पेरिस का शार्ली एब्दो प्रकरण सुरक्षा रणनीतिकारों को ही नहीं, समाजशास्त्रियों और वास्तुकारों को भी समान रूप से हताश कर गया। भारत में भी आधुनिक और स्मार्ट शहरों के योजनाकारों को समाजशास्त्रियों के साथ बैठ कर इस सवाल से दो-चार होना चाहिए कि वहां समांतर पनपने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो का वे क्या करेंगे? शार्ली एब्दो ऐसे घेटो की भी उतनी ही देन है, जितनी अल कायदा के आतंकी अभियान की। भारतीय संसद पर हमला और उसके तीन माह पहले न्यूयार्क के विश्व व्यापार केंद्र का ध्वंस, वास्तव में आयातित/ आरोपित आतंकी कवायदें थीं, न कि उन समाजों के सांस्कृतिक घेटो से फूटी कोई हलचल। दोनों दुस्साहसी प्रकरणों के पीछे स्थानीय सुरक्षा तंत्र की विफलता तो रही, पर एक सजग तंत्र के लिए इन भौतिक कमियों को दुरुस्त कर पाना फिर भी आसान है, बनिस्बत अपने गर्भ में पलते सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो पर कानून और न्याय का बुलडोजर चला कर उससे निजात पाने के।

दरअसल, शार्ली एब्दो हालिया समकक्ष जिहादी उत्तेजना के सिडनी कैफे बंधक कांड (दिसंबर 2014) और बोस्टन मैराथन बमबारी (अप्रैल 2013) से भी भिन्न आयामी परिघटना है। पेरिस के आप्रवासी हमलावर फ्रांसीसी जमीन की ही उपज थे, जबकि सिडनी और बोस्टन में आयातित आप्रवासियों की भूमिका रही। फ्रांस का घृणा संहार, काफी हद तक नार्वे (ओस्लो) के इस्लामोफोबिया प्रेरित हत्याकांड (जुलाई 2011) जैसा है; दोनों की जड़ें वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो में मिलती हैं। दोनों की मानसिक खुराक भी एक जैसी है- एक का पोषक तत्त्व इस्लामी संस्कृतिवाद बना और दूसरे का ईसाई संस्कृतिवाद; हालांकि ओस्लो का हत्यारा अकेला था।

एक तरह से शार्ली एब्दो को आधुनिकता के खिलाफ आतंक का प्रतिनिधि बहुस्तरीय चेहरा कहा जा सकता है। हाल के पेशावर के स्कूली बच्चों पर नृशंस तालिबानी हमले या नाइजीरियाई बोको हरम गिरोह के जनसंहारों की तुलना में एक विकसित लोकतांत्रिक देश के इस कत्ल-प्रकरण ने आतंकवाद की राजनीति और सामाजिकता को लेकर अलग तरह से सवाल उठाए हैं।

भारतीय संदर्भ में, शार्ली एब्दो की तुलना नवंबर 2008 के मुंबई आतंकी हमले से करने से बचना चाहिए, भले दोनों का संचालन जिहादी एजेंडे के तहत एक जैसे अंदाज में किया गया। पेरिस के अंजामकर्ता फ्रांस में ही जन्मे, पले-बढ़े, वहीं के नागरिक निकले, मुंबई में खूनी तांडव विदेशी घुसपैठियों ने किया था। कहीं ज्यादा सटीक होगा कि शार्ली एब्दो को फरवरी 2007 के समझौता एक्सप्रेस बमकांड और मई 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट के समकक्ष रखा जाए। बावजूद इस साक्षात विरोधाभास के भी कि शार्ली एब्दो को अंजाम देने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के थे, जो फ्रांस से बाहर यमन/ सीरिया से प्रशिक्षण लेकर आए थे, जबकि समझौता और मक्का मस्जिद कांड में शामिल बहुसंख्यक समुदाय के गिरोह को भारत में ही तैयार किया गया था।

दरअसल, दोनों स्थितियों में समानता के बुनियादी बिंदु कहीं अधिक गहरे हैं। दोनों में लिप्त तमाम जघन्य अपराधी सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो की उपज रहे। वे जिस देश में जन्मे, पले-बढ़े, वहीं के निवासियों का उन्होंने कत्ल किया। दोनों स्थितियों में कट््टर उकसावे का औचित्य भी एक जैसा रहा- संविधान में अविश्वास और प्रतिशोधी न्याय।

आज भारतीय राज्य और समाज के लिए शार्ली एब्दो से सीखने को कई सबक हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक स्तरों पर भी कि फ्रांस की तुलना में उपरोक्त दोनों देशी कांडों से कैसे निपटा गया। शार्ली एब्दो के चरमपंथी हत्यारे, फ्रांस में जन्मे अल्जीरियाई मूल के दो मुसलिम भाई, त्वरित पुलिस कार्रवाई में मारे गए। तीन दिन बाद पेरिस में विश्व भर से जमा हुए लाखों लोगों ने अभूतपूर्व सद्भावना मार्च में हिस्सा लिया।

