विकास नारायण राय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की पुलिस-व्यवस्था के साथ भी नारेबाजी वाला सलूक कर रहे हैं। कुछ वैसे ही जैसे महंगाई, रोजगार, सबका विकास, सांप्रदायिक-सद्भाव, उत्पादकता, काला धन, सीमा प्रबंधन, स्त्री सशक्तीकरण के नाम पर राजनीतिक नारेबाजी को उनके शासन में नीतिगत स्थापनाओं की तरह पेश किया जा रहा है। आंतरिक सुरक्षा और कानून-व्यवस्था की तमाम गंभीर चुनौतियों को आतंकवाद, अतिवाद और अलगाववाद के सांचे में हिंदू राष्ट्रवादी चश्मे से देखने की भाजपाई जिद का शिकार रहे मोदी ने, देश के शीर्ष पुलिस सम्मलेन में इनका निराकरण भी आदतन एक मसीहाई नारे में समेट दिया है- ‘स्मार्ट पुलिसिंग’।
‘स्मार्ट’, मोदी का पुलिस मार्गदर्शन के लिए गढ़ा पर्याय है। जिन पुलिस वालों की रिहायशी बैरकें, कामकाजी थाने और गश्ती पलटनें उन्नीसवीं शताब्दी की याद दिलाएं, जिनके हाथों में सौंपे कानून औपनिवेशिक अंदाज के हों, जिनकी कार्यप्रणाली भ्रष्टाचार और सत्ताचार पर टिकी हो, उन्हें इस लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री महज वाकपटुता की ‘स्मार्ट’ पॉलिश से चमकाना चाहता है। उसकी कवायद में न मनमानी पुलिस के नागरिक-संवेदी होने की अनिवार्यता शामिल है और न सामंती कानूनों को लोकतांत्रिक रुझान देने की प्राथमिकता।
28 से 30 नवंबर को गुवाहाटी में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पुलिस मुखिया और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के प्रमुखों के उनचासवें वार्षिक सम्मलेन में मोदी की ‘स्मार्ट’ पुलिस छाई रही। बकौल मोदी- एस से स्ट्रिक्ट और सेंसिटिव, एम से मॉडर्न और मोबाइल, ए से एलर्ट और एकाउंटेबल, आर से रिलायबल और रिस्पांसिबल, टी से टेक्नो-सेवी और ट्रेंड। इस शासकीय घुट््टी में तीन अन्य रस्मी आयामों को मिलाया गया- दक्ष गुप्तचर नेटवर्क, बेहतर पारिवारिक कल्याण और शहीदों की प्रेरक स्मृति। बिना किसी रूपरेखा के पेश किया गया ‘स्मार्ट’ पुलिसिंग का यह खाका, दक्षता और सक्षमता के प्रचलित तत्त्वों की प्रशासनिक शब्दावली का घालमेल है। खालिस नौकरशाही स्वाद की इस मोदी-खिचड़ी से जनता की ‘कानून के शासन’ की भूख तो क्या तृप्त होगी, खुद पुलिस का असाध्य औपनिवेशिक अपच भी पूर्ववत कायम रहेगा।
निर्णय क्षमता के धनी मोदी से असहमत लोग भी मानेंगे कि मनमोहन सिंह के स्पंदनहीन शासन के बाद उनकी धड़कती शैली ने सरकारी अमले में ऊर्जा का एकबारगी संचार तो किया है। ज्वलंत पुलिस मुद्दों को लेकर भी उनसे पुलिस सम्मलेन में किसी न किसी करतब की प्रतीक्षा अवश्य रही होगी।
हालांकि, मुनाफा बाजार को सामाजिक विकास की पूर्व शर्त बनाने में लगे शासक वर्ग के सरोकारों में लोकोन्मुख पुलिस की अवधारणा का सतही समावेश ही संभव रहा है। मनमोहन सिंह ने भी यूपीए दौर में पुलिस प्रणाली में बदलाव के नाम पर आधा दर्जन पुलिस मिशन बना डाले थे, जिनकी समीक्षा की वार्षिक रस्म अदायगी भी सम्मेलन-दर-सम्मेलन की जाती रही। इस बार मोदी के सलाहकारों ने उन मोटी फाइलों से धूल उतारना भी जरूरी नहीं समझा।
जाहिर है, लोकतांत्रिक आकांक्षाओं पर खरी, एक ‘अच्छी’ पुलिस की दिशा में सार्थक राजनीतिक पहल के लिए भारतवासियों को लंबी प्रतीक्षा करनी होगी। हां, पुलिस नौकरशाही अपने आकाओं को संतुष्टि प्रदान करने वाली ‘स्मार्ट’ भाषा को बखूबी समझती है। स्मार्ट यानी पेशेवर कौशल में दक्ष ऐसी पुलिस, जो कानून के शासन की छवि के अनुरूप आंकड़ा-प्रबंधन में माहिर हो। तभी देश में घटिया से घटिया शासन-तंत्र के पास भी अच्छी से अच्छी कानून-व्यवस्था की दावेदारी के आंकड़े होते ही हैं। जबकि एक लोकतंत्र-संवेदी सक्षम पुलिस, जो किसी लोकशाही में स्वाभाविक होनी चाहिए, जन-मारीचका बनी रहती है।
हालांकि, भूलना नहीं चाहिए कि बतौर मुख्यमंत्री भी पुलिसिंग, मोदी की दुखती रग रही। उनके बारह वर्ष के शासन में, गुजरात में सांप्रदायिक दंगे, फर्जी मुठभेड़ें और निगरानी स्कैंडल खुद मोदी के लिए भी व्यक्तिगत रूप से बवाले-जान बने रहे। पारंपरिक रूप से बेहतर कानून-व्यवस्था वाले इस प्रदेश की पुलिस सत्ताधारियों के सांप्रदायिक राग पर नाचने वाली, टूटे मनोबल की एक नेतृत्वविहीन संस्था बना दी गई। एक बहुलतावादी समाज में राजनीतिक ध्रुवीकरण के विभाजक प्रयोग को पुलिस के दैनिक काम-काज में उतार कर हिंदुत्ववादी लंपटता को बेखौफ कर दिया गया। मोदी के अंतरंग गृहमंत्री अमित शाह की निरंकुशता तले बरसों तक राज्य में नियमित डायरेक्टर जनरल पुलिस नहीं लगाया जा सका, जबकि बंजारा जैसे अपराधी अफसर-गिरोहों की मनमानी खुले राजनीतिक संरक्षण में चलती रही। अनुभव बताते हैं कि अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को हिंदुस्तानी कॉडर उपलब्ध कराने में यह आबो-हवा खूब रास आई। फिलहाल, प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की पुलिस शुरुआत भी उत्साहवर्धक संकेत नहीं देती।
सामान्यतया राष्ट्रीय राजधानी में आयोजित होने वाले विचार-विमर्श के शीर्ष पुलिस संस्करण का इस बार अशांत पूर्वोत्तर में बिरला आयोजन जरूरी नहीं था कि बस रस्म अदायगी का मंच बन कर रह जाए। कानून-व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के उद्वेलित परिदृश्य में जन-अनुरूप अवधारणाओं को रेखांकित किया जाना केंद्र में नई सरकार के ‘सबका साथ सबका विकास’ बेंचमार्क के भी अनुरूप होता।
खासकर, क्योंकि पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी का शीर्ष पुलिस नेतृत्व को यह पहला संबोधन था। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री पुलिस-छवि को बजाय लोकतांत्रिक आईने में देखने के, फिल्मी आईने में देखने पर आमादा नजर आया। पुलिस की नकारात्मक छवि के लिए बॉलीवुड पर अंगुली उठाते हुए उसका तलिस्मान रहा- फिल्मों में पुलिस की सकारात्मकता भी दिखाई जानी चाहिए!
