बीते पच्चीस सालों में जल परिवहन को विकसित करने के लिए नौ समितियां गठित की गर्इं। सभी समितियों ने जल मार्ग के विकास पर मुहर तो लगाई लेकिन संभावित खतरों की ओर इशारा भी किया। लेकिन जल मार्ग में आने वाली बाधाओं से किस तरह से निजात पाई जाए, इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई। अब इस दिशा में नई शुरुआत की गई है। वर्तमान सरकार ने एक सौ ग्यारह नदियों को राष्ट्रीय जल मार्ग घोषित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण विधेयक इस साल पारित कराया है। केंद्र सरकार ने दावा किया है कि कुल बीस हजार किलोमीटर लंबे नदी किनारों व साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तट का विकास वह करेगी। इस क्रम में बीते दिनों वाराणसी से मारुति सुजुकी की कारों व निर्माण सामग्री से लदे दो पोतों को रवाना भी किया गया। सरकार का कहना है कि जलमार्ग से पश्चिम बंगाल में इन कारों की लागत पांच हजार रुपए तक कम हो जाएगी। राष्ट्रीय जल मार्ग-1 का विकास जल मार्ग विकास परियोजना के जरिए किया जा रहा है। इसकी फंडिंग विश्व बैंक द्वारा की जा रही है। इस पर कुल बयालीस सौ करोड़ रुपए की लागत आएगी। सरकार ने यह भी कहा है कि नदी तटों के विकास पर साढ़े पांच सौ से सात सौ अरब रुपए खर्च होंगे। जल परिवहन में सड़क मार्ग के मुकाबले ढुलाई की लागत पांच फीसद से भी ज्यादा घट जाएगी। अभी एक टन माल की ढुलाई प्रति किलोमीटर सड़क मार्ग से 2.50 रु., रेल मार्ग से 1.36 रु. और जल मार्ग से 1.06 रुपए पड़ती है। इसके अतिरिक्त, जल मार्ग से ढुलाई में प्रति टन किलोमीटर र्इंधन की खपत भी कम हो जाएगी। सरकार का कहना है कि राष्ट्रीय जल मार्ग-1 जब समृद्ध हो जाएगा तब विमान की लैडिंग भी

शुरू हो जाएगी। रो-रो सर्विस भी शुरू करने की योजना है, जिसके तहत लोग कार जैसे निजी साधनों के साथ गंतव्य तक सहजता से पहुंच सकेंगे। हालांकि अब तक ‘रिवर इन्फारमेशन सिस्टम’ विकसित नहीं हो पाया है। बजट की कमी नहीं हुई तो यह सपना भी पूरा होने में कम से कम चार साल तो लग ही जाएंगे।सड़क व रेल मार्ग के मुकाबले जल मार्ग से ढुलाई का खर्च छह फीसद कम हो जाएगा। अभी तो राष्ट्रीय जल मार्ग की शुरुआत वाराणसी से हल्दिया के बीच की गई है। वाराणसी, हल्दिया व झारखंड के साहबगंज में मल्टी टर्मिनल भी बनाया जाएगा। पचास से ज्यादा छोटे टर्निमल व फरक्का में छह सौ करोड़ की लागत से गेट बनाया जाएगा ताकि मालों की ढुलाई के साथ ही जलपोतों का संचालन बखूबी किया जा सके। सरकार चाहती है कि गंगा में न केवल मालवाहक बल्कि आलीशान क्रूज भी चलें। देश के बड़े उद्योगपति अपना क्रूज खरीदें और उसी क्रूज से गंगा में उतरें। निकट भविष्य में सरकार ऐेसा विमान भी खरीदना चाहती है जो रन वे के अलावा पानी में भी उतरेगा।

लेकिन साथ ही यह अंदेशा भी है कि अरबों-खरबों के निवेश के बाद भी जलमार्ग कहीं दम न तोड़ दें। इस आशंका से उबरने के लिए पहली जरूरत यह है कि गंगा या राष्ट्रीय जल मार्ग की अन्य नदियों में पानी की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए। अभी तो गंगा सफाई अभियान का हाल यह है कि फंड जरूर स्वीकृत हुआ है लेकिन धरातल पर कुछ दिख नहीं रहा है। विदेशों की तर्ज पर देश की नदियों में रिवर फ्रंट बनाने की योजना भी शुरू की जा चुकी है। रिवर फ्रंट से नदी के किनारों का सौंदर्यीकरण तो हो जाएगा लेकिन नदी खुद को रिचार्ज करने के लिए जो पानी अपने कच्चे किनारों से बरसात के दौरान लेती है, वह प्राकृतिक व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। ऐसे में नदी के अंदर पानी का संकट होना लाजिमी है। उदाहरण के लिए, साबरमती को देखा जा सकता है। इस नदी की औसत चौड़ाई 1253 फुट थी जो रिवर फ्रंट योजना के बाद 902 फुट रह गई है। नासा की रिपोर्ट पर गौर करें तो मालूम पड़ता है कि देश में जल स्तर 0.04 मीटर की दर से हर साल गिर रहा है। सबसे पहले तो इस जल स्तर को गिरने से रोकने की समुचित व्यवस्था करनी होगी। पिछले पंद्रह सालों से देश के 96 जलाशयों में पानी की उपलब्धता कम हुई है। केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, इन जलाशयों की कुल क्षमता का अट्ठाईस से बत्तीस फीसद ही पानी बचा हुआ है। देश की पचासी फीसद पानी की जरूरत को पूरा करने वाले भूमिगत जल का स्तर निरंतर गिर रहा है।

नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदियों में न्यूनतम जल प्रवाह बनाए रखने के लिए सरकार को कानूनी प्रावधान भी करने चाहिए। नदी का पानी, विशेषकर गंगा का, हर माह ढाई हजार लीटर मैक्सिको, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाता है। वर्ष 2012 में अमेरिका पहुंचे गंगा के पानी का वहां के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तो पता चला कि उसमें प्रदूषण की मात्रा काफी ज्यादा है। कपास, धान और गन्ना जैसी फसलों के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। लेकिन इन फसलों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो पाता है, जिसकी वजह से कई राज्यों में पिछले सात सालों से सूखे की स्थिति है। उत्तराखंड स्थित पंतनगर कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों के मुताबिक किसानों को सलाह दी जा रही है कि जल संकट को देखते हुए किसान उन फसलों पर ज्यादा ध्यान दें जिनमें पानी की आवश्यकता कम पड़ती है। सरकार पहले नदियों में मानक के मुताबिक पानी की व्यवस्था तो करे। तभी बड़े-बड़े पोत विचरण कर पाएंगे।

ऐसी बात नहीं कि इस तरह की समस्या विदेशों में नहीं है, लेकिन वहां के नीति निर्धारकों ने जल परिवहन शुरू करने के पहले जल मार्ग में आने वाली छोटी-बड़ी समस्याओं का हल ढंूढ़ा। देश में कई स्थानों पर पीपे व रेलवे के ब्रिज हैं जिनकी ऊंचाई को लेकर जलपोतों के सामने समस्याएं आ सकती हैं। वर्ष 2011 में रेल विभाग द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक देश में पैंतीस से ज्यादा ऐसे रेलवे ब्रिज हैं जिनकी ऊंचाई कम है।
अतीत में जितना ध्यान और बजट जल मार्ग को विकसित करने के लिए दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया। अब सरकार ने एलान किया है कि बीस हजार किलोमीटर लंबे नदी किनारों व साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तट के विकास पर वह पचास हजार करोड़ का शुरुआती निवेश करेगी। निजी क्षेत्र को भी निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

देश में जहाजों की औसत कार्य अवधि चौदह साल की है जबकि विदेश में यह अवधि अठारह से बीस साल है। भारतीय जहाजरानी उद्योग की सबसे बड़ी समस्या है कि पुर्जे काफी पुराने हो गए हैं, जिसके कारण मरम्मत पर काफी खर्च करना पड़ता है। देश में अविकसित कंटेनर प्रणाली अब भी कायम है। अंतरराष्ट्रीय बंदगाहों पर प्रति कंटेनर दो से चार श्रमिकों की जरूरत पड़ती है जबकि भारतीय बंदरगाहों पर पचपन से साठ श्रमिकों की, जिसके फलस्वरूप ढुलाई की लागत काफी बढ़ जाती है। भारतीय बंदरगाहों पर कुशल कर्मचारियों की कमी व माल की ढुलाई में देरी की वजह से जल यातायात परिचालन की लागत काफी बढ़ जाती है। नतीजा यह होता है कि जहाजरानी कंपनियों को जो मुनाफा मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता है। भारतीय जहाजरानी कंपनियों को विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। ऐसे में भारतीय कंपनियों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। वर्ष 1990-91 में जहाजरानी में सुधार के लिए नई नीति घोषित की गई। लेकिन कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला। आज भी उसी पुराने ढर्रे पर सबकुछ चल रहा है।
केंद्रीय जल आयोग की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक जलमार्गों में करीब 5,200 किलोमीटर नदियां और 485 किलोमीटर नहरें ऐसी हैं जिन पर यांत्रिक जलयान चल सकते हैं। जबकि जमीनी हकीकत तो यह है कि केरल, असम, गोवा और पश्चिम बंगाल को छोड़ कर बाकी जगहों की स्थिति ठीक नहीं है। आज कुल घरेलू परिवहन में जल परिवहन का हिस्सा नगण्य, महज 0.24 फीसद है, जबकि रेल का 36.6 और सड़क परिवहन का हिस्सा 50.12 फीसद है। नदियों और नहरों में गाद जमा होने से जल परिवहन को तगड़ा झटका लगा है।

गंगा नदी के चुनिंदा पर्यटन केंद्रों के बीच भले ही क्रूज सेवा शुरू करने की योजना बनाई गई हो, दावा किया जा रहा हो कि र्इंधन कम खर्च होगा, लेकिन पर्यावरण के जानकारों को आशंका है कि प्रदूषण हर हाल में फैलेगा। नदियों की जैव विविधता नष्ट होगी। जल के प्राकृतिक तंत्र, जलीय जीव व वनस्पतियों पर इसका दूरगामी प्रतिकूल असर पड़ेगा। वर्तमान में गंगा-यमुना सहित कई महत्त्वपूर्ण नदियों में प्रदूषण की वजह से जलीय जीव संकट में हैं। पर्यावरणविद मानते हैं कि नदियों में स्टीमर व पानी के जहाज आदि के चलने से नदी जल प्रदूषित होगा। क्योंकि प्रतिदिन हजारों लीटर तेल का जल में रिसाव होना ही है।
जलमार्ग जरूर विकसित हों। पर नदी की आत्मा की हत्या करके नहीं। एक योजना नदी जलमार्ग का नेटवर्क तैयार करने की आवश्यकता है। जल्दबाजी में या फिर दिखावे के लिए जल परिवहन के हवाई किले बनाना ठीक नहीं है।