मणिपुर की समस्या का समाधान अतिरिक्त केंद्रीय बल भेज कर नहीं किया जा सकता। अशांत मणिपुर में केंद्रीय बल की टुकड़ियां भेजने से मणिपुर के मैतेयी और नगा समुदायों के बीच बढ़ रही खाई को किसी भी हाल में कम नहीं किया जा सकता है। इन दोनों समुदायों के बीच आपसी भरोसा पैदा करके ही मणिपुर की अशांत वादियों को शांत करने में कामयाबी मिल सकती है। मणिपुर में वर्तमान तनाव एकाएक नहीं फैला है। आर्थिक नाकेबंदी डेढ़ महीने से ज्यादा समय से वहां चल रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास खुफिया रिपोर्ट काफी पहले ही आ चुकी थी। मणिपुर सरकार के पास भी निश्चित रूप से रही होगी। लेकिन समय रहते ही न तो केंद्र और न ही राज्य सरकार ने मणिपुर को आसन्न संकट से बचाने के लिए कोई गंभीर पहल की। परिणाम यह हुआ है कि यह छोटा-सा खूबसूरत राज्य एक बार फिर तनाव और टकराव की गिरफ्त में है। यदि वाकई केंद्र और मणिपुर की सरकारें मणिपुर का विकास चाहती हैं तो दोनों को मिलकर मणिपुर के विकास के लिए कार्य करना होगा। वहां की शिक्षा व्यवस्था और दम तोड़ती अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करनी होगी। दूरदराज क्षेत्र में बसे होने के कारण मणिपुर की वास्तविक स्थिति से शेष भारत के लोग प्राय: अनभिज्ञ रहते हैं।
लेकिन देश के खुफिया तंत्र के पास पुख्ता सूचनाएं रहती हैं। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालैंड (इसाक-मुइवा) यानी एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार के बीच अब पहले की तरह कड़वाहट नहीं है। ऐसे में केंद्र, मणिपुर में शांति बहाली के लिए एनएससीएन (आईएम) का इस्तेमाल कर सकता है। मणिपुर की ‘आयरन लेडी’ इरोम शर्मिला को भी मणिपुर में तेजी के साथ फैल रही हिंसा को रोकने की दिशा में सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को लेकर एक दशक से ज्यादा समय तक अनशन पर रहीं इरोम अब मणिपुर में राजनीतिक हालात को बखूबी समझ चुकी हैं। मणिपुर में आर्थिक नाकेबंदी कोई नई बात तो नहीं है लेकिन जिस तरह से इस बार राज्य के मैतेयी और नगा समुदायों के बीच टकराव चरम पर है वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था। मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है और वहां के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के ताजा फैसले के फलस्वरूप, जिसमें उन्होंने सात नए जिले बनाने की घोषणा कर दी, वहां के हालात बिगड़ गए हैं। दैनिक उपभोग की वस्तुओं की भी किल्लत है। दरअसल, मुख्यमंत्री इबोबी सिंह मणिपुर के गैर-नगा क्षेत्र में अपनी पकड़ ज्यादा से ज्यादा मजबूत करना चाहते हैं क्योंकि राज्य में करीब दो माह बाद ही विधानसभा के चुनाव होने हैं। नगा क्षेत्र में कांग्रेस पहले की तरह अब मजबूत स्थिति में नहीं है। एनएससीएन (आईएम) ने साफ तौर पर वहां कांग्रेस के खिलाफ वोट डालने का फरमान जारी कर दिया है। ‘
एनएससीएन (आईएम) चाहता है कि मणिपुर के नगा लोग नगा पीपुल्स फ्रंट (एनएफपी) के पक्ष में वोट डालें और वह इस दिशा में सक्रिय भी है। गौरतलब है कि भाजपा नगालैंड में सत्तारूढ़ एनएफपी की अगुआई वाले गठबंधन के साथ है। राजनीतिक पार्टियां मणिपुर में विधानसभा चुनाव के पहले अपनी-अपनी सियासी गोटियां बिठाने में लगी हुई हैं। लेकिन इस तरह तो कभी भी मणिपुर की जनता का भला नहीं हो सकता।
मैतेयी और नगा समुदायों के बीच टकराव से प्राकृतिक व सांस्कृतिक रूप से संपन्न मणिपुर आने वाले दिनों में और ज्यादा कमजोर होने के साथ ही आर्थिक रूप से बिखर जाएगा। तनाव बढ़ने के बाद मणिपुर में अनिश्चित काल के लिए कर्फ्यू है। चर्च पर कथित हमले की अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए मोबाइल व इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं। लेकिन इससे वहां पर शांति बहाल नहीं की जा सकती। मणिपुर आर्थिक नाकेबंदी से जूझ रहा है। मणिपुर में सात नए जिले बनाने के सरकार के फैसले के खिलाफ यह आर्थिक नाकेबंदी पहले नगा गुटों ने शुरू की और उसके जवाब में कुकी और मैतेई समुदायों ने की है। यूनाइटेड नगा काउंसिल राज्य में सात नए जिले बनाने का विरोध कर रही है। इनमें से चार जिलों का तो उद््घाटन भी हो चुका है। ‘इनर लाइन परमिट’ भी मणिपुर की एक अन्य गंभीर समस्या है। अब सात नए जिलों के अतिरिक्त इनर लाइन परमिट का मुद््दा भी गरमा गया है। मणिपुर में बाहरी लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है। इससे मैतेयी समुदाय को अपना वजूद खतरे में नजर आ रहा है। राज्य में इनर लाइन परमिट की मांग बहुत पुरानी है। लेकिन पहली बार जुलाई 2012 में इसका प्रस्ताव विधानसभा में पेश किया गया। उसी साल अगस्त में राज्य सरकार ने इस बारे में केंद्र को एक पत्र भी भेजा था, लेकिन केंद्र ने मणिपुर में आईएलपी लागू करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।
मणिपुर वर्ष 1949 में भारत का हिस्सा बना और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। यहां राजाओं के शासनकाल के दौरान आईएलपी जैसी एक प्रणाली लागू थी, जिसके तहत कोई बाहरी व्यक्ति राज्य में न तो स्थायी नागरिक बन सकता था और न ही यहां जमीन या कोई दूसरी संपत्ति खरीद सकता था। लेकिन केंद्र ने वह प्रणाली खत्म कर दी थी। अब समय-समय पर उसी को लागू करने की मांग उठती रही है। आईएलपी की मांग को लेकर सबसे पहला बड़ा आंदोलन वर्ष 1980 में छात्रों ने शुरू किया था। मणिपुर में पर्वतीय क्षेत्र और घाटी में रहने वाले लोगों के बीच तनाव का एक लंबा इतिहास है। मणिपुर के पहाड़ी हिस्से में ज्यादातर नगा आबादी रहती है, जिसके प्रशासन के लिए स्वायत्त जिला परिषद (एडीसी) है। राज्य सरकार इस परिषद की सहमति के बिना पहाड़ी इलाके के लिए कोई कानून नहीं बना सकती है। घाटी में रहने वाली आबादी पहाड़ी आबादी की तुलना में ज्यादा है। नगा जनजातियां ईसाई धर्म को मानती हैं तो घाटी में रहने वाले ज्यादातर लोग हिंदू हैं जो मैतेयी समुदाय के हैं। माना जाता है कि तनाव व टकराव की जड़ दोनों समुदायों के बीच लंबे अविश्वास में छिपी है। सरकार, पुलिस और नौकरशाही में घाटी के हिंदुओं का बहुमत है। पहाड़ों पर रहने वाली नगा और दूसरी जनजातियों को लगता है कि सरकार उनकी जमीन पर कब्जा न कर ले या कोई ऐसा कानून न ले आए, जिससे उनकी स्वायत्तता और जीवन शैली पर संकट आ जाए। इसी आशंका से उपजा अविश्वास कई बार हिंसा का रूप ले चुका है।
मणिपुर के दो राष्ट्रीय राजमार्गों पर यूनाइटेड नगा काउंसिल की ओर से अनिश्चितकालीन आर्थिक नाकेबंदी जारी है। राज्य में रोजमर्रा की जरूरी चीजों की आपूर्ति बुरी तरह से प्रभावित हुई है। पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और एलपीजी सिलेंडर उपलब्ध नहीं हैं। जरूरी सामानों की कीमतें आसमान छू रही हैं। पुराने पांच सौ और हजार रुपए के नोटों पर पाबंदी से समस्या और बढ़ गई है। नाकेबंदी और उसके बाद नोटबंदी की मार से राज्य के सीमावर्ती शहर मोरे से होकर म्यांमार के साथ होने वाला सीमा-व्यापार भी ठप है। इससे म्यांमार की मुद्रा कयात के मुकाबले भारतीय मुद्रा की कीमत गिरी है। पहले जहां एक सौ भारतीय रुपए की कीमत उन्नीस सौ कयात थी वहीं अब यह आठ सौ कयात रह गई है। केंद्र को भी और मणिपुर सरकार को भी यह समझना होगा कि ऐसे ही हालात मणिपुर में बने रहे तो आर्थिक रूप से राज्य की कमर टूट जाएगी। टकराव कम करने की दिशा में तत्काल प्रभाव से कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि फिर से मणिपुर में शांति कायम हो सके।