आश्चर्य नहीं कि ऐसी सतही नारेबाजी में अरसे से मुंह बाए खड़े पुलिस-व्यवस्था के तमाम जरूरी सवाल दरकिनार रहे। पुलिस सुधार, संवेदी-लोकतांत्रिक पुलिस, स्त्री सुरक्षा, लापता बच्चे, किशोर अपराध, सांप्रदायिक और जातीय तनाव, नस्ली हिंसा, जटिल कानून, खर्चीले कायदे, बेइंतहा न्यायिक देरी, सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार, धन-शोधन, साइबर जालसाजी, सड़क और रेल दुर्घटनाएं, खूनी माओवादी स्टेलमेट, घोर विवादास्पद ‘अफस्पा’ प्रावधान, आर्थिक और सामाजिक विस्थापन, सामुदायिक घेटो, राष्ट्रीय संसाधनों और सार्वजनिक धन की कारपोरेट लूट, कर चोरी, पुलिस-मीडिया तनाव, पुलिस भर्ती और प्रशिक्षण सुधार, पुलिस आधुनिकीकरण बजट, सीबीआइ और अन्य जांच एजेंसियों का राजनीतिक दुरुपयोग जैसे दौर के ज्वलंत कानून-व्यवस्था से जुड़े मसलों को साधने के लिए प्रधानमंत्री के तरकश में तीर थे ही नहीं।
पूर्वोत्तर में हुए इस सम्मलेन में वहां के सर्वाधिक बिगड़ैल राज्य मणिपुर की इरोम शर्मिला के डेढ़ दशक पुराने गांधीवादी अनशन ‘अफस्पा हटाओ’ पर सरकारी चुप्पी तोड़ने का दूरगामी महत्त्व होता। सम्मलेन के तुरंत बाद, तीस नवंबर को सेवानिवृत्त हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के महानिदेशक दिलीप त्रिवेदी ने भी ‘अफस्पा’ को सुरक्षा बलों के लिए अनावश्यक बताया। जब माओवाद प्रभावित इलाकों में तमाम केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल बिना अफस्पा प्रावधानों के काम कर सकते हैं, तो कश्मीर और पूर्वोत्तर में आंतरिक सुरक्षा पर तैनात सेना की यूनिटों को भी तदनुरूप प्रशिक्षण देने में संकोच क्यों? खुद सेना के माछिल जैसे ताजातरीन कोर्ट मार्शल के फैसले और बडगाम जैसी फर्जी मुठभेड़ों से हुई किरकिरी का सबक है कि बेलगाम होने पर सुरक्षा बलों को जन-अविश्वास की भारी कीमत अपनी वैधानिक विश्वसनीयता खोकर चुकानी पड़ती है। मिजोरम में तो साठ के दशक के सेना अभियान के घाव आज की पीढ़ी के दिलो-दिमाग पर अमिट हैं। मोदी के ‘स्मार्ट’ पुलिस नारे में दो ही, बेशक दिखावे के, जन-तत्त्व हैं- ‘सेंसिटिव’ और ‘एकाउंटेबल’; दोनों यहीं धराशाई हो जाते हैं।
गुवाहाटी सम्मलेन में गृहमंत्री राजनाथ सिंह के वक्तव्य में भी आंतरिक सुरक्षा को लेकर माओवादी मसला प्रमुख रहा, और इस मोर्चे पर वर्षों से चल रहे खूनी संघर्ष पर किसी राजनीतिक रणनीति को लेकर शून्यता भी। माओवाद, बेशक सरकार-विरोधी और व्यवस्था-विरोधी है, पर राष्ट्र-विरोधी नहीं। माओवादियों की हिंसक गतिविधियां कितनी ही अवांछनीय क्यों न हों, पर उनकी व्यापक राजनीति को जन-विरोधी नहीं कहा जा सकता। पूर्वोत्तर और कश्मीर में, जहां अलगाववाद से निपटने की आड़ में बजट-अनुदान की बंदरबांट का धंधा सरकारी मिलीभगत से उत्तरोत्तर फलता-फूलता रहा है, राजनीतिक वार्तालाप और आर्थिक पैकजों की अनिवार्यता से परहेज नहीं। फिर माओवादी इलाके में सैन्य कार्रवाई के समांतर अन्य पहल पर चुप्पी क्यों?
