नरेश दधीच
किसी भी परिवर्तनकारी खोज के पीछे अनुसंधानों का एक लंबा इतिहास होता है। न्यूटन ने कहा भी है, ‘चूंकि मैं महाकाय कंधों पर खड़ा था, इसलिए औरों से दूर तक देख सका।’ हर वैज्ञानिक किसी न किसी के कंधे पर खड़ा होता है। इसका ताजा उदाहरण हैं ब्रिटिश भौतिकविद रॉजर पेनरोज, जिन्हें इस साल का नोबेल पुरस्कार इस खोज के लिए मिला है कि आइंस्टीन के गुरुत्वाकर्षण के नियम- जनरल रिलेटिविटी के अनुसार ब्लैक होल का बनना अटल और वांछित है।
इस नियम की अनूठी और अद्भुत बात यह है कि गुरुत्व बल अंतरिक्ष-समय की वक्रता में प्रकट होता है। इस खोज की पृष्ठभूमि में भारतीय वैज्ञानिक भी शामिल थे।
ब्लैक होल से भारत का रिश्ता पुराना है। नवाब सिराजुद्दौला ने 1756 में एक सौ छियालीस ब्रिटिश सैनिकों को बहुत संकरी अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया था। उनमें से सुबह तक केवल बयालीस लोग जिंदा बच पाए थे। इस भयंकर घटना को इतिहास में कोलकाता ‘ब्लैक होल’ नाम दिया गया। दरअसल, ब्लैक होल की धारणा से बहुत छोटे आकार में प्रचंड द्रव्य का समाना और असीम घनत्व का सीधा नाता है।
अजीब बात यह है कि विज्ञान में भी इसी तरह की संभावना की अटकल लगाई गई। ब्रिटिश पादरी वैज्ञानिक जॉन मिशेल ने 1784 और उसके दो साल बाद फें्रच गणितज्ञ पियारा साइमन लाप्लास ने ऐसी कल्पना की। अगर किसी वस्तु का द्रव्यमान इतना अधिक हो कि उसके गुरुत्वाकर्षण से प्रकाश भी बाहर न निकल सके, तो ऐसी वस्तु काली होगी। यह ब्लैक होल की सबसे पहली संकल्पना थी।
आधुनिक कहानी शुरू होती है 1930 में, जब चंद्रशेखर सुब्रमण्यम मद्रास से बीएससी करके उच्च शिक्षा के लिए कैंब्रिज जहाज से ब्रिटेन जा रहे थे। उन्होंने आइंस्टीन की रिलेटिविटी और क्वांटम मैकेनिक्स का उपयोग करके कुछ गणितीय समीकरण हल किए। तब तक ऐसी समझ थी कि प्रचंड संहति का महाकाय तारा आणविक इंधन खत्म होने पर सिकुड़ कर सफेद बौना बन जाएगा।
यही उसका आखिरी पड़ाव होगा। उसकी स्थिर स्थिति का कारण इलेक्ट्रॉन दबाव है, जो गुरुत्वाकर्षण को रोकता है। 1932 में चंद्रशेखर ने सिद्ध किया कि अगर तारे का संहति द्रव्यमान 1.4 सूर्य की संहति से अधिक हो, तो इलेक्ट्रॉन दबाव गुरुत्वाकर्षण के बल को रोक नहीं पाएगा। यह खोज ‘चंद्रशेखर संहति सीमा’ के नाम से जानी जाती है।
इससे अधिक संहति होने पर तारे के अंदर का द्रव्य लगभग न्यूट्रॉन में परिवर्तित हो जाता है और न्यूट्रॉन तारा बन जाता है। उसकी सघनता अपरिमित होती है, उसका चम्मच भर संपूर्ण मानवजाति के वजन के बराबर होगा। आधे शतक बाद 1983 में उसी खोज के लिए चंद्रशेखर को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।
न्यूट्रॉन भी गुरुत्वाकर्षण को रोकने के लिए इलेक्ट्रॉन की भांति ही दबाव पैदा करता है। अगर संहति सूर्य से तीन गुना अधिक हो तो न्यूट्रॉन दबाव भी नहीं टिक पाएगा और तारा अपने ही गुरुत्वाकर्षण से निरंतर धंसता जाएगा। तब शून्य आकार और अनंत सीमित घनता की स्थिति होगी, जो गुरुत्व नियम की सीमा इंगित करती है- अनसुलझी पहेली- सिंगुलरिटी विकृति है।
1938 में कलकत्ता के बिश्वेश्वर दत्त ने सर्वप्रथम आइंस्टीन के नियम के अनुसार सिद्ध किया कि दबाव रहित धूल कणों का समूह अपने गुरुत्वाकर्षण पतन से संकुचित होता जाएगा और आखिर में शून्य आकारमान- अनंत घनता- की स्थिति बन जाएगी। यह स्थिति सिंगुलरिटी विकृति- है, जहां अंतरिक्ष समय की वक्रता भी अपरिमित अनंत हो जाती है।
अमेरिका के परमाणु बम के जनक रॉबर्ट ओपेनहाइमर और डेविड श्नाइडर ने दत्त से एक साल बाद वही निष्कर्ष निकाला और यह ओपेनहाइमर-श्नाइडर पतन के नाम से जाना जाता है। गुरुत्वाकर्षण पतन के शोध के तुरंत बाद दुर्भग्य से दत्त गुजर गए। उस वक्त दूसरा महायुद्ध चल रहा था। भारत से कोई खबर आसानी से बाहर नहीं पहुंच पाती थी।
इसलिए दत्त के शोध के बारे में लोगों को जानकारी नहीं मिल पाई। मगर 1999 में जब जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेसन जर्नल ने अपने ‘स्वर्ण बुजुर्ग’ माला में दत्त के शोध निबंध का पुन:प्रकाशन किया तब लोगों को मालूम हुआ कि वह गुरुत्व पतन का आकलन करने वाले पहले व्यक्ति थे। अब यही उचित होगा कि इसका नाम दत्त-ओपेनहाइमर-श्नाइडर कर दिया जाए।
इसके बाद अमल कुमार रायचौधुरी जब आशुतोष कॉलेज में प्राध्यापक थे, एक महत्त्वपूर्ण समीकरण की खोज की। एक वस्तु समूह आइंस्टीन के नियम के अनुसार कैसे विकसित-केंद्रित या विकेंद्रित होती है। यह समीकरण विश्व की गति और उसकी विकास प्रक्रिया का नियोजन करती है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि गुरुत्व-पतन का अंत हमेशा अंतरिक्ष-समय विकृति (सिंगुलरिटी) में होगा। यह सब बिना किसी शर्त के होता है।
छठे दशक के मध्य में कैंब्रिज में स्टीफन हॉकिंग और रॉजर पेनरोज ने रायचौधुरी समीकरण और ग्लोबल एनालिसिस गणतीय तकनीक का उपयोग करके कई शक्तिशाली और मूलगामी प्रमेय थ्योरम प्रस्थापित किए, जिनका निहितार्थ था, अंतरिक्ष-समय विकृति जनरल रिलेटिविटी का निहित गुणधर्म है।
अंतरिक्ष-समय विकृति तक पहुंचने के पहले ऐसी स्थिति आती है, जहां अंतरिक्ष की वक्रता इतनी अधिक होती है कि प्रकाश भी बाहर नहीं निकल सकता। यही ब्लैक होल है, जो विशुद्ध ज्यामितीय वस्तु है। इसलिए यह मिसेल-लाप्लास के ब्लैक होल से भिन्न और उससे बहुत आगे की बात है। इसलिए ब्लैक होल का बनना जनरल रिलेटिविटी में तय है।
इसी भविष्यवाणी के लिए पेनरोज को नोबेल पुरष्कार दिया गया है। जहां से प्रकाश न निकल सके, वहां से कोई संदेश भी नहीं आ सकता है। ब्लैक होल के अंदर क्या होता है, इसका पता हमें सिद्धांतत: नहीं लग सकता। घटना-क्षितिज (इवेंट होराइजन) पैदा हो जाता है। इसीलिए यह अद्भुत और अजीबोगरीब चीज है।
अगर रायचौधुरी को प्रगत गणित का साथ मिला होता तो संभव है, वे पेनरोज-हाकिंग के प्रमेय और शायद ब्लैक होल खोज पाते! पेनरोज ने और बहुत से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण शोध किए हैं। विश्व की उत्पति, महाविस्फोट के पहले और बाद की स्थिति के संक्रमण से लेकर विज्ञान, दर्शन और मानवीय सवेंदना तक!
1967 में फ्रेड होएल और जयंत नार्लीकर ने सवाल किया था कि एक महाकाय गैस बादल के केंद्र में कितनी संहति का तारा होना चाहिए, जो उसके विस्तार को काबू कर एक आकाशगंगा जैसी व्यवस्था बना सके? उत्तर आया- सौ करोड़ सूर्य संहिति। इसके आधार पर उन्होंने घोषित किया कि आकाशगंगा के केंद्र में प्रचंड संहति का तारा होना चाहिए।
तब तक ब्लैक होल का नामकरण नहीं हुआ था, जिसे एक साल बाद जॉन वीलर ने न्यूयार्क की एक कांफ्रेंस में एक प्रश्न के उत्तर में किया। पेनरोज के साथ जिन दो खगोलविदों को नोबेल दिया गया है, वे हैं आंड्रिया गेज और राईनहार्ड गेंझल। उन्होंने अपनी आकाशगंगा के केंद्र में एक प्रचंड संहति की वस्तु की खोज की है, जिसे ब्लैक होल माना जा रहा है। इसकी भविष्यवाणी होएल-नार्लीकर ने चौवालीस साल पहले की थी।
साठ-सत्तर के दशक जनरल रिलेटिविटी शोध यात्रा में अनूठे और रोमांचक थे। हालांकि आइंस्टीन समीकरण का हल जो ब्लैक होल दर्शाता है उसे उसके पहले साल में ही खोज लिया गया था। लेकिन इसे ब्लैक होल के रूप में समझने के लिए पैंतालीस वर्ष लगे। न्यूजीलैंड के भौतिकविद रॉय कर ने घूर्णन ब्लैक होल का हल खोज निकला, जो खगोल भौतिकी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सबसे महत्त्व की खोज थी-2.7 केल्विन (-270 डिग्री सेंटीग्रेड) कॉस्मिक माइक्रोवेव रेडिएशन की, जो इसकी पहचान तथा संदेश है कि विश्व की उत्पति एक तप्त महाविस्फोट (बिग-बैंग) से हुई। इससे बिग-बैंग सिद्धांत को ठोस और मजबूत नीव मिल गई। इस तरह ब्लैक होल और अंतरिक्ष-समय विकृति की खोज, जो आइंस्टीन के गुरुत्व सिद्धांत के अभिन्न अंग हैं, के लिए योग्य तथा सुचारु माहौल और धरातल बन गया था।