अरुण कुमार त्रिपाठी

भारतीय जनता पार्टी की अप्रत्याशित भारी जीत और नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव के बीच समाजवादी कुछ ज्यादा ही मिलने लगे हैं। पिछले दिनों ‘जनता परिवार’ की एकता की कोशिशों को मिली पारिवारिक और राजनीतिक कामयाबी के बाद वे कुछ उत्साहित भी हैं। लेकिन सवाल अब भी जस का तस है कि आखिर वह कौन-सा सिद्धांत या व्यक्तित्व है, जिसके चारों तरफ जनता दल परिवार की एकता बढ़ सकती है, मजबूत हो सकती है और वह किसी ठोस विकल्प का रूप ले सकती है। यह सवाल सत्रह दिसंबर को फिर सुनाई दिया, जब समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन की तीसरी पुण्यतिथि पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में समाजवादी और वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं का एक जमावड़ा हुआ। इस जमावड़े को नए रूप में भी देखा जा सकता है और समाजवादी समागम की उस कड़ी के रूप में भी, जिसकी शुरुआत मुंबई के पनवेल में करीब छह महीने पहले हुई।

जिस समय धर्म परिवर्तन बनाम घर वापसी, नाथूराम गोडसे बनाम गांधी जैसे मुद््दों के बहाने कमजोर विपक्ष ने मजबूत सत्तापक्ष को संसद में परेशान कर रखा हो और जिसके कारण आर्थिक सुधार का कार्यक्रम धक्के खा रहा हो, उस समय यह कहना कि विपक्षी एकता उदारीकरण के विरोध पर ही आधारित होनी चाहिए, एक गहरी प्रतिबद्धता और दृढ़ वैचारिक दिशा की ओर संकेत करता है। यह दृष्टिकोण नब्बे पार कर चुके वयोवृद्ध समाजवादी और यूसुफ मेहरअली केंद्र के निदेशक जीजी पारीख ने स्पष्ट तौर पर और लगभग उसी उम्र के न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर ने आंशिक तौर पर प्रकट किया। बाकी सारे वक्ताओं ने मूल रूप से दक्षिणपंथी चुनौती को एक सांप्रदायिक चुनौती के रूप में ही देखा और वे उसी मोर्चे पर लड़ने की वकालत करते रहे।

पारीख का यह कहना कि हमें विकास का समाजवादी मॉडल बनाना होगा और गांधी के स्वदेशी की तरफ लौटना होगा, मोदी की पूंजीवादी सुनामी के सामने एक बड़े साहस और समझ के द्वीप जैसा था। इसी के साथ याराना पूंजीवाद के खिलाफ संसद के भीतर और बाहर एकजुटता बनाने की सच्चर की अपील भी उसी आर्थिक मोर्चे पर एकता और संघर्ष की जरूरत पर जोर देने वाली थी, जहां यह आंदोलन कमजोर है। पारीख और सच्चर की ही बात किशन पटनायक भी करते थे और उनका स्पष्ट मानना था कि सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक नवउदारवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और जीती नहीं जाती। यही वजह है कि वे बाबरी मस्जिद विध्वंस और डंकल प्रस्ताव लागू किए जाने को एक-दूसरे से जुड़ी हुई घटना मानते थे। हालांकि वे मंडल को भी मंदिर विवाद से जोड़ते थे, लेकिन दूसरे मंडलवादी नेता इसी रिश्ते को जोड़ कर चुप हो जाते रहे।

बल्कि जनता दल (एकी) और भावी समाजवादी जनता दल के नेता शरद यादव हिंदुत्ववादी ताकतों के ताजा उभार को भारतीय जातिवाद का ही एक रूप बता कर बीमा कंपनियों के विनिवेश को रोकने के लिए संसद में महज हिकमत करने की बात करते रहे। जिन लोगों के लिए नवउदारवाद का विरोध महज हिकमत का मामला है और जाति, धर्म का मसला ही मुख्य है उन्हें हिंदुत्ववादियों ने लपेट कर गिरा दिया है। कभी हिंदुत्ववादी उन्हें अपना हमसफर बना लेते हैं, तो कभी निचोड़ कर छोड़ देते हैं।

जब वे धर्म परिवर्तन रोकने की बात करते हैं, तो हिंदुत्ववादी धर्मपरिवर्तन रोकने के लिए विधेयक लाने की बात करने लगते हैं, जो कि अपने आप में ज्यादा गंभीर प्रतिक्रियावादी कदम हो सकता है। रही जातियों की बात, तो उस बारे में भाजपा ने मंडल को आत्मसात करके उससे आगे की जमीन नाप ली है, जबकि जनता दल परिवार अभी वहीं कदमताल कर रहा है।

आर्थिक मुद््दों पर कठिन संघर्ष की बात हाल में दिवंगत हुए समाजवादी जनपरिषद के नेता सुनील भाई भी किया करते थे। बल्कि वे आर्थिक विकल्प के तौर पर लातिन अमेरिकी देशों के मॉडल को प्रस्तुत भी करते थे।

मार्क्सवादी भी पहले नवउदारवाद के विरोध को प्रमुखता देते थे, लेकिन बाद में धर्मनिरपेक्षता को ही प्रगतिशील ताकतों की एकजुटता का आधार बनाया और उसके बाद अपने मंडलवादी न बन पाने के लिए पछताते रहे। हालांकि उन्होंने यूपीए-1के कार्यकाल में उदारीकरण पर अपना अंकुश लगाया, लेकिन बौद्धिक अहंकार और गलत रणनीति के कारण वे धराशायी हो गए।

विश्लेषण और विचारधारा के पैने औजार होने के बावजूद मार्क्सवादी नवउदारवाद और फासीवादी सांप्रदायिकता के रिश्ते जोड़ने में क्यों झिझकते रहे, इसका जवाब वे ही दे सकते हैं। शायद इसकी वजह केंद्रीय नेतृत्व का बंगाल और केरल के स्थानीय नेतृत्व के सुझावों को अनसुना किया जाना है। जबकि किशन पटनायक, जीजी पारीख या सच्चर जैसे लोग इस तरह का विश्लेषण और सीख सदैव देते रहे।

आज वह बात एकदम सही साबित हो रही है कि महज धर्मनिरपेक्षता के आधार पर बनने वाली प्रगतिशील ताकतों की एकता न सिर्फ बिखर गई, बल्कि वह सिद्धांत भी कमजोर साबित हो रहा है। दूसरी तरफ नवउदारवाद के आधार पर बनने वाली दक्षिणपंथी एकता मजबूत हुई और उसने अपने साथ मंडल के अलावा नवउदारवादी धर्मनिरपेक्ष तत्त्वों को भी जोड़ लिया। 1991 से लेकर 2014 तक धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता की जो भी कोशिशें हुर्इं वे नवउदारवाद के विरुद्ध सिद्धांत और संघर्ष की कोई जमीन तलाश नहीं सकीं। वे या तो नवउदारवाद से टकरा कर चकनाचूर हो गर्इं या फिर उससे समझौता कर अल्पसंख्यकवाद की तोहमत लगवा कर कमजोर हो गर्इं।

उन कोशिशों को यह समझना होगा कि भारत में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार भले ही बहुसंख्यकवाद और कॉरपोरेटीकरण पर आधारित हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के पीछे आतंकवाद, कट््टरता और तमाम तरह के जातीय टकराव जुड़े हैं। पाकिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक दक्षिणपंथी ताकतें ही आपस में गुत्थमगुत्था हैं। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का इस्लामी ताकतों से अपना अंतरसंघर्ष है। उसमें सहयोग भी है तो टकराव भी। उनका मुकाबला किसी वामपंथी ताकत से नहीं हो रहा है, क्योंकि वह चुनौती तो अफगानिस्तान में सोवियत संघ की पराजय के साथ ही खत्म हो गई।

यहां भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने देश के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिफाजत और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध के बहाने इस्लामी कट््टरता ही नहीं, आतंकवाद के प्रति भी नरम हो जाता है। पेशावर में सैनिक स्कूल के बच्चों पर हुए हमले की निंदा में किसी तरह का अगर-मगर करने वाला विचार एक विश्वसनीय धर्मनिरपेक्ष विमर्श बनने ही नहीं देता। चाहे भारतीय धर्मनिरपेक्षता का विमर्श हो या भारतीय समाजवाद का, उसे वैश्विक संदर्भ से काट कर नहीं विकसित किया जा सकता। हमें उसकी जटिलता को समझना होगा और उसे व्यापक जनता की सुरक्षा और उसकी सुख-सुविधा से जोड़ना होगा।

