यह बात अब प्रकट है कि हमारी मौजूदा न्याय-व्यवस्था में गरीब आदमी के लिए इंसाफ पाना लगभग असंभव है। विधि आयोग के सहयोग से राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन से इस बात की पुष्टि हुई है। इस अध्ययन से पता चलता है कि गंभीर अपराध के आरोपी अमीर लोग पैसे के बल पर नामी वकीलों की फौज खड़ी कर अक्सर बच जाते हैं, जबकि निर्धन व्यक्ति को फांसी के फंदे पर झुला दिया जाता है। रिपोर्ट आने के बाद नामी वकील प्रशांत भूषण ने ठीक ही कहा कि हमारा समाज पूर्वग्रह ग्रस्त है, इसीलिए गरीब जेलों में सड़ रहे हैं, क्योंकि वे जमानत के लिए वकील का खर्चा नहीं उठा सकते।
इस अध्ययन में पिछले पंद्रह सालों में मौत की सजा प्राप्त 373 कैदियों के साक्षात्कार से प्राप्त आंकड़ों की जांच कर उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को खंगाला गया, जिससे पता चला कि सजा-ए-मौत पाने वाले तीन चौथाई कैदी पिछड़े वर्गों से ताल्लुक रखते हैं और आर्थिक तौर पर कमजोर हैं। आतंकवाद के आरोप में मृत्युदंड पाने वाले अपराधियों में 93.5 प्रतिशत दलित और अल्पसंख्यक हैं।
हमारे देश में आतंकवादग्रस्त इलाकों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी कश्मीर घाटी से जुड़ी है, दूसरी पूर्वोत्तर के राज्यों से और तीसरी का ताल्लुक माओवाद प्रभावित इलाकों से है। मृत्युदंड पाने वाले कैदियों की यह हकीकत जान कर तो लगता है कि हमारे देश में आतंकवाद के तार कहीं न कहीं सामाजिक-आर्थिक असमानता से भी जुड़े हैं।
अध्ययन के निष्कर्षों से पता चलता है कि मृत्युदंड पाने वाले तेईस फीसद अपराधी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी किसी स्कूल में कदम नहीं रखा, जबकि शेष की शिक्षा माध्यमिक से कम है। एक और दर्दनाक सच सामने आया है।
कमजोर और गरीब तबके से जुड़े इन कैदियों को न अपने मुकदमे की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी जाती है और न अपने वकील से मुलाकात का पर्याप्त अवसर मिलता है। उन्हें अलग बैरक में रखा जाता है और किसी से मिलने की इजाजत नहीं दी जाती। इसके चलते उनकी मानसिक स्थिति और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह भी पता चला है कि मात्र एक फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनकी माली हालत योग्य वकील रखने की है। शेष निन्यानबे प्रतिशत अपना मुकदमा ‘राम भरोसे’ लड़ते हैं। इसी वजह से मृत्युदंड समाप्त करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है।
आज निचली अदालत में मामूली मुकदमा लड़ने में भी मोटा पैसा खर्च होता है। न्याय पाना निरंतर महंगा होता जा रहा है। अगर मुकदमा खिंच कर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाए तो लाखों-करोड़ों रुपए लगना तय है। नामी वकील एक दिन की पेशी की फीस लाखों रुपए लेते हैं। यह खर्च वहन करने की हैसियत महज मुट्ठी भर लोगों की है। जिस देश में करीब एक चौथाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती हो और करोड़ों लोग दो जून की रोटी के जुगाड़ में दिन-रात खटते हों, वहां एक मुकदमा लड़ने पर लाखों रुपए व्यय करने की कल्पना कैसे की जा सकती है?
अगर इस समस्या का तोड़ नहीं निकाला गया तो न्याय पाना केवल कुछ लोगों के वश में रह जाएगा। बाजार आधारित अर्थव्यस्था में हर चीज की कीमत होती है, इसीलिए आज जिस आदमी की हैसियत मोल चुकाने की है वह कानून के शिकंजे से साफ बच जाता है और गरीब मारा जाता है।
बड़े लोगों का मामला आते ही कानून की चाल बदल जाती है। यह तबका पैसे के बल पर नामी वकीलों की फौज खड़ी कर निचली अदालत का निर्णय अक्सर ऊंची अदालत में पलटवा देता है। उनके रुतबे से अक्सर न्यायालय भी प्रभावित हो जाते हैं। उसके वकील कानून के पेचीदा नुक्तों की आड़ में न्याय को धता बता देते हैं। उनके हित से जुड़े मुकदमे उच्च अदालत में तुरंत ‘प्रस्तुत’ हो जाते हैं, फटाफट तारीख मिल जाती है और झट से निर्णय भी आ जाता है।
जहां सजा का डर होता है वहां मुकदमा जानबूझ कर लंबा घसीटा जाता है। फैसला आने में बरस नहीं, दशक लग जाते हैं। ऐसे मामलों में बहुधा कानून के हाथों न्याय की हार हो जाती है।
पिछले पच्चीस बरस में देश में जिस अनुपात में गरीब और अमीर वर्ग के बीच की खाई चौड़ी हुई है उसी अनुपात में कमजोर तबके की शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय व्यवस्था पर पकड़ कमजोर पड़ती गई है। राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के अध्ययन ने इस तथ्य की तस्दीक की है।
