अवसाद, उदासी, अकेलापन, चिंता, निराशा आदि जिस नाम से भी इस अवस्था को पुकारें, पर यह मानसिक स्थिति बहुत तेजी से युवाओं और प्रौढ़ों को अपनी गिरफ्त में ले रही है। वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएं तो स्थिति और भी भयावह दिखाई देती है। हाल ही में गुरुग्राम स्थित एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत महिला कर्मी का कूद कर जान दे देना अवसाद की मनोदशा की महज एक तस्वीर भर नहीं है। इससे पहले भी अवसाद की चपेट में आकर कई व्यक्तियों ने जिंदगी की डोर बीच में ही छोड़ दी। मनोविज्ञान की भाषा में इसे अवसाद कहें या फिर आमजन की भाषा में अकेलेपन व उदासी का सबब, मगर सघन स्तर पर निराशा व घोर उदासी जान ले लेती है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह हम बचपन से पढ़ते और रटते बड़े हुए हैं। फिर क्या वजह है कि बड़े होने के बाद व्यक्ति इतना एकांगी, अकेला हो जाता और उदासी में डूब जाता है कि उससे समाज-परिवार दूर चले जाते हैं और वह बाकी लोगों से काफी दूर। यह सवाल एक नागर समाज के सामने बड़ी चिंता के तौर पर उभरा है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2017 को अवसाद से मुक्ति के तौर पर सात अप्रैल को घोषित किया है। वैश्विक स्तर पर करोड़ों की संख्या में युवा व प्रौढ़ स्त्री-पुरुष अवसाद की चपेट में हैं। इन्हें अपनी भावनाओं, संवेदनाओं को प्रकट करने का मौका नहीं मिलता। इस तरह के लोग भीड़ में होते हुए भी निपट अकेला महसूस करते हैं। घर-परिवार में होकर भी खुद को उदास और निराश पाते हैं। शिक्षा इस तरह के लोगों को कितनी मदद कर सकती है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
शिक्षा यदि जिंदगी की तालीम दे पाती तो संभव है कोई इस तरह अपनी जिंदगी से मायूस होकर उम्मीद की डोर नहीं छोड़ सकता। वास्तव में वर्तमान शिक्षा कुछ दक्षताएं ही पैदा कर पाती है जिनकी बदौलत व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा पाता है। समकालीन तनाव व एकाकीपन तथा आम जिंदगी के दबाव को कैसे सहा और समायोजन स्थापित की जाए इसकी समझ शिक्षा नहीं दे पाती। हम पर बाजार और प्रतियोगिताएं सवार हैं जो तय करती हैं कि हमारी जिंदगी की प्राथमिकताएं क्या होंगी। हमारे जीवन में आनंद किस प्रकार के होंगे। बाजार और वैश्विक प्रतियोगिताओं के दबाव ने हमारे जीवन के लक्ष्य भी नए तय किए हैं। इन लक्ष्यों का पीछा करने में तनाव व एकाकीपन स्वाभाविक है। आज शिक्षा में संवेदनाओं और भावनाओं का कोई स्थान नहीं है। बाजार शिक्षा के मापदंड तय कर रहा है। बाजार तय कर रहा है कि आज शिक्षा किस दिशा में और किस तरह की दी जानी चाहिए। बाजार बता रहा है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए, हमें कैसा जीवन जीना चाहिए।
शिक्षा का मकसद बच्चे के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना रहा है। इस विकास में तकनीकी कौशल के अलावा संवेदना, सहभागिता आदि भी शामिल हैं। शिक्षा और हमारी जिंदगी से जो चीज तेजी से गायब हो रही हैं वे हैं संवेदना और सहभागिता। हम जिस कदर असहिष्णु हुए हैं, जिस तरह साझा संस्कृति से दूर हुए हैं यह बहुत साफ तौर पर देखा और महसूस किया जा सकता है। हमें नागर समाज के जीवन में गहरे पैठ चुके अवसादऔर एकाकीपन के समाधान के लिए गंभीरता से विमर्श करना होगा। महानगरों में तो एकाकीपन के मायने समझ आते हैं, क्योंकि व्यक्ति की जिंदगी की शुरुआत सुबह दफ्तर जाने और शाम दफ्तर से लौटने में ही खत्म हो जाती है। इतना समय और इतनी ऊर्जा भी नहीं बची रहती कि अपने दोस्तों या परिवार के सदस्यों से घुलें-मिलेंं। यह स्थिति प्रकारांतर से हमें अकेलेपन की ओर धकेलती है। हम अपने खालीपन को बाजारी सामानों तथा खोखली हंसी से भरने की कोशिश करते हैं।
