योगेश अटल
कहने को तो यह जुमला अच्छा लगता है कि आतंकवादियों की कोई जात नहीं होती, पर यह भी सच है कि जो आतंक फैलाते हैं वे किसी खास तबके से आते हैं। भारत की तो छोड़िए पाकिस्तान में गिरजाघर पर बमबारी करने वाले कौन थे? पता नहीं यह कैसा जिहाद है और इससे क्या हासिल होने वाला है।
ऊपर के जुमले में जात यानी जाति का जिक्र आता है और जाति को हिंदू धर्म से जोड़ा जाता है। लेकिन जब मंदिर टूटता है तो मुसलमान पर, और मस्जिद पर आंच आती है तो हिंदू की ओर हमारी अंगुली उठती है। यानी धर्मांध लोगों की करतूत ही आतंक का पर्याय है। जुमले में जो भाव है वह यह कि हर मुसलमान और हर हिंदू आतंकी नहीं है। इसलिए ऐसी घटना या दुर्घटना की सजा निर्दोषों को न दी जाए, और जो दोषी हैं, फिर चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हों, उन्हें बख्शा न जाए।
सच तो यह है कि जब हिंदू पर हमला होता है या फिर भारत में बाहर के आतंकी आते हैं तो हमारी अंगुली एक ही तरफ उठती है। कारण साफ है। भारत का विभाजन होकर नया देश बना तो मजहब के नाम पर, और जो शेष देश बचा वह रहा बहुधर्मी। बाहर के आतंकी धर्म की दुहाई देकर अपने मजहब के भारतवासियों को बरगलाते हैं। लोग मानने लगे हैं कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होता, पर वे प्रश्न यह उठाते हंै कि जो यह घिनौना कृत्य करता है वह मुसलमान ही क्यों होता है। और उसको दंड देते समय अपराधी के हमधर्मी उसका ही पक्ष क्यों लेते हैं।
अब हिंदू धर्म के कतिपय अनुयायी भी कुछ-कुछ वैसा ही करने लगे हैं जैसा अन्य धर्म के मानने वाले आतंकवादी करते आए हैं। उनमें आक्रोश होना स्वाभाविक है, मगर वाजिब नहीं। उनके हाथ मस्जिदों पर तो नहीं, पर गिरजाघरों पर उठने लगे हैं- शायद बाबरी मस्जिद एक अपवाद था। यह गुस्सा किस बात का परिचायक है? शायद इस बात का कि उन्होंने हमें गुलाम बनाए रखा। उनके आने से पहले इस्लाम धर्म को मानने वाले आक्रांताओं ने खून-खराबा किया, पर बाद में वे भी यहीं के होकर रह गए और उन्हें भी अंगरेजों की मार खानी पड़ी और वे भी अन्य भारतीयों की भांति कंधा से कंधा भिड़ा कर अंगरेजों से लड़े और शहीद भी हुए। सत्ता के लोभ के कारण जिन्ना- जो मुसलमान कम और अंगरेज ज्यादा थे- ने गद्दी हासिल करने के लिए बहुत कुछ अशोभनीय भी किया। भारी रक्तपात से हमारे स्वतंत्र राष्ट्रों की शुरुआत हुई। पर इसका अर्थ यह नहीं कि अब इतने वर्षों बाद हम अपने गुस्से को इस प्रकार जाहिर करें।
जो लोग यह कहते आए हैं कि आतंकी की कोई जाति नहीं होती, वे इस बात से हैरान हैं कि गिरजाघरों को तहस-नहस करने वाले पहचान से हिंदू हैं। उनके इस कुकृत्य की निंदा करने वाले लोगों में ढेरों हिंदू भी शामिल हैं। ऊपर उद्धृत जुमला जैसे अब सटीक हो रहा है। हिंदू की सहिष्णुता कहां खोई जा रही है?