धर्मनिरपेक्षता ने नवउदारवाद को समझने और उससे सांप्रदायिकता का रिश्ता जोड़ने का काम बंद कर दिया। उसने यह नहीं बताया कि नवउदारवाद भारत में अगर कांग्रेस और भाजपा को अपने हाथों का खिलौना बनाए हुए है, तो पाकिस्तान और मध्य एशिया में अलग-अलग तरह की ताकतों को। इस समझदारी के अभाव में नवउदारवाद ने सांप्रदायिकता से गठजोड़ बना कर देश की राजनीति को जीत लिया।

आज वह राजनीति अड़सठ साल की आजादी को व्यर्थ बता रही है, तो कल सौ साल की आजादी की लड़ाई को व्यर्थ बताएगी। वह उन नकली देशभक्तों की मूर्तियां लगाने को आतुर है, जो असली देशभक्तों की हत्या करते थे या उनकी निंदा में लीन रहते थे।

निश्चित तौर पर इस स्थिति के लिए कांग्रेस की पिछली सरकारों की भूमिका जिम्मेदार रही है, पर सबसे ज्यादा नकारात्मक भूमिका पिछले दस सालों की यूपीए सरकार की रही है। उसने नवउदारवाद का ऐसा भोंडा प्रयोग किया कि उससे सांप्रदायिकता में नई जान पड़ गई और उसके कंधे पर सवार होकर लंगड़ा नवउदारवाद भी चलने लगा।

लेकिन इस दौरान सबसे बड़ा वैचारिक दिवालियापन धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी ताकतों का रहा। वामपंथी दल अपने भूमि सुधार कार्यक्रम, पार्टी संगठन और नेताओं की बौद्धिक और ईमानदार छवि के घमंड में चूर रहे और देश बचाने की सारी उम्मीद कांग्रेस से पाले रहे। जबकि जनता दल परिवार के सदस्य बौद्धिकता और विमर्श से दूर अपनी जातियों की एकता पर इतराते रहे। एक को अपने अति बौद्धिक होने का अहंकार खा गया, तो दूसरे का बुद्धिविरोधी होना। एक का जनाधार समाप्त होता गया तो दूसरे की वैचारिक ऊर्जा।

नतीजतन, आज जब व्यापक समाजवादी एकता की बात हो रही है तो देखना होगा कि एक स्थायी धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राजनीति यानी ऐसी वामपंथी राजनीति, जो दक्षिणपंथ का विधिवत मुकाबला कर सके उसके लिए क्या-क्या उपादान चाहिए। उसे गांधी, लोहिया, जयप्रकाश और आंबेडकर ही नहीं, आचार्य नरेंद्रदेव भी चाहिए। उसे लेनिन ही नहीं, रोजा लक्जमबर्ग भी चाहिए।

ऐसे में मुलायम, लालू और नीतीश की बढ़ती भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर नीतीश बिहार में लालू से मिल कर भाजपा को रोक ले गए तो उत्तर प्रदेश में एक नई उम्मीद बनती है। वरना उत्तर प्रदेश भी 2017 में लोकसभा की गति पाएगा। यहां विचारविहीनता में डूबी ‘आप’ पार्टी से भी आशा बनती है, लेकिन अगर वे अपने अराजनीतिक अहंकार को छोड़ें और प्रगतिशील ताकतों के महत्त्व को समझें। हालांकि जनता दल परिवार के दलों को वोट की राजनीति याद है, पर वे फावड़ा और जेल की राजनीति भूल गए हैं और यही वजह है कि वोट भी उनके हाथ से खिसक रहा है।

यहां फिर नई विपक्षी एकता के लिए यह दुविधा महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि वह उदारीकरण के विरुद्ध लड़े या सांप्रदायिकता के विरुद्ध। सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ने में उसी के मैदान में मारे जाने का खतरा है और उस जमीन को छोड़ देने पर उसके चौतरफा बढ़ने का। दूसरी तरफ यह कहना आसान है कि नवउदारवाद के विरुद्ध नए सिरे से संघर्ष छेड़ा जाना चाहिए और उससे लड़ाई जीतेंगे तो सांप्रदायिकता भी हारेगी। लेकिन उसके मुद्दे और विमर्श खड़ा करना आसान नहीं है।

मध्यवर्ग में उदारीकरण का सम्मोहन बना हुआ है और गरीब तबका उसका अर्थ समझता ही नहीं। वह या तो हिंदू-मुसलिम अर्थ में बात समझता है या फिर जाति के अर्थ में। इस दिक्कत और दुविधा के बावजूद देश की मौजूदा राजनीति का वास्तविक विपक्ष तो वही होगा, जो नवउदारवाद का विश्वसनीय विकल्प खड़ा कर सके।

 

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