मानवीय संवेदनाएं जिस शिद््दत से हमें आनंद और अपनेपन के अहसास से भर देती हैं वह सोशल मीडिया पर उपलब्ध लाइक्स और कमेंट्स से कहीं ज्यादा प्रभावी और लाभकारी होता है। पर अफसोसनाक हकीकत यही है कि हमने अपनी निजता और संवेदनाओं को बाजार के हवाले कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2017 को अवसाद व उदासी से निजात का वर्ष घोषित किया है। आज की तारीख में किसी व्यक्ति व समाज को सबसे ज्यादा जिस चीज की आवश्यकता है वह है सुख-शांति और अपनों का साथ। बड़ी साफगोई से बाजार इन्हीं चीजों में सेंध लगाता है बल्कि लगा चुका है।
बच्चों की दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला व्यक्ति कोई हो सकता है तो वह शिक्षक है। यदि वह जीवन और समाज के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा कर सके तो इससे अच्छी बात और क्या होगी! पर यहां एक दिक्कत यह है कि कई बार शिक्षक अपने पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं आ पाता और वही दृष्टिकोण प्रकारांतर से बच्चों में अनजाने ही संक्रमित हो जाते हैं। जब स्वयं शिक्षक विभिन्न प्रकार के तनावों व आकांक्षाओं की गिरफ्त में होगा, तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं वह कक्षा में प्रोफेशनल की तरह अपना बरताव बरकरार रख पाएगा? हमें शिक्षकों की पेशेवर और निजी जिंदगी में शामिल संघर्षों व तनावों के प्रबंधन और निराकरण पर ध्यान देना होगा। यदि कोई शिक्षक अपने तनावों व क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा है तभी वह कक्षा में आवेश में आता है। यदि हम शिक्षकों के मनोजगत और बच्चों की मन:स्थिति के बीच सामंजस्य स्थापित करने में मदद कर सकेंतो काफी हद तक उदासी, तनाव व दुश्चिंता को खत्म किया जा सकता है। हमें बच्चों को अपनी भावनाओं, मनोजगत और वर्तमान की चुनौतियों के बीच समायोजन तथा संतुलन कैसे स्थापित किया जाए यह सिखाना होगा ताकि भावी जीवन में आने वाली चुनौतियों का वे सामना कर सकें।
दुर्खिम अपनी किताब ‘आत्महत्या’ में लिखते हैं कि जब व्यक्ति बाहरी दुनिया से कट जाता है तब वह एकाकी होने लगता है। यथार्थ से कटते जाने की वजह से व्यक्ति जिंदगी से दूर चला जाता है। जब परिवेशगत दबाव प्रभावी हो जाते हैं तब व्यक्ति के अंदर की संघर्ष करने की क्षमता खत्म जाती है। हताश व्यक्ति अंतिम विकल्प के तौर पर आत्महत्या को चुनता है। हमें इस मनोदशा से अपनी और भावी पीढ़ी को बचाना है तो जीवन की विविधता और व्यापक छटाओं से उसका परिचय कराना होगा। हमें उनके परिवेश को सृजनात्मक और कलात्मक बनाने में मदद करनी होगी। बाजार निर्मित सामानों तथा वास्तविक प्रसन्नता में चुनाव करने की समझ पैदा करनी होगी। अवसाद को एकांत में दूर नहीं किया जा सकता बल्कि उसके लिए हमें समाज में वापस आना होता है।
गौरतलब है कि जब अवसाद एक सीमा को लांघ जाता है तब वह मनोचिकित्सीय परामर्श और उपचार की मांग करता है। आज की तारीख में अमूमन हर किसी की जिंदगी में तनाव और अवसाद है, लेकिन उनसेकैसे बेहतर तरीके से निपटा जाए यदि स्वयं यह कर पाते हैं तो ठीक, वरना हमें मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ती है। हाल में आई एक रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में साठ लाख से ज्यादा पुरुष अवसाद के शिकार हैं। वहीं देश भर में ऐसी महिलाओं की संख्या सात करोड़ के आसपास है जो अवसाद की अवस्था में हैं। ऐसे व्यक्तियों को मनोचिकित्सकीय सलाह और दवाओं की आवश्यकता पड़ती है। यदि समय रहते हम उन्हें उचित परामर्श उपलब्ध करा पाएं तो स्थिति संभल जाती है।