यह सच है कि हिंदुओं में धर्म परायणता अधिक है, पर उनमें जनून का शायद अभाव है। जन्म से और समाजीकरण से हिंदू होने के नाते मेरे जैसा नास्तिक कहा जाने वाला व्यक्ति भी जब किसी धार्मिक स्थल से होकर गुजरता है- चाहे वह मंदिर हो या मस्जिद या फिर गिरजा- मेरा मस्तक पूजा के भाव से झुक जाता है।
एक पुरानी और खंडहर हुई बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना मेरी राय में अभद्र व्यवहार था। और गिरजाघरों को खंडित करना कोई प्रशंसा का कारण नहीं हो सकता।
हिंदू तो बहु ईश्वरवादी धर्म है- हालांकि यह धर्म अंगरेजी के रिलीजन का पर्याय नहीं है और इसीलिए इसके प्रति मेरी श्रद्धा है, क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे हिंदू होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं नित्य संध्या-पाठ (जो नमाज के समकक्ष है) करूं या मंदिर की परिक्रमा लगाऊं। ब्राह्मण था तो यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य हुआ, क्योंकि उसके बिना शादी नहीं हो सकती थी, पर वे धागे अब जाने कहां गए।
मुझे याद है कि हिंदू-मुसलिम दंगों में जब एक-दूसरे की जान लेने का जुनून चढ़ता था तो हिंदू की पहचान यज्ञोपवीत से और मुसलमान की पहचान उसके खतना होने से होती थी। जैसे ये चिह्न व्यक्ति का परिचय पत्र हों। लेकिन शिया और सुन्नी जैसा भेदभाव हिंदुओं में कम पाया जाता है।
शैव हो या शाक्त, वैष्णव हो या फिर स्मार्त, यहां तक कि जैन हो या फिर बौद्ध, सब हिंदू के बड़े आवरण में ही लिपटे हुए हैं। और इन सबको एक डोर में बांधने वाली कड़ी है अहिंसा।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि धर्म परिवर्तन का प्रावधान पुराने धर्मों में नहीं होता। जब किसी एक धर्म से टूट कर कोई नया धर्म जन्म लेता है तो उसमें सदस्यों की आपूर्ति पुराने धर्मों के मानने वाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर की जाती है। इसीलिए हिंदू जीवन विधि में धर्म परिवर्तन की गुंजाइश ही नहीं है। खुला द्वार है कोई आए कोई जाए। हरे कृष्णा आंदोलन में जाने कितने लोग जाने कितने देशों से जुड़ गए हैं। हिंदू धर्म के किसी द्वारपाल ने उन्हें रोका-टोका नहीं। इसलिए घर वापसी की शब्दावली मुझे समझ में नहीं आती। हिंदू धर्म के लिए हम कोई परकोटा क्यों खड़ा करना चाहते हैं? हम तो उस परंपरा के हैं जहां ‘जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’।
यहां यह कह देना आवश्यक है कि इस्लाम और ईसाई भी कालांतर में भागों में विभक्त हो गए। कोई शिया है तो कोई सुन्नी, तो कोई
अहमदिया, कोई प्रोटेस्टेंट है तो कोई कैथोलिक और जाने क्या-क्या। अध्ययन यह भी बताते हैं कि धर्म न केवल जोड़ता है, वह तोड़ता भी है। अगर धर्म केवल जोड़ता होता तो विश्व में आज इतने मुसलमान देश नहीं होते, न इतने ईसाई देश। धर्म के नाम पर राजनीति कितने ही देशों में होती है। धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान कुछ ही वर्षों में टूट कर दो भिन्न देशों में बंट गया और दोनों देश एक ही धर्म की दुहाई देते हैं।
जाति को हिंदू धर्म से जोड़ना भी मेरी राय में गलत है। यह एक सामाजिक संघटन से जुदा संबोध है। हां, इस पर जब किसी संस्कृति विशेष की चादर ओढ़ा दी जाती है तो यह धर्म की परिधि में प्रवेश कर जाता है। अगर क्रोधित होकर डॉ आंबेडकर कुछ जाति विशेष के लोगों को लेकर बौद्ध हो जाते हैं तो फिर वे भी तो अपने संग जाति को लेकर जाते हैं।
पिछड़ी जातियों में एकता लाने वाले किस प्रकार जाति को तोड़ रहे हैं यह समझ में नहीं आता। सच तो यह है कि जाति का वे राजनीतिकरण कर रहे हैं और उसे वर्ण के स्तर पर पुनर्जीवित कर रहे हैं। यह ध्यान योग्य है कि धर्म परिवर्तन के साथ जाति कहां-कहां नहीं गई? एंग्लो इंडियन, मुसलिम त्यागी, तेली, और लुहार जो पाकिस्तान में पाए जाते हैं, महाराष्ट्र के बौद्ध महार, ये सब किस बात के उदाहरण हैं?