आज देश की जेलों में 2.78 लाख कैदी मात्र आरोपी हैं, अपराधी नहीं। यह कुल कैदियों की संख्या का दो तिहाई से अधिक है। यह आंकड़ा हमारी मौजूदा व्यवस्था की पोल खोलता है। ब्रिटिश शासनकाल में बंदियों में दो तिहाई अपराधी होते थे और एक तिहाई आरोपी। आजाद हिंदुस्तान में यह आंकड़ा उलट गया है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कैदियों में अनेक ऐसे हैं, जो खुद पर लगे आरोप के लिए मुकर्रर अधिकतम कैद की अवधि से ज्यादा समय जेल में काट चुके हैं। हजारों कैदी ऐसे हैं जो एक दशक से ज्यादा समय से मुकदमा शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
इस अन्याय को अनुभव कर पिछले साल पांच सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि उन सभी विचाराधीन कैदियों को दिसंबर 2014 तक छोड़ दिया जाए, जो उन पर लगे आरोप में तय अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में काट चुके हैं। कुछ ऐसी ही सलाह केंद्र सरकार ने दो वर्ष पहले सभी राज्यों को दी थी। ऐसे कैदियों की निशानदेही के लिए हर जिले के चीफ जुडिशयल मजिस्ट्रेट और एसएसपी को 31 दिसंबर, 2014 तक जेल का निरीक्षण कर आदेश पर अमल का हुक्म दिया गया था। मगर आदेश पर अमल अब भी नहीं हो पाया है।
कहने को हमारा संविधान देश के हर नागरिक को समान दर्जा, समान अधिकार और समान कानून सम्मत संरक्षण प्रदान करता है, लेकिन यह बात रोजी-रोटी के लिए दिन-रात खट रहे करोड़ों लोगों के लिए मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसी है। किसी झंझट में फंस जाने पर न तो अदालती खर्च उठाने की उनकी हैसियत होती है और न कानून की पेचीदगियों से वे वाकिफ होते हैं। इसीलिए अदालत का दरवाजा खटखटाने से पहले सौ बार सोचते हैं।
ध्यान से देखने पर पता चलता है कि मौजूदा व्यवस्था में न्यायालयों का दरवाजा खटखटाने वाले तीन तरह के लोग हैं। पहले वे, जिनके मुकदमे बड़ी-बड़ी लॉ फर्म और नामी वकील लाखों-करोड़ों रुपए लेकर लड़ते हैं। इस वर्ग में मुट््ठी भर धन्ना सेठ, राजनेता और प्रभावशाली लोग हैं। अदालत में उनकी बात ध्यान से सुनी जाती है। बड़े वकील बाल की खाल निकालने में माहिर होते हैं। कई बार तो आंखों देखा सच भी झूठ साबित कर देते हैं। ऐसे-ऐसे तर्क गढ़ते हैं कि सुनने वाला दंग रह जाता है, अदालत गुमराह हो जाती है।
इसीलिए संपन्न और रसूख वाले लोग कम से कम सजा पाते हैं और कई बार तो बेदाग छूट जाते हैं। दूसरी श्रेणी उच्च मध्य और मध्यवर्ग की है। यह तबका अपनी हैसियत के मुताबिक दोयम दर्जे के वकील करता है। न्याय पाने की उम्मीद में बरसों मुकदमा लड़ता है, पर कानूनी पचड़ों में पड़ कर अक्सर अपना सुख-चैन, धन-संपत्ति खो देता है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार से रूबरू होने पर उसे हकीकत का पता चलता है। अहसास होता है कि न्याय की सीढ़ियां चढ़ने के लिए पग-पग पर पैसे का सहारा जरूरी है। इस चक्रव्यूह में फंस कर उसकी इंसाफ पाने की उम्मीद अक्सर चकनाचूर हो जाती है। अगर कभी न्याय मिलता भी है तो इतनी देर से कि उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
तीसरा तबका बहुत गरीब है, जो वकील और अदालत का खर्च उठाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। उसके लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना तक कठिन है।
गांव और शहर का यह आम आदमी इसीलिए न्याय के लिए अदालत की अपेक्षा खाप पंचायत, नक्सली अदालत, अपने इलाके के रसूखदार लोगों और गुंडों के पास जाने में भलाई समझता है। इंसाफ के लिए उसे ऐसे संस्थानों पर विश्वास करना पड़ता है, जिनकी कानून की नजर में कोई हैसियत नहीं होती। हां, फौजदारी का मुकदमा दर्ज होने पर जब अदालत जाना पड़ता है तब उनकी जिंदगी पर मानो ग्रहण लग जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 39-ए में सभी नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने का प्रावधान है। इस पर अमल के उद्देश्य से संसद ने 1987 में कानूनी सेवा अधिकरण कानून पास किया, जिस पर सात बरस बाद 1995 से अमल शुरू हो सका। देश के गरीबों को न्याय सुलभ कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने ऐतिहासिक योगदान दिया था, लेकिन उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद आम आदमी को इंसाफ मिलना निरंतर कठिन होता जा रहा है।
त्वरित और सस्ता न्याय प्रदान करने के लिए लोक अदालतों का गठन किया गया, लेकिन इससे न तो लंबित मुकदमों का अंबार कम हुआ और न ही फैसला आने का औसत समय घटा। आज भी हमारी अदालतों में दो करोड़ से ज्यादा मुकदमे निर्णय की प्रतीक्षा में पड़े हैं। घूम-फिर कर बात वहीं आ जाती है। सब कुछ देख-परख कर सवाल उठता है कि क्या हमारी अदालतें केवल प्रभावशाली लोगों, बड़े-बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों के लिए बनी हैं?
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta