आलोक पांडेय
भारत में हाल में आम चुनाव होकर चुके हैं। जनता के बीच बहुत सारे मुद्दे पक्ष और विपक्ष की ओर से रखे गए। सत्तारूढ़ पक्ष की ओर से राष्ट्रवाद के मुद्दे को सामने लाया गया। इस मुद्दे पर काफी बहस भी चली। सब अपने-अपने विवेक से राष्ट्रवाद को परिभाषित करते रहे। लेकिन राष्ट्रवाद असल में है क्या? इसके सही स्वरूप को समझने की जरूरत है। दरअसल, राष्ट्रवाद एक आधुनिक अवधारणा है जो पूरे विश्व में आधुनिक चेतना आने के बाद सामने आई। राष्ट्र एक तरह से काल्पनिक समुदाय होता है जो अपने ही समूह के सदस्यों के सामूहिक विश्वास, इतिहास, आशा-आकांक्षा, कल्पना एवं राजनीतिक समझ जैसी मान्यताओं पर आधारित होता है। इन मान्यताओं को लोग उस समूचे समुदाय के लिए गढ़ते हैं ताकि वे अपनी वही पहचान कायम रख सकें। राष्ट्र निर्माण के इन तत्त्वों पर विचार करें तो राष्ट्र की अवधारणा को आसानी से समझा जा सकता है।
कोई भी राष्ट्र बिना विश्वास के निर्मित नहीं हो सकता। विश्वास एक अमूर्त संकल्पना है। यही अमूर्त विश्वास ही राष्ट्र को बांधे रखने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी तक कायम रह सकता है जब तक कि लोगों में यह विश्वास बना रहे कि वे एक-दूसरे के साथ हैं। राष्ट्र का एक जरूरी हिस्सा है उसका अतीत। बहुत से समुदाय अपने को एक राष्ट्र के रूप में मानना शुरू कर देते हैं, क्योंकि उनकी अपनी स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। स्थायी पहचान को प्रदर्शित करने के लिए वे साझी स्मृतियों, ऐतिहासिक साक्ष्यों और कथा-कहानियों के माध्यम से अपने एक साझे इतिहास-बोध को निर्मित करते हैं। इस प्रकार वे यह बता पाने में सक्षम होते हैं कि उनका एक राष्ट्र के रूप में अटूट व लंबा इतिहास रहा है और उसका ठोस आधार व प्रमाण उनके पास मौजूद है। इस प्रकार वे सभ्यतामूलक नैरंतर्य व विरासत को परिपुष्ट करते हैं। इसी तरह एक अन्य आधार जिस पर राष्ट्र की नींव खड़ी होती है, साझी राजनीतिक पहचान व सामाजिक समझ है कि हमें किस तरह का राज्य चाहिए? हमारे समाज में सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैविध्य भरपूर है। ऐसे में क्या हम एकांगी दृष्टिकोण वाली राजनीतिक समझ को लेकर चलें जो संकीर्ण हो या फिर ऐसे समन्वयकारी दृष्टिकोण को लेकर चलें जो सभी के हितों को साथ लेकर चलने वाली हो? चूंकि हमारा समाज वैविध्यपूर्ण है, इसलिए हम यही चाहेंगे कि किसी के हित को हम न छोड़ते हुए समेकित रूप से आगे बढ़ें।
अगर भारत के उदाहरण से समझें तो हम पाएंगे कि यहां अनेक धर्म, भाषा, जाति, रीति-रिवाज के लोग रहते हैं। एक राष्ट्र के रूप में यदि सबको समेटते हुए आगे बढ़ना है तो सबके हितों का खयाल भी रखना होगा। सभी लोगों को यह विश्वास दिलाना होगा कि कोई किसी के क्षेत्र के अतिक्रमण करने का प्रयास नहीं करेगा और भारत का संविधान इस बात की गारंटी देता है। यही कारण है कि लोग इस एक विश्वास पर एक साथ रह रहे हैं। हमने एक राष्ट्र के रूप में, एक निश्चित भूभाग के अंतर्गत कुछ साझे राजनीतिक आदर्शों का निर्माण भी किया है एवं वर्तमान में लोकतंत्र का आदर्श हमारे लिए सर्वोपरि है। हमने राष्ट्र के इन आधारों को समझा, इन सबको मिला कर जो एक अमूर्त समुदाय के रूप में जो हम अपने अंदर विकसित करते हैं कि हमारा राष्ट्र ऐसा हो जाए, हम दुनिया के सिरमौर बनें, सच्चे अर्थों में वही राष्ट्रवाद है। सभ्यतामूलक नैरंतर्य, विरासत, विश्वास, आशा-आकांक्षा और राजनीतिक समझ को लेकर राष्ट्र के प्रति साझी व बलवती भावना ही राष्ट्रवाद है।
