स्तनपान अभियान के साथ ही भारत के बच्चों में कुपोषण का मसला भी उठना चाहिए। दुनिया में कुपोषित बच्चों की सबसे ज्यादा तादाद भारत में है। अनुपात के लिहाज से भी देखें, देश में कुपोषण की व्यापकता बहुत है, चालीस से पैंतालीस फीसद। आखिर ऐसी स्थिति के रहते स्वस्थ भारत का सपना कैसे साकार किया जा सकता है?
जिस समय एक सौ पच्चीस करोड़ की जनसंख्या वाला भारत अपनी भौगोलिक सीमाओं के विवाद में सीमांत देशों से कई तरह के शीतयुद्धों में उलझा हो और आए दिन इस विषय की जटिलता को सुलझाने में ही अधिक व्यस्त हो, तो देश के भीतर की अन्य समस्याएं कहीं न कहीं विचार, योजना और क्रियान्वयन की सूची में पीछे छूट जाया करती हैं। समस्याओं की इस सूची में एक बड़ी समस्या देश में खाद्य पदार्थों में हो रही जानलेवा मिलावट है। मिलावट का धंधा अनाज और सब्जियों को ही नहीं बल्कि दुधमुंहे शिशुओं के लिए तैयार डिब्बाबंद दुग्ध पदार्थों को भी प्राणघातक बना रहा है। डिब्बाबंद दुग्ध पदार्थ भी इतने जटिल रासायनिक मिश्रण से तैयार हो रहे हैं कि उनका प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव शिशुओं के स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है। इनका उत्पादन करने वाली कंपनियों का एकमात्र ध्येय रुपए कमाना रह गया है। उन्हें नौनिहालों के स्वास्थ्य के प्रति अंशमात्र भी चिंता नहीं है।
पिछले डेढ़ दशक में दुनिया की देखादेखी भारत में भी यह प्रचलन गर्भधारण करने वाली स्त्रियों के संदर्भ में तीव्रता से आया कि प्रसूति के बाद स्त्रियां शिशुओं को अपना दूध पिलाने के प्रति हतोत्साहित हुर्इं। इसके दो प्रमुख कारण थे। पहला, प्रसूता की प्रसूति के उपरांत कमजोर और अस्वस्थ शारीरिक स्थिति। इस परिस्थिति में कोई भी प्रसूता वास्तव में अपने शिशु को स्तनपान कराने योग्य शारीरिक शक्ति नहीं रखती और उसे विवश होकर शिशु के लिए डिब्बाबंद दुग्ध पदार्थों पर निर्भर रहना पड़ता है। दूसरा कारण बहुत ही अजीब है। इसका उल्लेख करने पर स्त्री विमर्शकर्ताओं का टोला अपने कुतर्कों से कहीं इस दूसरे कारण को ही अप्रासंगिक न बना दे, इसका डर है।
दूसरा कारण, जिससे प्रेरित होकर प्रसूताएं शिशुओं को स्तनपान नहीं करातीं, वह है प्रसूता स्त्रियों का अपने शारीरिक सौंदर्य के प्रति अगाध लगाव। पहले कारण में प्रसूता स्त्री वास्तव में समर्थ नहीं होती कि वह नवजात शिशु को अपना दूध पिला सके। शारीरिक कमजोरी और प्रसूति के दौरान की असहनीय पीड़ा के कारण वह प्राकृतिक रूप से दुग्धहीन हो जाती है। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से कहें या विवशता में, नवजात को मां के स्तनपान का अवसर नहीं मिल पाता। लेकिन दूसरे कारण में नवजात बच्चों के प्रति ममतामयी दृष्टि की कमी और मां का अपने शारीरिक सौंदर्य के प्रति अति लालसा रखना ही माता और शिशु के खराब स्वास्थ्य के कारक हैं।
इस स्थिति को डिब्बाबंद दुग्ध उत्पादों (पाउडर, क्रीम, तरल दुग्ध पदार्थ) का व्यापार करने वाली कंपनियां अपने व्यापारिक लाभार्जन के लिए भुनाती हैं। ऐसी कंपनियों ने गर्भधारण, प्रसूति और नवजात शिशु के बारे में विश्व के अधिकांश लोगों की नासमझी और अपूर्ण जानकारी का भरपूर लाभ उठाया और पिछले साठ-सत्तर सालों में उनका इस आधार पर डिब्बाबंद दुग्ध उत्पाद का कारोबार बहुत बढ़ चुका है। विकसित और नियम-कानूनों को कठोरता से लागू करने वाले देशों में तो इन कंपनियों द्वारा अपने दुग्ध खाद्य उत्पाद, शिशुओं के लिए ऐसे देशों द्वारा चिह्नित स्वास्थ्य मानकों के अनुसार तैयार किए जाते रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देशों में इन्होंने अपने स्वास्थ्य मानकों को यहां की लचर सरकारी व्यवस्था के कारण शिथिल कर दिया या कहें इस देश के भ्रष्टाचार के कारण अपने दुग्ध उत्पादों को केवल और केवल लाभार्जन के आधार पर बेचना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप स्वास्थ्य मानक पत्रों तक सीमित रह गए और इनके डिब्बाबंद दुग्ध उत्पादों में मिलावट का स्तर इतने खतरनाक स्तर तक पहुंच गया कि नवजातों के शारीरिक व मानसिक विकास में अवरोध प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगे।
लेकिन विगत दिनों मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिस तरह सरकारी चिकित्सालयों में डिब्बाबंद कंपनियों द्वारा अपने ब्रांड प्रमोशन के अभियान पर प्रतिबंध लगाया है, उस उपक्रम से जच्चा-बच्चा के प्रति सरकारी चिंता उभर कर सामने आती है। उल्लेखनीय है कि स्तनपान अभियान को बढ़ावा देने के नाम पर सरकारी चिकित्सालयों के जच्चा-बच्चा कक्ष में घुसपैठ करने की ऐसी कंपनियों की कोशिश पर अब पूर्ण प्रतिबंध लगने वाला है। सरकार ने स्वीकार किया कि यह अनैतिक काम है और वह इस पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए सभी सरकारी चिकित्सालयों को अधिसूचना भेजेगी। इस संदर्भ में स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड््डा ने कहा कि सरकार स्तनपान को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है। उनके अनुसार स्तनपान अभियान को कमजोर करने के डिब्बाबंद कंपनियों के किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने दिया जाएगा। इस बाबत केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों को भी पत्र लिखा। इसमें बताया गया है कि राज्य अपने यहां चिकित्सालयों में स्तनपान के नाम पर डिब्बाबंद दुग्ध उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के किसी झांसे में न आएं। केंद्र की ओर से आशंका प्रकट की गई कि कंपनियां चिकित्सालय में जच्चा-बच्चा को दी जाने वाली सुविधाओं और चिकित्सालयों पर किए गए किसी आर्थिक उपकार के बदले में वहां अपने प्रचार-प्रसार अभियान के तहत सरकार के स्तनपान अभियान को विफल कर सकती हैं।
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि ऐसी कंपनियों की बाबत कई शिकायतें सरकार को प्राप्त हो चुकी हैं और सरकार ने जब व्यापक स्तर पर इन कंपनियों के डिब्बाबंद दुग्ध उत्पादों की जांच की तो इनमें शून्य स्तर की पौष्टिकता पाई गई। अर्थात ये दुग्ध उत्पाद नवजात शिुशओं के लिए बिलकुल ठीक नहीं हैं। गौरतलब है कि इन कंपनियों ने अनेक सरकारी चिकित्सालयों के परिसर में निशुल्क स्तनपान कक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा था। जबकि स्तनपान को बढ़ावा देने के प्रयास में काफी समय से सक्रिय विशेषज्ञों ने कंपनियों की ऐसी कोशिश को अनैतिक और महिला एवं बाल विकास कानून के इस संदर्भ में विनियमित कानूनों का उल्लंघन भी बताया।
इसी संदर्भ में ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क आॅफ इंडिया (बीपीएनआइ) के संरक्षक डॉ अरुण गुप्ता ने स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा इस विषय पर दिखाई गई तत्परता का स्वागत किया। गुप्ता ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की पीड़ा और चिंता का वर्णन करते हुए सरकार से अनुरोध किया कि वह अपने स्तनपान अभियान को निजी चिकित्सालयों में भी लागू करे ताकि वहां पैदा होने वाले बच्चे डिब्बाबंद दुग्ध उत्पादों के सेवन से विकारग्रस्त न हो जाएं। ऐसी कंपनियां निजी चिकित्सालयों को अपने विज्ञापनों के भ्रमपाश में डाल कर वहां के चिकित्सकों और रोगियों को फांस रही हैं। इसीलिए कुछ समय पहले उन्होंने अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार के लिए निजी चिकित्सालयों से भी संपर्क साधना शुरू कर दिया था। इसके अलावा खाद्य उत्पाद बनाने वाली कुछेक छोटी कंपनियों ने सरकारी चिकित्सालयों के सामने एक प्रस्ताव रखा था।
इस प्रस्ताव के अंतर्गत उन्हें चिकित्सालय में एल्यूमीनियम संरचना और बोर्ड का केवल एक बहुत छोटा-सा अस्थायी कक्ष खड़ा करना था। हालांकि इसकी लागत तो बहुत सामान्य होती, लेकिन यह उनके अपने डिब्बाबंद दुग्ध उत्पाद के प्रमोशन के लिए बहुत उपयोगी होता। कहने का तात्पर्य यह कि कंपनियों के इस व्यावसायिक उपक्रम में कहीं भी जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य वृद्धि के बारे में कोई योजना नहीं थी। ठीक हुआ कि सरकार ने समय रहते ऐसी कंपनियों के व्यापारिक मुनाफे की नीति के अंतर्गत फैलने वाले इनके डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की है, अन्यथा जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य तो खतरे में रहता ही, भारत जैसे देश में सांस्कृतिक अवधारणा के एक मूल उद््देश्य ‘मातृत्व’ पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता।
वैसे जच्चा-बच्चा के प्रति राजकीय चिंता को ध्यान में रखते हुए नवजात शिशुओं के वैकल्पिक दूध पर नियमन के कानून (आइएमएस) में सन 2003 में संशोधन हुआ था। इस कानून के अंतर्गत शिशु खाद्य पदार्थों के किसी भी तरह के विज्ञापन और प्रमोशन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जा चुका है। सरकारी और निजी अस्पतालों में मां-शिशु की अपौष्टिक डिब्बाबंद खाद्य पर निर्भरता को कम करने के उद््देश्य से सरकार ने स्तनपान अभियान जोर-शोर से शुरू कर दिया है। इसके प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले माह यानी अगस्त 2016 से ‘मां’ अभियान शुरू किया है। आशा है लोग इस अभियान से उत्साह के साथ से जुड़ कर इसे सफल बनाएंगे और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के डिब्बाबंद दुग्ध पदार्थों के सेवन से जच्चा-बच्चा को मुक्त करने में अपना-अपना योगदान देंगे।
हम एक वयस्क व्यक्ति से जब अनेक आशाएं लगाते हैं और वह हमारी आशाओं के अनुरूप सफल नहीं होता है तो उसकी अयोग्यता या नाकामी पर झुंझलाने लगते हैं। यहां हम यह नहीं सोचते कि शिशु रहते हुए इस वयस्क को कभी अपनी मां का दूध पीने का अवसर मिला कि नहीं और यदि उसकी मां का दूध उसके लिए उपलब्ध नहीं हो पाया तो उसके लिए वैकल्पिक दूध की व्यवस्था की गई थी या नहीं, ताकि वह समुचित पलने-बढ़ने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व पा सकता। शायद यही सब अनुभव काम कर रहे होंगे केंद्र सरकार की इस नीति के पीछे, जिसके अंतर्गत उसने डिब्बाबंद दुग्ध उत्पाद बनाने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की है। बाजार पर उनके दबदबे को देखते हुए यह आसान नहीं था। अब सवाल इसे कड़ाई से लागू करने का है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इसके लिए अपेक्षित राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देगी। स्तनपान अभियान के साथ ही भारत के बच्चों में कुपोषण का मसला भी उठना चाहिए। दुनिया में कुपोषित बच्चों की सबसे ज्यादा तादाद भारत में है। अनुपात के लिहाज से भी देखें, देश में कुपोषण की व्यापकता बहुत है, चालीस से पैंतालीस फीसद। आखिर ऐसी स्थिति के रहते स्वस्थ भारत का सपना कैसे साकार किया जा सकता है?
