भारत अकेला देश है जहां एक मोबाइल टावर से जुड़ कर एक वक्त में चार सौ लोग बात कर रहे होते हैं। चीन में यह संख्या किसी भी समय दो-तीन सौ से ज्यादा नहीं होती, जबकि आबादी में वह हमसे आगे है। सिर्फ बात ही नहीं, अब तो मोबाइल इंटरनेट का बोझ भी ये टावर उठा रहे हैं। ऐसे में बातचीत का बीच में ही टूट जाना यानी कॉल ड्रॉप का वह मर्ज बदस्तूर जारी है, जिसके लिए सरकारें पिछले कई सालों से दावे करती रही हैं कि इस मामले में दूरसंचार कंपनियों की एक नहीं सुनी जाएगी और उन्हें उपभोक्ताओं के हित को सर्वोपरि मानते हुए हर हाल में इस समस्या का इलाज निकालना होगा।

दूरसंचार कंपनियों ने सरकार से कॉल ड्रॉप को रोकने के लिए चौहत्तर हजार करोड़ रुपए के निवेश का वादा किया है। हाल में बुलाई गई एक बैठक में ज्यादातर बड़ी दूरसंचार कंपनियों ने मोबाइल टावरों की संख्या बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करने की बात कही है। पर जितने लंबे-चौड़े वादे कंपनियां करती हैं और सरकार इन पर सख्ती बरतने के जैसे तीखे तेवर दिखाती है, आम ग्राहकों का अनुभव बताता है कि कॉल ड्रॉप के मामले में स्थितियां जरा भी बेहतर नहीं हुई हैं। इसके उलट, दूरसंचार कंपनियां कॉल ड्रॉप को जायज ठहराने वाले नित नए बहाने बनाती रही हैं। ताजा बहाना यह है कि कुछ मोबाइल सेट मानकों के अनुरूप नहीं हैं, जिसकी वजह से आवाज कमजोर या बहुत धीमी होने की समस्या बढ़ गई है। इसी तरह मोबाइल नेटवर्क में सिग्नल मजबूत करने वाले गैरकानूनी उपकरण (रिपीटर) के दखल की वजह से भी समस्या बढ़ने की बात दूरसंचार कंपनियों ने कही है। रिपीटर ठीक वैसा ही है जैसे कोई टुल्लू पंप लगाकर पानी खींच ले और अगल-बगल के लोग पाइप लाइन होते हुए भी इस कारण पानी से वंचित रह जाएं। पिछले साल ट्राई ने दिशानिर्देश जारी कर कहा था कि अगर कोई आॅपरेटर लगातार तीन तिमाहियों में कॉल ड्रॉप के लिए तय मानकों पर खरा नहीं उतरता है तो उस पर डेढ़ लाख रुपए से दस लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया जाएगा। अगर कोई आॅपरेटर लगातार तिमाहियों में कॉल ड्रॉप के मानकों को पूरा करने में विफल रहता है तो जुर्माना राशि बढ़ती जाएगी और अधिकतम जुर्माना दस लाख रुपए तक रहेगा। पर आपरेटरों के रवैए से लगता है कि ट्राई भी इस किस्म की साजिश में शामिल है, वरना वह अपने पिछले सख्त निर्देशों पर अमल क्यों नहीं करता?

कॉल ड्रॉप से निपटने के लिए अक्सर सरकार ऐलान करती रही है और अदालतें इस बारे में व्यवस्था देती रही हैं, लेकिन हर इलाज के साथ मर्ज बढ़ता ही गया। ऐसे आदेशों के खिलाफ दूरसंचार कंपनियां टावरों की कमी का रोना लेकर बैठ जाती हैं। देखा जाए तो अब मोबाइल कंपनियों के पास काफी ज्यादा स्पेक्ट्रम है, इसलिए उनके पास सेवा की गुणवत्ता सुधारने को लेकर कोई बहाना नहीं होना चाहिए। लेकिन निजी दूरसंचार कंपनियों ने साबित किया है कि हर मामले में उनके अपने हित सर्वोपरि हैं, ग्राहक के हित नहीं। पिछले साल संचार मंत्रालय से संबंधित स्थायी समिति ने कॉल ड्रॉप पर संसद में जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें साफ कहा गया था कि इस समस्या के लिए सरकार, दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) और निजी दूरसंचार कंपनियां- तीनों ही जिम्मेदार हैं।

सरकार और ट्राई नियम-कायदों पर गंभीरता से ध्यान नहीं देते, वे एकतरफा फैसले-जुर्माने सुझाते हैं और दूरसंचार कंपनियां उनकी अनदेखी करके धांधली पर धांधली किए जाती हैं। हालात ये हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में ही ट्राई ने समय-समय पर कॉल ड्रॉप संबंधी गुणवत्ता के जो परीक्षण किए हैं, उसमें ज्यादातर मोबाइल आॅपरेटर कंपनियां नाकाम साबित हुई हैं। जैसे एक परीक्षण दिल्ली में दो साल पहले किया गया था, जिसमें कॉल ड्रॉप से जुड़े एक और घपले का खुलासा हुआ था। पता चला था कि ये कंपनियां कॉल ड्रॉप पर परदा डालने के लिए रेडियो लिंक टाइमआउट (आरएलटी) जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल से कॉल के बीच में कट जाने अथवा दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं सुनाई देने के बावजूद कनेक्शन जुड़ा हुआ रहता है और इसके लिए कॉल करने वाले का बिल तब तक बढ़ता रहता है, जब तक कि वह परेशान होकर खुद फोन न काट दे। चूंकि ऐसी स्थिति में ग्राहक खुद फोन काटता है, इसलिए मोबाइल कंपनियों पर कॉल ड्रॉप का आरोप नहीं लगता।

जब देश के करोड़ों मोबाइलधारकों को लगातार कॉल ड्रॉप का सामना करना पड़े और सेवा की गुणवत्ता सुधारने के नाम पर उनसे धोखाधड़ी की जाए, तो सवाल पैदा होता है कि आखिर इस समस्या का हल कब निकलेगा! कॉल ड्रॉप यानी मोबाइल पर बात करते या मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल करते वक्त नेटवर्क अचानक गायब हो जाना बड़े शहरों में एक आम समस्या है। इसकी अहम वजह है नेटवर्क मुहैया कराने वाले मोबाइल टावरों का नदारद होना। दिल्ली में ही कुछ इलाके तो ऐसे हैं, जहां किसी भी दूरसंचार कंपनी का मोबाइल टावर नहीं है, जैसे यमुना नदी के किनारे वाले क्षेत्र। जमीन के ऊपर ही नहीं, भूमिगत मेट्रो में भी ऐसी ही समस्या बेहद आम है क्योंकि वहां भी ज्यादातर दूरसंचार कंपनियों के टावर मौजूद नहीं हैं। मूलत: मोबाइल टावरों की कमी ही इस समस्या की अहम वजह है। इस कारण कई बार उन इलाकों में भी कॉल ड्रॉप की समस्या पैदा होती है जहां टावर तो मौजूद हैं, पर वे उतनी संख्या में नहीं हैं जितनी कि जरूरत है।

घनी आबादी वाले इलाकों में मोबाइल कंपनियों ने टावर लगाए हैं, पर उनकी क्षमता से ज्यादा कनेक्शन बांट दिए हैं। ऐसे में मोबाइल ट्रैफिक ज्यादा होने की वजह से कॉल ड्राप और ब्लॉक होने की समस्या होती है। मौजूदा समय में दिल्ली में करीब पैंतीस हजार मोबाइल टावर हैं जबकि पचास हजार से अधिक की जरूरत है। पूरे देश के संदर्भ में इस समस्या को देखें, तो देश में अब तक सिर्फ सवा चार लाख टावर लगाए जा सके हैं। जबकि बेहतर मोबाइल सेवाओं के लिए देश में अभी कम से कम डेढ़ से दो लाख टावर और लगाए जाने की जरूरत है। साफ है कि मोबाइल कंपनियों ने ज्यादा कमाई के लालच में कनेक्शन तो बांट दिए, लेकिन उपभोक्ताओं को बेहतर सेवाएं देने का कोई प्रबंध नहीं किया।

अब, जबकि लंबे अरसे से देश का आम मोबाइल उपभोक्ता सरकार और मोबाइल कंपनियों की तरफ इस उम्मीद से देख रहा है कि वे इस समस्या का कोई न कोई हल अवश्य सुझाएंगे, तब अफसोसनाक तरीके से ये दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते नजर आ रहे हैं। ये समस्या सुलझाने की बजाय आपस में इस बहस में उलझे हैं कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है। दूरसंचार कंपनियां कह रही हैं कि सरकार ने जरूरत के मुताबिक टावर लगाने में उनकी कोई मदद नहीं की। हालत यह है कि सरकारी इमारतों-कालोनियों और सेना के छावनियों में वे कोई टावर नहीं लगा सकतीं। दूरसंचार कंपनियां यह भी कहती हैं कि सरकार डिजिटल इंडिया का नारा तो लगा रही है, लेकिन उसने दूरसंचार सेवाओं को बिजली-पानी की तरह जरूरी सुविधाओं के तौर पर नोटिफाई नहीं किया है। उधर, सरकार के भी अपने तर्क हैं। जैसे सरकार कहती है कि कंपनियां इस बारे में अक्सर स्पेक्ट्रम की कमी का हवाला देती हैं, जबकि इस वक्त मोबाइल कंपनियों के पास काफी स्पेक्ट्रम है, ऐसे में वे सेवा क्वॉलिटी सुधारने की बजाय बहानेबाजी कर रही हैं। ऐसे तर्क देने वाली कंपनियों से सख्ती से पूछा जाना चाहिए कि यदि वे उपभोक्ता हितों पर निवेश नहीं करना चाहती हैं, तो अपने लिए कोई दूसरा व्यवसाय क्यों नहीं खोज लेती हैं।