मनीष जैसल
नई शिक्षा नीति, 2020 के कई सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों के बीच देश के नीति-निर्माताओं को वर्तमान चुनौतियों को भी शामिल करना चाहिए। हालत यह है कि देश में मीडिया शिक्षा को सौ से अधिक वर्ष होने के बावजूद लोग एक खूब प्रचारित संदेश से खून-खराबा करने वाले नागरिकों में शामिल दिखने लगते हैं। भारत जैसा एक बड़ा लोकतांत्रिक देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने की दिशा में प्रयासरत है, इससे सुखद यहां के नागरिक के लिए भला क्या होगा!
देश के हर विद्यार्थी अपनी विशिष्ट क्षमता, पहचान के साथ अपना सर्वांगीण विकास करते हुए बुनियादी साक्षरता और अवधारणात्मक समझ विकसित करे, इसी लक्ष्य को लेकर भारत सरकार ने पिछले वर्ष नई शिक्षा नीति को लागू करने का निर्णय लिया था। बहुआयामी बताई जाने वाली यह कार्य योजना 2015 में अपनाए गए सतत् विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य चार, जिसमें वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा प्रस्तावित है, उसे ध्यान में रखकर बनाई गई। इसमें 2030 तक सभी के समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने की बात स्वीकारी गई है।
किसी भी स्वस्थ समाज का आकलन उस समाज में विद्यार्थियों के लिए सुलभ शिक्षा व्यवस्था की उपलब्धता से लगाया जा सकता है। देश को दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान देने वाले डा भीमराव आंबेडकर अपने छात्र जीवन में इसी व्यवस्था के संकट से जूझे थे। बावजूद इसके दुनिया के नामी व्यक्तित्व में अपने कर्म से चर्चित हुए। नई शिक्षा नीति की शुरुआत में स्पष्ट किया गया है कि इसमें लचीलापन, बहुभाषिकता, नैतिकता, मानवीयता, संवैधानिक मूल्य, जीवन कौशल, भारतीयता की जड़ों से जुड़ाव आदि को प्रमुखता से अपनाया जाएगा। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं के साथ कोरियाई, जर्मन, पुर्तगाली, रूसी और अन्य विदेशी भाषाओं के अध्ययन की भी व्यवस्था होगी, जिससे वैश्विक परिदृश्य को एक विद्यार्थी संबंधित भाषा में समझ सके।
नई शिक्षा नीति, 2020 के निर्माण में जिन बातों को प्रमुखता से रखा गया है, उनमें से एक है कक्षा एक से ही बच्चों को शब्द, ध्वनि, रंग, आकार, संख्या आदि का ज्ञान देना। निजी विद्यालयों द्वारा ली जाने वाली महंगी फीस के एवज में स्कूल द्वारा स्मार्ट कक्षा में तो इसमें से बहुत कुछ विद्यार्थियों को सिखा पाना संभव है, लेकिन सरकारी स्कूल की खस्ताहाल व्यवस्था के बीच सरकार इस बिंदु को कैसे देखती है, यह स्पष्ट होना चाहिए। आज भी देश में ‘स’, ‘श’ और ‘ष’ के बीच अंतर को एक प्राथमिक का अध्यापक किस विधा से विद्यार्थियों को समझाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। सरौता वाला ‘स’ और षट्कोण वाला ‘ष’ के बीच उलझा हुआ अध्यापक शब्द ध्वनि को उस प्राथमिक की कक्षा में जब तक सही तरीके से अभिव्यक्त नहीं करेगा, बड़ा होकर विद्यार्थी भारतीय भाषाओं का अच्छा अध्येता कैसे बनेगा। वहीं ध्वनियां, रंग और आकार के लिए अध्यापक को वह मूलभूत जरूरतें क्या सरकार उपलब्ध करा पाएगी, जिससे वह कक्षा एक के विद्यार्थी को इस तकनीकी युग में समझा सके?
जब यह नई शिक्षा नीति बन कर तैयार थी, उसी समय देश में कोरोना का कहर हमारे बीच आ गया। नतीजतन, जहां विद्यालय के बीस फीसद बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे, वहीं उनकी संख्या अस्सी फीसद तक हो गई। करीब दो सालों से स्कूल पूरी तरह खुले नहीं हैं। सरकारी स्कूल के अध्यापकों की अपनी क्या नैतिक जिम्मेदारी उन विद्यार्थियों के अध्ययन की सक्रियता को बनाए रखने की रही है, यह शोध का विषय है। एक पहलू यह भी है कि जब से कोरोना महामारी फैली है, सरकारी अध्यापक जैसे दूसरे विभागों के सहायक के रूप में लग गए हैं। वे उन वर्ग समूहों में अध्यापन करते हैं, जहां डिजिटल मीडिया की पहुंच का फीसद काफी गिरा हुआ है।
नई शिक्षा नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण चर्चा का विषय यह बिंदु भी है कि कक्षा छह से आठ में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को दस दिन के बस्तारहित कक्षा में भाग लेने और उसमें स्थानीय व्यावसायिक कार्य जैसे बढ़ई, माली, कुम्हार के अलावा अन्य घरेलू औजार से जुड़े कामों में दक्ष होने की बात कही जा रही है। यहां गौरतलब है कि प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में अधिकतर मजदूर, किसान और निम्न मध्य वर्ग परिवारों के होते हैं। ऐसे में उनके इन कामों को सीखने के बाद क्या गारंटी है कि उनके परिवार के लोग, जो खुद दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं, वे उन्हें उन्हीं कामों में नही लगा देंगे? कहीं न कहीं यह बाल श्रम के अधिकारों के हनन को बढ़ावा देने जैसा प्रतीत हो रहा है। दूसरा पहलू यह भी है कि अगर यह पाठ्यक्रम देश के सभी स्कूल में समान रूप से लागू हो और इसमें सरकारी नौकरी प्राप्त व्यक्ति के परिवार के एक विद्यार्थी का नामांकन सरकारी स्कूल में अनिवार्य हो तो इसमें सुधार की गुंजाइश बढ़ जाएगी। अन्यथा यह एक तरह से वर्ण व्यवस्था को आगे बढ़ाने जैसा प्रतीत होता दिखता है। बढ़ई का लड़का बढ़ई, मोची का लड़का मोची बन कर वह परिवार को चलाता रहेगा।
नई शिक्षा नीति का एक और पहलू बेहद चिंताजनक है। स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर नई शिक्षा नीति में स्पष्ट रूप से कहा गया कि विशेषकर ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े लोग शिक्षण के पेशे में आएं। इसके लिए चार वर्षीय बीएड पाठ्यक्रम शुरू होगा। देश में अभी भी लाखों बीएड, बीटीसी और अन्य शिक्षक बनने की अनिवार्यता लिए लोग घूम रहे हैं, सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे में एक और नई अर्हता से शायद कुछ समय तक इस प्रश्न को सरकार टालना चाहती दिखती है।
नई शिक्षा नीति समग्र विकास की बात करते हुए यह कह कहना चाह रही है कि अतिरिक्त पाठ्यक्रम के तौर पर दूसरे विषयों को पढ़ा जाए, उनके ग्री-डिप्लोमा आदि लिए जाएं। ज्ञान के अर्जन के हिसाब से इस फैसले का कोई तोड़ नहीं, लेकिन जब देश में बेरोजगारी चरम पर है, ऐसे में शिक्षा के समान अवसर जैसे-तैसे मिल जाने के बावजूद देश में विशेष अभियान के तहत वर्ग विशेष की रिक्तियों को भरा जा रहा हो तो कई सवाल खड़े होते हैं।ज्ञान के परिदृश्य में पूरा विश्व बहुत तेजी से बदल रहा है।
देखा जा सकता है कि किस तरह ‘बिग डेटा’, ‘मशीन लर्निंग’ और ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ यानी कृत्रिम बौद्धिकता जैसे विषय इन दिनों प्रगति कर रहे हैं। जैसे एक समय में कंप्यूटर हार्डवेयर और साफ्टवेयर की बाढ़ आ गई थी, वैसे ही इन दिनों डेटा साइंस, कम्यूटर साइंस और गणित जैसे विषयों की तरफ रुझान बढ़ना शुरू हुआ है। उनके भविष्य में रोजगार और इन्हीं विषयों के डिग्रीधारियों के भविष्य को लेकर कोई फार्मूला अगर सरकार ने नहीं बनाया है तो जल्द से जल्द इस पर अमल कर लेना चाहिए।
बात उच्च शिक्षा में नई शिक्षा नीति, 2020 की करें तो गुणवत्तापूर्ण विश्वविद्यालय और महाविद्यालय को लेकर सरकार का जो भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण है, वह नई नीति से स्पष्ट होता नहीं दिख रहा। इक्कीसवीं सदी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए जिन चिंतनशील, बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनात्मक व्यक्तियों को तैयार करने के प्रति नई शिक्षा नीति बनी है, उसमें हमारा तंत्र नाकाम होता दिखेगा। देश के किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति का अनुभव सच का बयान करते हैं।
कई समस्याएं हैं, जिनके निराकरण के लिए ठोस कदम उठाया जाना जरूरी है। सवाल है कि वर्तमान में जिन चुनौतियों से मानव संसाधन मंत्रालय और शिक्षा विभाग के साथ विद्यार्थी और शिक्षक जूझ रहे हैं, उनके मत कहां हैं? सीधे तौर पर नई शिक्षा नीति, 2020 के कई सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों के बीच देश के नीति-निर्माताओं को वर्तमान चुनौतियों को भी शामिल करना चाहिए। हालत यह है कि देश में मीडिया शिक्षा को सौ से अधिक वर्ष होने के बावजूद लोग एक खूब प्रचारित संदेश से खून-खराबा करने वाले नागरिकों में शामिल दिखने लगते हैं।