यह छिपा नहीं है कि देश का एक वृहद खनिज/ वन संपदा का क्षेत्रफल और आर्थिक-सामाजिक रूप से कटी खासी बड़ी आबादी, माओवादी प्रभाव की चपेट में है। कॉरपोरेट दबाव में शुरू किए गए दीर्घकालीन बेहद खर्चीले पुलिस अभियान को बिना किसी राजनीतिक दिशा और सामाजिक परिप्रेक्ष्य के अंधी लड़ाई बना कर चलाते रहने से राष्ट्र को कुछ भी हासिल नहीं होगा।
बेहद संगत होता कि गुवाहाटी सम्मलेन में ‘पुलिस सुधार’ को लेकर प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में, राजनीतिक और प्रशासनिक गतिरोध के चलते, प्रधानमंत्री की ओर से स्पष्ट दिशा-निर्देश सामने आए होते। हालांकि ये एक-आयामी सुधार भी आम नागरिक के नजरिए से नाकाफी कवायद ही हैं, पर सरकारी चुप्पी तो पूरी तरह यथास्थिति के पक्ष में है। क्या शासकों को इतना भी नजर नहीं आता कि कानून-व्यवस्था लागू करने में रोजमर्रा के तनावों के निराकरण की दिशा में, खासकर सामुदायिक भागीदारी, कमजोर तबकों और अल्पसंख्यकों के सरोकारों और मीडिया की भूमिका को समाहित करने को लेकर, तुरंत एक संस्थागत पहल होनी चाहिए।
परस्पर नत्थी कानून-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था में किसी नागरिक-संवेदी बदलाव के बुनियादी संकेत नदारद हैं। आज दोनों इस स्थिति में नहीं हैं कि नए वर्ष में समाज को आपराधिक हिंसा के माहौल से सुरक्षा की भावना की ओर ले जाने का दिखावा भी कर सकें। जन-आंदोलनों और मीडिया दबावों के चलते, खासकर स्त्रियों और बच्चों की सुरक्षा से संबंधित कानूनों में जो बदलाव किए भी गए हैं, वे बजाय पीड़ित का सशक्तीकरण करने के, राज्य की दंडकारी शक्तियों में वृद्धि करने तक सीमित रहे हैं। जबकि पुलिसकर्मियों, अभियोजकों, जजों और जेल कर्मियों के लोकतांत्रीकीकरण की दिशा में वांछित प्रशिक्षण की कवायदें रस्म अदायगी बनी हुई हैं।
पुलिस बल की संख्या बढ़ने या उन्हें ज्यादा गश्तीवाहन और आधुनिक हथियार देने से, जिस पर गुवाहाटी सम्मलेन में जोर रहा, राज्य की सामरिक उपस्थिति बेशक यहां-वहां बेहतर दिखने लगे, समाज में आपराधिक हिंसा के माहौल की वस्तुस्थिति में फर्क नहीं पड़ेगा। स्त्री विरुद्ध हिंसा का बहु-प्रचारित परिदृश्य इसका जीता-जागता नमूना है। मोदी के ‘स्मार्ट’ नारे से आंतरिक सुरक्षा की अलगाववादी, आतंकवादी और अतिवादी चुनौतियों का परिदृश्य भी बदलने नहीं जा रहा। माओवाद प्रभावित इलाकों में राजनीतिक पहल और सामाजिक परिप्रेक्ष्य से शून्य, केवल सैन्यवादी हल थोपने का आह्वान एक आत्मघाती भूल थी, है और रहेगी। यहां तक कि आतंकवाद की अंतरराष्ट्रीय दस्तक बढ़ने के बावजूद, मोदी शासन में देश में कौमी एकजुटता नहीं, राष्ट्र को कमजोर करने वाले विभाजक सांप्रदायिक मुद्दे तूल पकड़ रहे हैं।
गुवाहाटी पुलिस सम्मलेन को मोदी का संदेश उनके कहे में नहीं, अनकहे में निहित है। भ्रष्टाचार-सत्ताचार के दलदल में फंसी पुलिस और खर्चीली-अंतहीन भूल-भुलैया बनी न्यायिक मशीनरी को लोकोन्मुख पद्धति में ढालने की राजनीतिक इच्छाशक्ति फिलहाल नदारद है, रहेगी।
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