उत्तराखंड हाईकोर्ट ने केंद्र के साथ ही राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए सख्त फरमान जारी किया है कि केंद्र सरकार गंगा के संरक्षण के लिए विशेष कानून बनाए और गंगा के उद्गम से गंगासागर तक के दायरे में आने वाले पांच राज्यों- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल- के लिए आगामी तीन माह के अंदर अंतरराज्यीय परिषद का गठन करे। केवल इतना नहीं, अदालत ने कैग को भी आदेश दिया है कि गंगा को प्रदूषण-मुक्त करने के लिए जारी राशि का आॅडिट कर राष्ट्रपति के समक्ष पेश करे। अदालत ने उत्तराखंड सरकार को विशेष रूप से हिदायत दी है कि उसे गंगा की स्वच्छता और संरक्षण की जिम्मेदारी का निर्वाह विशेष रूप से करना चाहिए, क्योंकि गंगा का उद््गम गोमुख उत्तराखंड में ही है। उत्तराखंड न्यायालय ने पांच प्रदेशों की अंतरराज्यीय परिषद में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी और वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट काउंसिल को शामिल करने का आदेश दिया है। अदालत का विशेष फरमान यहीं तक सीमित नहीं है; उसने प्रदूषण फैलाने वाली हरिद्वार की 180 औद्योगिक इकाइयों को तुरंत बंद करने और इनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने व उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को जरूरी कार्रवाई के निर्देश भी जारी किए हैं। कोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड को सबसे पहले इस तरह की कार्रवाई करनी चाहिए। इसके बाद उन अन्य राज्यों को भी, जहां से गंगा गुजरती है, प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों को सख्ती से बंद करने की पहल करनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी केंद्र व राज्य प्राधिकरणों को आदेश दिया है कि वे गंगा की सफाई के लिए विदेशी तकनीकों के बजाय भारतीय तकनीकों को अपनाएं। एनजीटी ने यह आदेश गंगा की सफाई से जुड़े सात आइआइटी संघों की ओर से गंगा एक्शन प्लान की विफलता के अध्ययन के बाद दिया है। एनजीटी ने यह भी कहा है कि आइआइटी संघों की ओर से अब तक जितनी भी रिपोर्ट वर्ष 2010 के बाद सौंपी गई हैं वे सभी सार्वजनिक की जानी चाहिए। एनजीटी ने कहा है कि अकेले वाराणसी में अस्सी गंगा में 120 मीट्रिक लीटर प्रतिदिन सीवेज की निकासी होती है। ऐसी स्थिति में गंगा व इसकी सहायक नदियों में जाने वाले सीवेज को रोकने के लिए एक विस्तृत योजना तैयार करनी चाहिए। गंगा के आसपास के क्षेत्रों को संरक्षित घोषित करने को लेकर कवायद तो काफी पहले से चल रही थी, पर केंद्र व प्रदेश सरकारों के ढुलमुल रवैए की वजह से इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं हो पा रहा था। लेकिन अब अदालत ने इस मामले में सीधे हस्तक्षेप किया है। इससे निश्चित रूप से एक उम्मीद बंधी है। गंगा में गंदगी फैलाने वालों पर पांच हजार रुपए का जुर्माना लगाने के साथ ही अदालत ने जागरूकता अभियान चलाने और गंगा में साबुन, शैंपू का उपयोग और पशुओं को नहलाने पर भी प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए हैं। प्लास्टिक पर अब तक प्रतिबंध नहीं लगने से भी अदालत नाराजगी जाहिर की है और तुरंत आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए हैं। सच पूछा जाए तो ऐसा आदेश सभी नदियों की बाबत जरूरी है। इसमें कोई शक नहीं कि हमने अपनी कारगुजारियों की वजह से नदियों को वजूद के संकट के कगार पर ला दिया है।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने यों ही इस बार सख्ती नहीं दिखाई है। गंगा नदी भारत और बांग्लादेश में मिलाकर कुल 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती है। गंगा उत्तराखंड में हिमालय से निकल कर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक के विशाल भूभाग को सींचती है। गंगा देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, लोगों की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। गंगा नदी 2,071 किलोमीटर तक भारत और उसके बाद बांग्लादेश में लंबी यात्रा करते हुए सहायक नदियों के साथ 11 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल को उपजाऊ बनाती है। गंगा में मछलियों की 375, 40 सरीसृप और इसके तट पर 48 स्तनधारी प्रजातियां पाई जाती हैं। डाल्फिन की दो प्रजातियों के अलावा गंगा में पाई जाने वाली शार्क की वजह से गंगा को विश्व में काफी प्रसिद्धि मिली है, जिसकी वजह से बाहर के वैज्ञानिकों में भी गंगा के प्रति काफी रुचि रही है। लेकिन जिस तरह से गंगा प्रदूषित हो रही है उससे न केवल भारत सरकार, बल्कि वैज्ञानिक भी बेहद चिंतित हैं। औद्योगिक कचरे के साथ ही प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगाजल को काफी प्रदूषित कर दिया है। गंगा में 3 करोड़ 70 लाख लीटर जल-मल नियमित गिर रहा है। हाल के एक अध्ययन के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 19 फीसद बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगाजल ही है। वर्ष 2007 में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा की जलापूर्ति करने वाले हिमनद के 2030 तक समाप्त हो जाने की आशंका है। वैज्ञानिकों ने यह भी चेताया है कि इसके बाद नदी का बहाव मानसून पर आश्रित होकर मौसमी ही रह जाएगा।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय की सख्ती की वजह समझी जा सकती है। गंगा के तट पर स्थित उद्योग रोजाना 210.8 करोड़ लीटर जल का प्रयोग करते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो गंगातट पर स्थित प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों और गंगाजल के अंधाधुंध दोहन से गंगा के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। वैज्ञानिक काफी पहले यह भी कह चुके हैं कि बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं गंगा की अविरल धारा के मार्ग में बड़ी बाधा हैं। मई 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनी, तो लोगों में काफी उम्मीद जगी कि नई सरकार गंगा सफाई के अपने वादे को तार्किक परिणति तक पहुंचाएगी। इसके लिए नया मंत्रालय बना कर उमा भारती को जिम्मेवारी दी गई। जापान के नदी संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञों को भी गंगा सफाई अभियान में शामिल किया गया। लेकिन केंद्र सरकार की सुस्ती की वजह से जापानी विशेषज्ञों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। सरकार ने दावा बहुत कुछ किया है लेकिन ढाई साल बाद भी धरातल पर ज्यादा कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है। आज गंगा की स्थिति यह है कि यह विश्व की सबसे प्रदूषित नदियों में एक है। कृषि में उपयोग किए जाने वाले करीब दस लाख टन उर्वरक गंगा में मिल जाते हैं। तीन हजार टन कीटनाशक भी गंगा में मिलते हैं। सैकड़ों टन रसायन, कपड़़ा मिलों, डिस्टलरियों, चमड़ा उद्योग, बूचड़खानों, अस्पतालों और सैकड़ों फैक्टरियों का अपद्रव्य गंगा में मिलता है। उत्तराखंड हाइकोर्ट ने भी माना है कि पिछले पंद्रह सालों में गंगा का उद्गम स्थल ढाई हजार मीटर सिकुड़ चुका है। गंगा की सफाई हिमालय क्षेत्र से इसके उद््गम से शुरू करके मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी और अन्य सहायक नदियों में भी होनी चाहिए। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में आक्सीजन की मात्रा कम हो गई है। सीवर के पानी और औद्योगिक कचरे ने क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा बढ़ा दी है। वैज्ञानिकों का स्पष्ट कहना है कि गंगा के पानी में ई-कोली बैक्टीरिया पाया गया है, जिसमें जहरीला जीन है। वैज्ञानिकों ने माना है कि बैक्टीरिया की मुख्य वजह गंगा में इंसानों और पशुओं का मल-मूत्र बहाया जाना है। नदी के जल में भारी धातुओं की मात्रा 0.01 से 0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय के निर्देश पर केंद्र और राज्य सरकारें सख्ती से अमल करेंगी, ताकि गंगा संरक्षण और सफाई अभियान के बेहतर परिणाम सामने आ सकें।