किसानों की कर्ज माफी को लेकर एक बार फिर हंगामा मचा हुआ है। कारपोरेट क्षेत्र के कर्ज घोटालों पर जहां रिजर्व बैंक सहित तमाम सरकारी एजेसियां चुप बैठी रहती हैं, वहीं किसानों के हित की बात आते ही अर्थव्यवस्था चरमराने की दुहाई देने लगती हैं। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में किसान कर्ज माफी को लेकर किए गए फैसले के बाद ही हलचल मची हुई है। रिजर्व बैंक तक इसकी आलोचना कर रहा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर का कहना है कि किसानों की कर्ज माफी से पहले चुनी हुई राज्य सरकारें अपने खजानों की गुंजाईश देख लें। गवर्नर का यह भी कहना है कि किसानों की कर्ज माफी कर्ज संस्कृति पर असर डालती है। इससे कर्ज लेने वालों का भविष्य में व्यवहार खराब हो जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर कर्ज संस्कृति के असर पर बात करते हुए सिर्फ किसानों का उदाहरण देते हैं, लेकिन कारपोरेट घरानों के दस लाख करोड़ का एनपीए उन्हें याद नहीं रहता। एक मोटे अनुमान के मुताबिक एनपीए दस लाख करोड़ रुपए से ऊपर निकल गया है। सरकार और रिजर्व बैंक को इससे कोई परेशानी नहीं दिखती। लेकिन जैसे ही किसानों की कर्ज माफी की बात आई तो अधिकारियों को कर्ज माफी से कर्ज संस्कृति को नुकसान पहुंचने की संभावना दिखने लगी।

आज देश के किसानों पर लगभग ग्यारह लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। अगर इसमें प्राथमिक कृषि समितियों के दिए गए कर्ज को भी जोड़ दें तो यह तेरह लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाता है। इसमें अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों कर्ज शामिल हैं। किसान अल्पकालिक कर्ज माफी की ही मांग कर रहा है। अगर किसानों को दिए गए अल्पकालिक कर्ज ही माफ कर दिए जाएं तो उन्हें भारी राहत मिल जाएगी। वे आत्महत्या करने को बाध्य नहीं होंगे। हालत तो यह है कि किसान उत्पादों के मूल्य में भारी गिरावट के कारण, फसलों का लागत मूल्य भी नहीं वसूल पा रहे हैं, तो लिए गए कर्ज की वापसी कहां से कर पाएंगे? अगर देश में छोटे किसानों के दो लाख रुपए तक के कर्ज को माफ कर दिया जाएगा तो सरकार पर कोई ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा। छोटे किसानों के कुल कर्ज माफी से सरकार पर चार से साढ़े चार लाख करोड़ रुपए का ही भार पड़ेगा। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अगर मिल कर कर्ज माफी का भार उठा लें, तो देश के अन्नदाताओं को इससे भारी राहत मिलेगी।

हालांकि किसानों की कर्ज माफी कृषि क्षेत्र के संकट का दीर्घकालिक समाधान नहीं है, यह भी एक सच्चाई है। लेकिन किसानों को संकट से निकालने के लिए विकल्प क्या हों, इस पर सरकार आज तक गंभीर नहीं हुई है। यह सच्चाई है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कागजों में है। किसान बाजार के हवाले है। वहां पर मनमर्जी से बाजार की शक्तियां किसानों की फसलों की कीमत तय कर रही हैं। प्याज उत्पादन में लागत अगर एक हजार रुपए प्रति क्विंटल है, तो उसे बाजार में मूल्य दो सौ रुपए प्रति क्विंटल मिल रहा है। इसलिए किसानों को इस समय फौरी राहत की जरूरत है। पहले भी कभी-कभार सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ किए हैं। यूपीए की सरकार ने 2008 में किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की थी। उस समय सरकार ने दावा किया था कि किसानों का बहत्तर हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया गया है। हालांकि बाद में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में पता चला कि किसानों की वास्तविक कर्ज माफी लगभग तिरपन हजार करोड़ रुपए की थी।

अगर सरकार किसानों के कर्ज माफ नहीं करना चाहती है, तो उनकी न्यूनतम आय का पक्का इंतजाम करे। किसानों के हित में कदम उठाने के लिए बहुत ज्यादा रकम की जरूरत नहीं है। मात्र दो लाख करोड़ रुपए के बजट में सालाना इंतजाम से किसानों की बड़ी आबादी को लाभ मिल सकता है। अगर केंद्र सरकार तेलंगाना में लागू रैयत बंधु योजना को ही पूरे देश में लागू कर दे तो किसानों की समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। अगर कृषि में निवेश के लिए सरकार किसानों को प्रति हेक्टयर दस हजार रुपए सालाना अग्रिम सहायता राशि उपलब्ध कराए तो किसानों को उत्पादन की भारी लागत से मुक्ति मिल जाएगी। किसान इस राशि से खाद, बीज आदि खरीद सकेंगे। इस पैसे से खेत में काम करने वाले श्रमिकों का खर्च भी किसान निकाल लेंगे। अगर सरकार देश में बीस करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फसल बोए जाने वाली भूमि को इस योजना के अधीन लाएगी तो सरकार को इसके लिए दो लाख करोड़ रुपए तक की जरूरत पड़ेगी। इस योजना को अगर लागू किया जाएगा तो कर्ज माफी और न्यूतनम समर्थन मूल्य को लेकर किसान परेशान नहीं होंगे। जो फसलें न्यूनतम समर्थन मूल्य के अधीन हैं, जमीनी स्तर पर उनकी खरीद ही नहीं होती। देश में सिर्फ गेहूं और धान की खरीद की गारंटी न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत है, वह भी पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में। पूर्वी राज्यों, खासकर बंगाल, बिहार और ओड़िशा आदि में किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान नहीं बेच पाते। वहां भारी भ्रष्टाचार है। मजबूरी में इन राज्यों में किसान बिचौलिए को धान बेचने को बाध्य होता है, वहीं बिचौलिए किसानों से खरीदे गए धान को पंजाब, हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच देते हैं। दलहन समेत कई और फसलों को न्यूतनम समर्थन मूल्य तो बाजार में मिल ही नहीं रहा है।

किसानों की समस्या एक नहीं, कई हैं। सबसे ज्यादा मुसीबत में सीमांत किसान हैं। मुसीबत में खेतिहर मजदूर भी हैं और अपनी बदहाली से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं। सीमांत किसानों को महाजन, कमीशन एजेंटों और व्यापारियों के कर्ज ने परेशान कर रखा है। देश में सबसे ज्यादा संख्या सीमांत किसानों की है। कुल किसान आबादी के सत्तर फीसद किसान सीमांत किसान ही हैं। आधे से ज्यादा सीमांत किसानों ने गैर संस्थागत स्रोतों से कर्ज ले रखे हैं। कर्ज के गैर संस्थागत स्रोत किसानों का सबसे ज्यादा शोषण करते हैं, क्योंकि इसमें कमीशन एजेंट, व्यापारी, महाजन और आढ़तिए शामिल हैं। इनके दिए गए कर्ज पर ब्याज की दर पच्चीस से पैंतीस फीसद तक है। इससे किसानों की कमर टूट गई है। हालांकि बड़े किसान ज्यादातर कर्ज संस्थागत स्रोतों से लेते हैं। बड़े किसानों के वर्ग में आने वाले अस्सी फीसद किसान संस्थागत स्रोतों से कर्ज ले रहे हैं, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंक शामिल हैं। एक और सच्चाई भी भयावह है। अगर वर्ष 2017 के आंकड़ों पर गौर करें तो संस्थागत स्रोतों से छोटे किसानों को मिलने वाले कर्ज की हिस्सेदारी सिर्फ चालीस फीसद थी, जबकि बड़े किसान कुल बांटे गए कर्ज का साठ फीसद हिस्सा अपने खाते में ले गए। संस्थागत स्रोतों से छोटे किसानों को चार लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपए का कर्ज दिया गया था। इसमें ज्यादातर छोटे किसान शामिल थे, जिन्हें दो लाख रुपए तक का फसली कर्ज दिया गया था। जबकि बड़े किसानों को छह लाख करोड़ रुपए कर्ज दिया गया था। बड़े किसानों के बीच दो लाख रुपए से एक करोड़ रुपए तक का लगभग पांच लाख साठ हजार करोड़ रुपए कर्ज दिया गया। एक करोड़ रुपए से ज्यादा कर्ज की श्रेणी में एक लाख सैंतीस हजार करोड़ रुपए का कर्ज दिया गया। ऐसे में सवाल है कि कर्ज का क्या सारा बोझ ढोने के लिए छोटा किसान ही है?