जिन लोगों ने मानव शास्त्र का अध्ययन किया है वे जानते हैं कि उपनिवेशवादी ताकतों ने कई तरह के प्रलोभन देकर आदिवासियों को ईसाई बनाया है। जहां एक ओर व्यापारियों ने गैर-पाश्चात्य उपनिवेशों से कच्चा माल अपने देशों को भेजा, वहीं ईसाई मिशनरियों ने इन इलाकों में बस कर बच्चों को पढ़ाने और बीमारों की चिकित्सा करने और चर्च के माध्यम से दवाएं बांटने का कार्य कर आदिवासी लोगों का विश्वास जीता और यह संदेश दिया कि ईसा मसीह में जीवन दान देने की अद्भुत क्षमता है। और इस प्रकार आभार से दबे और जादू-टोने में और एनिमिज्म (जीववाद) में विश्वास रखने वाले आदिवासियों को अपने धर्म के प्रति आकर्षित किया ताकि वे अंगरेजों और अन्य उपनिवेशवादियों की दासता स्वीकार कर सकें।
फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण करने वाली सरकारों ने ही आदिवासी समाजों का अध्ययन किया ताकि उन पर उनकी शासकीय पकड़ बनी रहे। ऐतिहासिक दृष्टि और निष्पक्ष भाव से देखा जाए तो धर्म परिवर्तन की परंपरा का राजनीतिक जय-पराजय से सीधा संबंध रहा है। इस प्रयास से दीन-हीन की जो सेवा-शुश्रूषा होती रही है उसे न मानना कृतघ्नता अवश्य होगी, पर यह कदापि गलत नहीं है कि हमारे देश में ही नहीं, अन्यत्र भी उपनिवेशवाद के फैलाव के साथ ही उपनिवेशों के मूल निवासियों का धर्म परिवर्तन किया गया। पाश्चात्य देशों में जहां धर्म और राज्य कभी एक साथ थे वे कालांतर में दो भिन्न गतिविधियों में विभक्त हो गए, वहां हमारे देश में धर्म परिवर्तन के आधार पर राजभक्ति को सुदृढ़ बनाने की चेष्टा की जाती रही।
अंगरेजों ने जो फूट के बीज बोए उसी से आज हम देश विभाजन का कष्ट भोग रहे हैं। भाषा में परिष्कार का अभाव हो सकता है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्षों की दासता का एक परिणाम देश का विभाजन रहा है और उसमें बाहरी प्रशासकों के धर्म की भूमिका भी रही है, जिसने जान-बूझ कर हिंदू मूल्यों का, अतिशयोक्तियां गढ़-गढ़ कर, निरादर किया है और देश के गरीब तबकों के लोगों को गुलाबी मार्ग दिखा कर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए अगर बाध्य नहीं तो प्रेरित अवश्य किया है, और विभिन्न धर्मों के बीच असहिष्णुता के बीज बोए हैं।
आज के संदर्भ में यह आवश्यक है कि धर्म को हम राजनीति का अंग न बनने दें। और न ही धर्म को आतंक का आवरण पहनने दें।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta