राजू पांडेय

अब आम आदमी का धन क्या बैंकों में सुरक्षित नहीं रहेगा? एफआरडीआइ विधेयक की बाबत इस सवाल पर चर्चा जारी है। सामान्यतया बैंक और उसके जमाकर्ताओं के हित परस्पर विरोधी नहीं होते, पर जब उद्योगपतियों को दिए गए विशाल कर्जों की माफी के लिए ‘बेलआउट पैकेज’ और इस कारण दिवालियेपन के कगार पर पहुंचे बैंकों को बचाने के लिए ‘बेल इन’ का सहारा लिया जाता है तब बैंकों और जमाकर्ताओं के हितों में टकराव पैदा हो जाता है। देश के 63 प्रतिशत नागरिकों ने अपने धन की सुरक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर भरोसा किया है। निजी क्षेत्र के बैंकों पर विश्वास करने वाले भारतीयों की संख्या भी कम नहीं है- लगभग 18 प्रतिशत। इन बैंकों में भारतीय नागरिकों के धन की सुरक्षा के प्रावधान अब भी बहुत सशक्त नहीं हैं। वर्तमान में ‘डिपाजिट इंश्योरैंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन’ के माध्यम से जमाकर्ताओं को एक लाख रुपए तक की गारंटी मिलती है, चाहे उनकी जमा राशि कितनी भी अधिक हो। एफआरडीआइ बिल यानी फाइनेंसियल रेसोल्यूशन ऐंड डिपाजिट इंश्योरैंस बिल दरअसल घाटे में चल रही वित्तीय संस्थाओं के भविष्य को निर्धारित करने के लिए एक रेसोल्यूशन कॉरपोरेशन बनाने से संबंधित है जो रिजर्व बैंक के स्थान पर इनके विषय में निर्णय लेगा।

इस विधेयक में यह भी प्रस्तावित है कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक घाटे या दिवालियेपन की दशा में यह निर्धारित कर सकेंगे कि उन्हें अपने ग्राहकों की कितनी जमा राशि वापस करनी है और इसका स्वरूप क्या होगा। हो सकता है कि वे अपने ग्राहकों का धन दीर्घावधि जमा (फिक्स्ड डिपाजिट) या बांड्स के रूप में लौटाएं जिनका भुगतान लंबी परिपक्वता अवधि के बाद लिया जा सकेगा। संभव है कि जन असंतोष को देखते हुए सरकार रिजर्व बैंक कर्मचारी संघ की उस मांग को अंशत: मान ले कि गारंटी की राशि को दस लाख रुपए तक बढ़ा दिया जाए। पर मूल मसला तब भी बरकरार रहेगा। यह मसला है लोगों की जमा राशि पर सरकार और बैंकों के नियंत्रण का, जरूरत पड़ने पर निकासी के अधिकार से उन्हें वंचित करने का, रिजर्व बैंक के अधिकारों में कटौती का और आम आदमी के पैसे का उपयोग उद्योगपतियों को दिए गए न वसूले जा सकने वाले कर्ज के कारण बैंकों को होने वाले घाटे की भरपाई के लिए करने का।

सरकारी बैंकों का एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) इस समय 6 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। इस ‘बैड लोन’ में एसबीआइ की हिस्सेदारी 1 लाख 88 हजार करोड़ रुपए की है। सरकार कॉरपोरेट घरानों को दिए गए कर्ज के कारण दिवालियेपन की ओर अग्रसर बैंकों की समस्याओं के समाधान की खातिर आम लोगों के धन का उपयोग करने के लिए लालायित रही है, और पहले भी पेंशन फंड की राशि का उपयोग इस प्रयोजन के लिए करने की उसकी कोशिशें भारी विरोध के कारण मुल्तवी हो गर्इं। पहले के उदाहरण यह बताते हैं कि जब-जब बैंकों को ऐसे विशेषाधिकार मिले हैं जो ग्राहकों के हितों का अतिक्रमण करते हैं तब-तब इनका दुरूपयोग ही हुआ है।

1882 में डाकघर बचत बैंक के अस्तित्व में आने के साथ ही प्रारंभ हुई इन योजनाओं को स्वतंत्र भारत में और महत्त्व मिला। केंद्र सरकार द्वारा डेढ़ लाख डाकघरों और सार्वजनिक बैंकों तथा कुछ चुनिंदा प्राइवेट सेक्टर बैंकों की 8 हजार शाखाओं तथा 5 लाख अल्प बचत अभिकर्ताओं के जरिए चलाई जाने वाली ये लघु बचत योजनाएं केंद्र सरकार के ‘ट्रेजरी बैंकिंग आॅपरेशन्स’ के अंतर्गत आती हैं और इन पर सेबी व रिजर्व बैंक जैसे नियामकों का नियंत्रण नहीं होता। इनके शुद्ध संग्रह (नेट कलेक्शन) का उपयोग केंद्र्र व राज्य सरकारों द्वारा घाटे के वित्तीय प्रबंधन में किया जाता है। यह राशि आरवी गुप्ता समिति की सिफारिशों के आधार पर 1999-2000 में गठित राष्ट्रीय लघु बचत कोष में रखी जाती है जो सरकार के लोक लेखा (पब्लिक एकाउंट्स) का एक भाग है। ये अल्प बचत योजनाएं लघु और मध्यम आय वर्ग के नौकरीपेशा और व्यापारी जनों, घरेलू महिलाओं, मजदूरों तथा किसानों व वरिष्ठ नागरिकों के वित्तीय प्रबंध (फाइनेंसियल प्लानिंग) का एक महत्त्वपूर्ण भाग रही हैं और इनके जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम- शादी, संतानोत्पत्ति, शिक्षा, गृह निर्माण व वृद्धावस्था प्रबंधन- आदि इन योजनाओं के इर्दगिर्द बुने जाते रहे हैं।

सरकार अल्प बचत योजनाओं पर ऊंची दरों से मिलने वाले ब्याज का ‘युक्तियुक्तकरण’ करने की ओर तेजी से अग्रसर है। अल्प बचत योजनाओं और बैंक जमा के बीच ब्याज के अंतर को मिटाने की चेष्टा हो रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्याज दरें बराबर होंगी तो बैंकों में निवेश बढ़ेगा। कहा जा रहा है कि बैंकों में जमा धन अधिक गतिशील होता है। इसका उपयोग ऋण देने व अन्य आर्थिक औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए होता है। अल्प बचत योजनाओं में ब्याज दरों में कमी आने पर लोग म्युचुअल फंड्स और शेयर बाजार में निवेश करेंगे जिससे बाजार में मजबूती आएगी। लोगों को निवेश के नए विकल्प मिलेंगे, आदि आदि।

यह तर्क कि अधिक ब्याज दर के कारण लोग अल्प बचत योजनाओं की ओर आकर्षित होते हैं और बैंक जमा में कमी आ रही है, तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। मार्च 2013 के अंत में अनुसूचित व्यावसायिक बैंकों का कुल जमा 7428200 करोड़ रुपए था जबकि इसी समय लघु बचत योजनाओं में जमा राशि इस राशि के लगभग दसवें भाग के बराबर 814545 करोड़ रुपए थी। वैसे भी, नोटबंदी के बाद सरकारी दावों के अनुसार भी बैंकों के पास पर्याप्त पैसा है।
अल्प बचत योजनाओं की ब्याज दरों को ‘फिक्स्ड इनकम मनी मार्केट ऐंड डेरिवेटिव्स एसोसिएशन आॅफ इंडिया’ के द्वारा निर्धारित गवर्नमेंट सिक्युरिटीज की ब्याज दरों के आधार पर तय किया जाना है। इन दरों की जानकारी इस संस्था द्वारा शुल्क लेकर अपने सदस्य बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को ही उपलब्ध कराई जाती है। जब आम निवेशक की जमा राशि को बाजार दरों के अनुसार हर तीसरे महीने समायोजित किया जाना तय है तो इन दरों की जानकारी उसे भी अवश्य ही नि:शुल्क उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

राष्ट्रीय लघु बचत कोष को भी अब गैरजरूरी बताया जा रहा है। सरकार समर्थक अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि यह कोष बजट से अतिरिक्त होता है और इसकी जवाबदेहियां राजकोषीय प्रबंधन में सम्मिलित नहीं होतीं इसलिए इसके आय और व्यय में बड़ी विसंगति मौजूद है। राज्य भी इस कोष से विवशता में ऋण लेते हैं और अवसर मिलने पर वे बाजार से ऋण लेना उचित समझेंगे। अत: इस कोष को बनाए रखने का औचित्य नहीं है। यह भी बताया जा रहा है कि कम ब्याज दरें भी ज्यादा लाभ (रिटर्न) दे रही हैं क्योंकि महंगाई कम है। आम आदमी को समझाया जा रहा है कि उसकी छोटी-छोटी बचतों पर दिया जाने वाला ब्याज देश को कैसे पीछे धकेल रहा है।

उसे निश्चित सुरक्षित रिटर्न देना अब संभव नहीं है और अब उसे अपनी जमाराशि को बाजार की ताकतों को सौंपना होगा।
2003 की राजग सरकार के समय प्रारंभ हुआ नेशनल पेंशन सिस्टम यूपीए के कार्यकाल में फला-फूला और अब पुन: राजग के दौर में परवान चढ़ रहा है। यह सरकार को अपने कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद सुनिश्चित पेंशन देने की जरूरी जिम्मेदारी से छुटकारा दिलाने का उपाय तो था ही, पर इससे भी ज्यादा चिंताजनक था इन कर्मचारियों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्र के लाखों मजदूरों, किसानों, छोटे व्यापारियों और गृहणियों की खून-पसीने की कमाई का निवेश इसके माध्यम से असुरक्षित शेयर बाजार में कराना। लातिन अमेरिकी देशों और कुछ यूरोपीय देशों में इसकी विफलता से सबक लेने के बजाय प्रेरणा ही ली गई है।