इस बीच पड़ोसी जर्मनी में आप्रवासी (मुसलिम) विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ बीसियों गुना बड़े बहुलतावादी प्रदर्शन भी चल रहे हैं। यानी पश्चिमी जगत के आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों में धार्मिक जीवन पद्धतियों को परस्पर पूर्वग्रहों से भरे तनावों में जीने-मरने जैसा संकट नहीं झेलना पड़ा है। इससे पहले अमेरिका, आस्ट्रेलिया, नार्वे भी अपनी जमीन पर चरमपंथी हिंसा आयात करने वालों को यही संदेश दे चुके हैं।

इसके बरक्स, भारतीय राष्ट्र ने समझौता एक्सप्रेस मामले में घोर पूर्वग्रह का प्रदर्शन किया। यहां तक कि मक्का मस्जिद विस्फोट के बाद तो राज्य मशीनरी ने लगभग असंवैधानिक और न्याय-शून्य होने में कोई कसर नहीं छोड़ी। समझौता कांड की जांच में ज्यों-ज्यों कड़ियां जुड़ती गर्इं, हिंदू आतंकी गिरोह की भूमिका ही शक के घेरे में आती गई। विडंबना यह थी कि तत्कालीन कांग्रेसी सरकार का गृह मंत्रालय काफी अरसे तक यही अपेक्षा पाले रहा कि कब इसमें मुसलिम चरमपंथियों के शामिल होने या पाकिस्तानी हाथ होने के सबूत मिलें, जिसे वे दोनों देशों के बीच सचिव स्तर की वार्ता में तुरुप की तरह इस्तेमाल कर सकें।

यह पूर्वग्रह समझौता कांड के कुछ महीनों में ही पराकाष्ठा पर सवार मिला, जब हैदराबाद में मक्का मस्जिद पर बम फूटे। ये बम ठीक वैसे ही थे जैसे समझौता एक्सप्रेस धमाकों में प्रयुक्त हुए थे, और एक जैसा तरीका दोनों मामलों में एक ही गिरोह की संलिप्तता की ओर इशारा कर रहा था। पर पुलिस ने अंधाधुंध रूप से इलाके के मुसलिम युवकों को शक की बिना पर उठाना शुरू कर दिया। विरोधस्वरूप बड़ी संख्या में उग्र भीड़ सड़कों पर उतर आई और उसके निशाने पर आई पुलिस की गोलीबारी में दस से अधिक जानें गर्इं।

आंध्र में कांग्रेसी सरकार थी; निर्दोष मुसलिम नौजवानों को मक्का मस्जिद मामले में गिरफ्तार किया गया, उनके झूठे इंकशाफ लिखे गए और गढ़े गए सबूतों के आधार पर उनका चालान हुआ। मध्यप्रदेश का, जहां भाजपाई सरकार थी, संघी पृष्ठभूमि का गिरोह समझौता कांड के बाद शक के दायरे में था। वहां की पुलिस ने शुरू से जांच में असहयोग का रवैया रखा। 2010 में जब गिरफ्तारियां शुरू हुर्इं और एकाध बड़े नाम भी सामने आने लगे तो संघ और भाजपा की ओर से कड़ा विरोध जताया गया। यह था राजनीतिक दलों के पूर्वग्रह का आलम! कांग्रेसी, कूटनीतिक दांव खेलने के लिए पाकिस्तानी हाथ उजागर होने का इंतजार कर रहे थे और भाजपाई जघन्य अपराधियों के हक में बौखलाए बयान देते फिर रहे थे!

शार्ली एब्दो हत्याकांड के बाद फ्रांसीसी सरकार और फ्रांसीसी समाज की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति एकजुटता ऐसी थी कि सारी दुनिया उसके साथ खड़ी नजर आई, यहां तक कि वे भी जिन्हें पैगंबर के कार्टूनों पर स्वाभाविक एतराज रहा। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस अवसर पर फ्रांस के लोगों के साथ अपने और हर भारतीय के होने का संदेश भेजा। इससे पहले सिडनी कैफे और पेशावर स्कूल पर आतंकी हमले के समय भी वे ऐसे ही संदेश भेज चुके थे। ओस्लो संहार के मौके पर मोदी के पूर्ववर्ती कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी नार्वे के लोगों को ऐसा ही संदेश दिया था। क्या 1984 में सिख संहार और 2002 के मुसलिम संहार के समय भारत भी सारी दुनिया से एकजुटता के ऐसे ही संदेशों का अधिकारी नहीं था? क्या तब की क्रमश: केंद्र (राजीव गांधी) और गुजरात (मोदी) सरकार संविधान में अविश्वास और प्रतिशोधी न्याय का ही खेल नहीं खेलती रहीं?

स्पष्ट है कि पश्चिमी देशों के चैतन्य समाजों में सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो के बरक्स जैसी उदारवादी लामबंदियां सक्रिय हैं, भारत में प्रतिरोधी आवाजें उस पैमाने पर मुखर नहीं हो पाई हैं। शार्ली एब्दो के संदर्भ में यह घेटो-असर, सोशल साइटों पर इस्लाम केंद्रित नफरत भरी टिप्पणियों और फ्रांस में मस्जिद विस्फोटों में दिखा भी। हाल के वर्षों में पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में ऐसे लोगों की भी खासी संख्या मुखरित हुई है, जो मानते हैं कि वहां पसरता जिहादी आतंकवाद का साया तेल व्यापार का नहीं, इस्लाम की शिक्षाओं का बिंब है। यह भी कि नृशंस कट्टरपंथ के निशाने पर न लोकतंत्रों की आधुनिक जीवन-शैली और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के परचम हैं, न मध्य-पूर्व में उन सरकारों की सैन्यवादी कॉरपोरेट लूट की किलेबंदियां।

मानना होगा कि आतंकी संगठनों के अतिवादी प्रचार और खून-खराबे से भी इन मान्यताओं को खुराक मिलती रहती है। और इन चैतन्य समाजों में भी अल कायदा और आइएस जैसे आतंकी संगठनों के लिए आत्मघाती स्वयंसेवकों और दानदाताओं की कतार संभव करने वाली जमीनी वास्तविकता सांस्कृतिक घृणा के अंधेरे में ही सुगबुगाती मिलती है।

सवाल है कि भारत वहशी हिंसा के अगले दौर से कितनी दूर है? देश के भीतर पनपते भागवतों और ओवैसियों को हम खतरे की किस हद तक मजबूत होने देंगे? अतिवाद की अंतरराष्ट्रीय दस्तक के विकट समय में भी हमारी सरकारों की शुतुरमुर्गी मुद्राएं जुंबिश लेंगी या नहीं? सांप्रदायिक नफरत रोकने और तद्जनित हिंसा से निपटने और अपराधियों को दंडित करने में देश की कानून और न्याय-प्रणाली का ट्रैक रिकार्ड बेहद निराशाजनक रहा है, बल्कि कानून और न्याय-व्यवस्था के कर्मी खुद पूर्वग्रहों के शिकार सिद्ध हुए हैं।

सूरत पुलिस अकेली नहीं है, जो आतंकवादी को मुसलिम टोपी में देखती हो। हाल में अपने आतंक-विरोधी प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन्होंने आतंकवादी चरित्रों को पारंपरिक मुसलिम छवि में पेश किया। हालांकि मीडिया में खबर आते ही उसने माफी मांगी और तुरंत अपने कायदों को सुधारने का वादा किया। जबकि देश में तमाम ऐसे पुलिस प्रशिक्षण केंद्र मिलेंगे, जहां आतंकवाद को स्वाभाविक मुसलिम परिघटना दिखाने वाले अभ्यास चलते रहते हैं।
पुलिस प्रशिक्षण कार्यशालाओं में आत्मघाती आतंकी हमलों के संदर्भ में एक तय सवाल होता है कि तमाम आत्मघाती हमलावर एक संप्रदाय विशेष (मुसलिम) से क्यों आते हैं? छिपा इशारा कि शायद उस धर्म में ही कुछ ऐसा है। वह भी तब, जब दक्षिण एशिया ही नहीं, सारे विश्व में आत्मघाती हमलों को व्यापक आतंकी हथियार की शक्ल देने में सबसे बड़ी भूमिका श्रीलंका के हिंदू आतंकवादी संगठन लिट््टे ने निभाई हो। यहां तक कि, भारत में हुए दो सबसे चर्चित आत्मघाती हमलों को अंजाम देने वाले भी गैर-मुसलिम व्यक्ति थे। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मामले में एक हिंदू और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के मामले में एक सिख।

महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी की हत्या क्रमश: हिंदू और सिख मतावलंबियों ने की। क्या देश के विभिन्न हिस्सों के अलगाववादी हिंसक आंदोलनों पर एक संप्रदाय का एकाधिकार नजर आता है? कश्मीर में मुसलमान, पंजाब में सिख, उत्तर-पूर्व में हिंदू और ईसाई, माओवादी थिएटर में हिंदू- गोया कि हर प्रमुख धर्म के अनुयायी अंधी हिंसा की दौड़ में शरीक मिल जाएंगे। लिहाजा, भारतीय पुलिस के प्रशिक्षण में एक मुसलिम आतंकी स्टीरियोटाइप गढ़ने का कोई आधार नहीं होना चाहिए, सिवाय इसके कि वह स्वयं सामाजिक-सांस्कृतिक घेटो के विस्तार का हिस्सा है। इस घेटो में जीने वाली पुलिस से लव जिहाद, घर वापसी, मुजफ्फरनगर, बाबरी मस्जिद, तोगड़िया और आदित्यनाथ तो संभलने से रहे।

 

विकास नारायण राय

 

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