दुनिया ने भले ही कितनी भी तरक्की कर ली हो, पर इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि मच्छरों की बढ़वार, उनके काटने से होने वाली बीमारियों और मौतों को रोक पाना चुनौती बना हुआ है। यह इसलिए भी चिंता का विषय है कि दुनिया में मौजूद मच्छरों की तीन हजार से ज्यादा प्रजातियों में से कुछ को ही मनुष्यों का खून पसंद है। मगर एनोफेलीज, एडीज और क्यूलेक्स जैसी कुछ प्रजातियां जानलेवा साबित होती हैं। ये लिंफैटिक फाइलेरिया, जीका, डेंगू, और पीला बुखार फैलाती हैं।

अब बारहमासी होते जा रहे हैं जानलेवा मच्छर

बीते कुछ वर्षों के आंकड़ों से पता चलता है कि मलेरिया से हर साल औसतन चार लाख लोग जान गंवाते हैं। उसमें ज्यादा संख्या पांच साल से कम उम्र के बच्चों की होती है। बीते वर्ष दुनिया में 6.2 लाख लोग मलेरिया की वजह से काल कवलित हो गए। वर्ष 2021 में 24.7 करोड़, 2020 में 24.5 करोड़, 2019 में लगभग 23.2 करोड़ लोग मलेरिया की पकड़ में आए। मगर अब आ रही वैज्ञानिक जानकारियां बेहद परेशान करने वाली हैं, क्योंकि मच्छर बारहमासी होते जा रहे हैं। पहले ठंडी जगहों पर इनका प्रकोप कम या बिल्कुल नहीं होता था। मगर जलवायु परिवर्तन के चलते इनकी भी फितरत बदलने लगी है। हर मौसम इनके प्रजनन और विस्तार के लिए अनुकूल हो रहे हैं।

मच्छर सदियों से हैं। त्रेता काल में भी थे। इसका जिक्र रामायण के सुंदरकांड की पंक्तियों में है। ‘मसक समान रूप कपि धरी/ लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी’। सच्चाई भी यही कि मच्छर ही मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक साथ रहता है। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय का एक नया शोध बताता है कि जलवायु परिवर्तन से तमाम जानलेवा बीमारियां फैला कर मच्छर पूरे साल मुसीबत का सबब बन सकते हैं।

उष्ण कटिबंधीय इलाकों में इनका पूरे साल सक्रिय रहना आम बात है। मगर ठंडे दिनों में मच्छर शीतनिष्क्रियता यानी हाइबरनेशन में चले जाते हैं और उनकी शारीरिक क्रियाएं थम या सुस्त पड़ जाती हैं। मगर अब कुछ ही जगहें मच्छरों के प्रकोप से बची हैं। जैसे, अंटार्कटिका का दक्षिणी ध्रुव, जहां न्यूनतम तापमान ऋणात्मक 90 डिग्री सेल्सियस और सबसे ज्यादा 5 से 15 डिग्री सेल्सियस तक रहता है।

इसी तरह सेशेल्स गणराज्य है, जो हिंद महासागर स्थित 115 द्वीप समूहों का राष्ट्र है, जहां प्राकृतिक रूप से स्तनधारी जीव नहीं मिलते, जिनका खून मच्छरों का भोजन होता है। अफ्रीका महाद्वीप के सबसे कम आबादी वाले इस देश में केवल बानबे हजार लोग रहते हैं, जो मलेरिया मुक्त हैं। इसी तरह फ्रांस में बेहतर जल निकासी प्रबंधन से मच्छर बहुत कम हैं। न्यू केलेडोनिया, दक्षिणी प्रशांत महासागर में आस्ट्रेलिया के पास है, वहां भी मच्छरों की संख्या बहुत कम है। इसी तरह आइसलैंड में, जो उत्तरी अटलांटिक सागर स्थित छोटा-सा देश है, तापमान इतना कम कि मच्छर पनप नहीं सकते।

मच्छरों को पनपने के लिए गर्म, उमस भरे वातावरण की जरूरत होती है। मौसम का बदलता मिजाज, घटती ठंड, बढ़ती गर्मी और श्वांसरोधी दूषित हवा इनके प्रजनन के अनुकूल होता है। गर्मी या उमस के दौरान मच्छरों का व्यवहार आक्रामक हो जाता है। तापमान बढ़ने से मच्छरों का व्यवहार भी बदल रहा है, ये तेजी से पनपते और मलेरिया जैसे रोग फैलाते हैं।

आने वाले वक्त में बढ़ती गर्मी से निपटना जितना मुश्किल होगा, उतना ही मच्छरों से निपटना भी। जलवायु परिवर्तन के चलते अगर मनुष्य के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में मच्छर भी चुनौती बन जाएं, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। तमाम शोधों से पता चलता है कि मच्छरों के बदलते व्यवहार की वजह से मलेरिया और अन्य संक्रमणों की रोकथाम पर गंभीर असर पड़ने लगा है।

एक सवाल खुद ही जवाब बनकर उभरता है कि कुछ बरस पहले तक बारिश और उमस के बावजूद मच्छर इतने हमलावर क्यों नहीं थे? क्योंकि इनका शिकार मेढक करते थे। आज मेढकों का वजूद हम ही खत्म कर रहे हैं। ये बरसात में मच्छरों के लार्वा, टिड्डे, कीड़े, दीमक, कनखजूरा, चींटी और मकड़ी आदि चट कर जाते थे। अब खेतों में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से मेढक कम, बल्कि खत्म, होने लगे हैं। मेढक वाली दलदली जगहों पर कब्जा कर निर्माण किया जा रहा है। इससे मच्छरों की फौज बेकाबू हो रही है। उभयचर होने से पानी तथा जमीन पर मच्छरों को भोजन बनाने वाला मेढक अब खुद ही विलुप्ति की कगार पर है।

अकेले भारत में चार सौ से ज्यादा प्रजाति के मच्छर हैं। इनसे बचाव के लिए बने उत्पादों का सालाना कारोबार पांच सौ से छह सौ करोड़ रुपए का है, जो हर साल सात से दस प्रतिशत बढ़ रहा है। इसमें डीडीटी से लेकर दूसरे कार्बन-फास्फोरस यौगिक होते हैं, जो टिकिया, अगरबत्ती, लोशन, वेपोराइजर की शक्ल में होते हैं। अधिकतर में एलथ्रिन समूह के यौगिकों, डाइ इथाइल टाल्यूमाइड या कुछ में जड़ी-बूटियों और तेल का उपयोग होता है, जो अधिकतर दो से चार घंटे तक ही प्रभावी होते हैं।

इनके कारोबारियों का मजबूत संगठन भी है। शर्तों के अनुसार तो मानव स्वास्थ्य, पशुओं तथा अलक्षित प्रजातियों के लिए सुरक्षित होने पर ही इन उत्पाद को बाजार में उतारने की इजाजत मिलती है। मगर कमजोरी यही कि एक बार अनुमोदन मिलने के बाद सतत निगरानी या स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों के आकलन का कोई प्रावधान न होने के चलते इनके दुष्प्रभावी होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

मच्छरों को भगाने वाले कई उपाय दुनिया भर में मनुष्यों पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। घुटन पैदा करने वाली गंध, सांस लेने में तकलीफ, सिरदर्द, आंख, कान, नाक, गला और चमड़ी में जलन, दाद, काले धब्बे, चमड़ी का काला पड़ जाना। कुछ लोगों में बुखार, नाक बहना, छींक आना, सर्दी, खांसी तक की समस्याएं सामने आई हैं। कुछ शोधकर्ताओं ने तो लीवर और धमनियों के खराब होने तक की चेतावनी दी है। निश्चित रूप से मच्छरों के लिए जलवायु परिवर्तन से बन रही अनुकूलता बड़ी चुनौती है।

जरूरत है, घर, पास-पड़ोस की साफ-सफाई, नालियों में पानी न रुकने देने की। जमीन और छत पर रखी पानी की टंकियां, तमाम जलस्रोत, कुएं आदि स्वच्छ रहें। गटर अनिवार्य रूप से बंद रहें। इसके अलावा लार्वा खाने वाली मछलियों को नालियों, तालाबों, झीलों, खेतों में पर्याप्त और नियमित रूप से छोड़ कर उनकी देखरेख की जाए। मच्छरदानियों का उपयोग किया जाए। इससे इन्हें खुराक नहीं मिलेगी और उनका पनपना कठिन होता जाएगा।

दुनिया के उनतीस देश मलेरिया का छियानबे प्रतिशत बोझ ढो रहे हैं। एक समय दक्षिण पूर्व एशिया में उन्यासी प्रतिशत मामले भारत में आए थे और तिरासी प्रतिशत तक मौतें हुर्इं। सुकून की बात है कि 2015 के बाद इसमें छियासी प्रतिशत की बड़ी गिरावट आई है। 2015 से 2021 के बीच मलेरिया से मौतों में नवासी प्रतिशत कमी आना बड़ी उपलब्धि है। मलेरिया से बचाव के जैविक और प्राकृतिक उपाय भी हैं, जो हानिकारक नहीं हैं। मच्छरों को अप्रिय और इंसानों को प्रिय लगने वाली ऐसी वनपस्तियां या उत्पाद भी बहुत मददगार हैं।

कई की खुशबू हमें प्रिय है, लेकिन मच्छरों को बर्दाश्त नहीं होती। जैसे लैवेंडर, गेंदे का फूल, सिट्रोनेला घास, कैटनीप, गुलमेंहदी, तुलसी, पुदीना, मधुमक्खी बाम। निश्चित रूप से बदलते मौसम और बढ़ती गर्मी में प्राकृतिक या व्यक्तिगत उपाय भी मच्छरों पर भारी पड़ेंगे, जिससे हर साल लाखों मौतों और करोड़ों को बीमार होने से बचाया जा सके। मच्छरों से निपटने के लिए भी खास अलख जगाने की सख्त जरूरत है, ताकि लक्ष्य के अनुसार 2030 तक भारत मलेरिया मुक्त हो सके।