हम अपने अतीत के आधार पर स्वयं को विश्व गुरु मानते रहे हैं। परंतु वर्तमान वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में स्थितियां ठीक वैसी ही नहीं हैं। हमने गुलामी के लंबे दौर को देखा और उसके कटु अनुभव भी महसूस किए। और इन सबके के बीच धीरे-धीरे हमारी एक साझी विरासत तैयार होती रही। दासता का सबसे बुरा रूप है ग्लानि की दासता, क्योंकि तब लोग अपने में विश्वास खोकर निराशा की जंजीरों में जकड़ जाते हैं। हमें बार-बार बताया गया है कि एशिया अपने अतीत में जीवित रहता है। एशिया के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह प्रगति के पथ पर कभी अग्रसर नहीं हो सकता, क्योंकि उसने अपना मुंह पीछे की तरफ मोड़ रखा है। हमने न केवल इस दोषारोपण को स्वीकार कर लिया, अपितु अब इसमें यकीन भी करने लगे हैं। भारत की प्रवृत्ति भी बहुत हद तक एशिया में रहने के कारण वैसी ही रही। आज भी हम अपने साझे इतिहास, विश्वास व परंपरा को देख सकते हैं, दंभ भर सकते हैं, लेकिन क्या इसी से वर्तमान राष्ट्र की भावना मजबूत होगी? क्या अतीत के गौरवगान से हम फिर से विश्व गुरु का तमगा हासिल कर पाने में सफल होंगे?आज अवधारणा भी बदल गई है, विश्व गुरु नहीं आज सबको विश्वशक्ति होना है। या आवश्यकता है कि समूचे स्तर पर वैसे कार्य किए जाएं कि अपने राष्ट्र को फिर से बेहतर स्थिति में ला सकें। अगर आज भी हम अतीत के गौरव पर वर्तमान को तौल रहे हैं, तो सच मानिए हम अपने आप को पंगु बना रहे हैं। जबकि वास्तव में हमने मजबूत बनना है।
जहां आज पश्चिमी राष्ट्रवाद का बोलबाला है, वहीं इतिहास के कल्पित अर्धसत्य एवं असत्य द्वारा, अन्य नस्लों और संस्कृतियों के बारे में किए गए झूठे प्रचार द्वारा, पड़ोसी राष्ट्रों के प्रति निरंतर द्वेष के द्वारा और सामान्यतया झूठी घटनाओं के स्मृति समारोह द्वारा लोगों को घृणा तथा हर प्रकार की महत्त्वाकांक्षा का पाठ बचपन से ही पढ़ाया जा रहा है। इन प्रवृत्तियों को यथासंभव शीघ्रता से भुला देने में ही मानवता की भलाई है। यदि हम भी पश्चिमी राष्ट्रवाद की अवधारणा को अपनाएंगे तो हम भी राजनीतिक दबाव के आगे सामाजिक आदर्शों को घुटने टेकते हुए देखेंगे। राष्ट्रवाद की जो अवधारणा आज सामान्यजन में प्रचलित है वह छिछले राष्ट्रवाद को प्रदर्शित करती है। एक राष्ट्र को आगे दिखाने के लिए उसके बरक्स एक और राष्ट्र को रखना होगा, और न केवल रखना होगा अपितु उसे कमजोर भी दिखाना होगा ताकि उनका अपना राष्ट्र मजबूत दिख सके। यह सच्चे अर्थों में राष्ट्रवाद नहीं है।
पश्चिम के राष्ट्रवादी स्वरूप में अर्थ और राजनीति के मेल के फलस्वरूप अमानवीय बना देने की प्रक्रिया लगातार जारी है। लेकिन हमें ऐसे राष्ट्रवाद की भी आवश्यकता नहीं है जो केवल अर्थ के चलते पूरी दुनिया में एक दूसरे के प्रति घृणा फैलाए और विश्व को अशांत करने में योगदान दे। भारत जिस वजह से विश्व गुरु बना था, आज उसी सिद्धांत को फिर से प्रसारित करने की जरूरत है। भारत के दर्शन में स्वयं अनेक विचारधाराएं हैं। हमने सामंजस्य को सर्वाधिक महत्त्व दिया है और यही हमारी खूबी रही है। समन्वय की नैतिक भावना ही हमें महान बनाती है और हमारे कला, विश्वज्ञान व धर्म का विकास इसी आधार पर हुआ। हमने सभ्यता के शुरुआती दौर में इस बात का खयाल रखा कि लोग एक दूसरे के निकट आएं। हमें ऐसे राष्ट्रवाद की अवधारणा को अपनाना है जो पश्चिमी अर्थ व राजनीति के नियमों से संचालित न हो जो हिंसा को बढ़ावा देने वाले हैं, बल्कि उसमें भारतीय दर्शन के तत्व मौजूद होने चाहिए, ताकि हम शांतिपूर्वक भौतिकता व आध्यात्मिकता के साथ संतुलन बना कर मानवीयता के पक्षधर बन कर विश्व में मिसाल कायम कर सकें।
