प्रति घंटे की मजूरी है, वहीं भारत में 0.25 डॉलर प्रति घंटे की मजूरी है।

इस न्यूनतम वेतन के लिए भी हमेशा जद्दोजहद होती रही है। सरकार कड़ाई से उसे लागू नहीं कर पाती। सामंती शोषण से जकड़े ग्रामीण इलाकों में तो कभी न्यनतम मजूरी लागू ही नहीं हो सकी और सरकार इस मुद्दे पर खामोश रही, क्योंकि वह बड़े किसानों के हित की पोषक रही है। इसलिए अगर संगठित क्षेत्र में छठे और सातवें वेतन आयोगों द्वारा न्यूनतम मजूरी प्रतिदिन डेढ़ से दो हजार रुपए कूती जाती है, वहीं नरेगा में आठ घंटे हाड़तोड़ श्रम की कीमत 220 रुपए लगाई गई है। जिस देश में बड़ी आबादी 816 रुपए प्रति माह से कम पर जीती है, उसके विधायक और सांसद का सवा लाख रुपए प्रतिमाह के वेतन-भत्ते से भी पेट नहीं भरता। विषमता तो हमारी व्यवस्था में बद्धमूल है।

कुछ बुद्धिजीवियों की समझ है कि खुली अर्थव्यवस्था में मजदूर को भी यह अवसर रहता है कि वह अपनी शर्तों पर अपना श्रम बेचे। बिहार में मजूरी कम है, तो वह केरल जाकर मजूरी करे। ऐसा हो भी रहा है। बिहार-झारखंड से दक्षिण भारत जाने वाली एक ट्रेन है एलेप्पी, जो धनबाद से चलती है और इससे बड़ी संख्या में मजूर दक्षिण भारत के शहरों में जाते हैं। इसके अलावा हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों का रुख करते हैं। लेकिन बहुधा वे ठगी के शिकार हो जाते हैं और किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा से महरूम।

असली समस्या है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था टूट रही है। नई तकनीक और मशीनीकरण से जीवन आसान तो हुआ, लेकिन बेरोजगारी बढ़ी और लोग दिहाड़ी मजदूर में बदल गए। दिहाड़ी पर खटने वाले इतनी बड़ी संख्या में बाजार में मौजूद हैं कि वे मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते। इसलिए वे कम से कम कीमत पर खटने के लिए तैयार हो जाते हैं। परिणाम यह कि अमेरिका में रहने वाला मध्यवर्ग अब घरेलू सेवक, खानसामा, ड्राइवर आदि नहीं रख सकता, लेकिन अपने देश में संगठित क्षेत्र में काम करने वाला परिवार इस तरह की ऐयाशी कर सकता है।

हमारे समाज के प्रभुवर्ग ने कभी इन विरोधाभासों पर गौर नहीं किया न इसके समाधान का रास्ता निकालने की कोशिश की। इसकी जगह गरीबों को सस्ता राशन, लाल-पीला कार्ड, सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल, वृद्धा पेंशन, स्कूल में दिन का भोजन आदि मुहैया कराने की रणनीति बनाई। यानी, सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में श्रम और संसाधन के लूट की संस्कृति बनी रहे और स्थिति विस्फोटक न हो, इसलिए शोषण और विषमता पर आधारित व्यवस्था के समांतर राहत कार्य भी चलते रहें। लेकिन इससे गरीबी और विषमता से निजात मिलना मुश्किल है। हालात बेकाबू होते जा रहे हैं और खतरा यह है कि ये हालात हमारी लोकतांत्रित व्यवस्था के परचखे न उड़ा दें।

विनोद कुमार

 

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