विष्णु नागर
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अपना एक साल पूरा कर रहे हैं। मोदीजी की शैली ही यह है कि काम भले कम करो, मगर जो न करो उसका प्रचार भी इतना जम कर करो कि लोगों की आंखें चौंधिया जाएं। मीडिया मोदीजी की तारीफ करने के लिए इतना तड़प रहा है कि उसने छब्बीस मई के एक सप्ताह पहले से ही मोदीजी और उनकी सरकार की तारीफों के पुल पर पुल बांधने शुरू कर दिए हैं, भाजपा अध्यक्ष और मंत्रियों के इंटरव्यू दनादन छप रहे हैं, बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं।
प्रेस कॉन्फ्रेंसों और विज्ञापनों का जलजला अभी आने वाला है, हालांकि प्रधानमंत्री स्वयं अपनी ‘उपलब्धियों’ से इतने गदगद हैं कि दूसरों को गदगद होने का भरपूर अवसर नहीं देना चाहते। उनके अभिन्न-अंतरंग पूंजीपति वर्ग ने अब निराशा का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है, जो दबाव डालने की उसकी बड़ी कारगर रणनीति है। पूंजीपति वर्ग अपनी उम्मीदों का आकाश हमेशा इतना विस्तृत रखता है कि कोई कितनी भी कोशिश करे, उसे कभी इतने चांद-सितारों से भर नहीं सकता कि वह दिन-रात जगमगाता ही रहे।
पिछले दस सालों की अखबारों की फाइलें उठा कर देख लें, मनमोहन सिंह ने इतना किया, इतना किया, फिर भी यह वर्ग हमेशा चीखता-चिल्लाता ही नजर आया कि और आर्थिक सुधार करो, और आर्थिक सुधार करो, और तथाकथित श्रम सुधार करो और करते जाओ ताकि मजदूर वर्ग को पीस कर मिट्टी में मिला दिया जाए। विदेशी पूंजी निवेश को और प्रोत्साहन देते चले जाओ, रुको नहीं, थमो नहीं, इधर-उधर देखो नहीं। इस वर्ग का पेट इतना बड़ा है कि अगर मोदीजी देश का सारा का सारा बजट भी खुशी-खुशी इसे समर्पित कर दें, सारे के सारे कानून इसके हक में बना दें- जो कि औपचारिक-अनौपचारिक रूप से हो ही चुका है- तो भी उसका चीखना-चिल्लाना, उलाहने देना बंद नहीं होगा।
इस वर्ग का यही तरीका है और यही रहेगा। इसलिए मोदीजी को कभी पुचकारते हुए, कभी धमकाते हुए, कभी उनके गुणगान करते हुए यह वर्ग दबाव बना कर अपने काम करवाता रहेगा- देश का विकास करने के नाम पर, और देश का विकास करना मनमोहनजी का भी लक्ष्य था, इनका भी लक्ष्य है।
जब दुरदुराने के बावजूद मीडिया मोदीजी की भक्ति में लीन हो, आलोचनाओं के बावजूद पूंजीपति वर्ग दिलोदिमाग से उनके साथ हो, प्रवासी भारतीय जहां देखो, वहां ‘मोदी-मोदी’ का नारा लगा रहे हों तो ‘स्वाभाविक’ है कि प्रधानमंत्री की आत्ममुग्धता बढ़ते-बढ़ते शिखर छूने लगे। बिना किसी दुर्भावना के कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री तो देश में पहले भी बहुत हुए हैं- जवाहरलाल नेहरू जैसी बड़ी हस्ती से लेकर मनमोहन सिंह जैसों तक- मगर ऐसी आत्ममुग्धता शायद ही किसी में रही हो, जैसी मोदीजी में है। शायद यह आत्ममुग्धता अपनी छवि को बेचने की कुशल रणनीति भी है जिसके झांसे में 2014 में भारत के इकतीस फीसद मतदाता आ गए थे।
अब यह रणनीति देश में तो कामयाब नहीं हो रही है, मगर अब इसकी जबर्दस्त मार्केटिंग विदेशों में करके भारत के संपन्न वर्ग को लुभाने का प्रयास हो रहा है, अपने विरोधियों के मुंह बंद करने की कोशिश भी हो रही है कि नामुरादो, प्रवासी भारतीय जय मोदी, जय मोदी कर रहे हैं, और तुम हो कि भूमि अधिग्रहण विधेयक तक पारित नहीं होने दे रहे हो। तुम्हारे चलते देश का विकास क्या खाक होगा।
वैसे राजनीति में केवल मोदीजी आत्ममुग्ध हैं, यह कहना ज्यादती होगी, मगर वे निश्चित रूप से आत्ममुग्ध नेताओं की जमात के मुखिया हैं। हाल ही में शंघाई में उन्होंने कहा कि उनकी सरकार की पिछले एक साल की इतनी अधिक उपलब्धियां हैं कि इस पर विदेश में रहने वाले भारतीय गर्व कर सकते हैं।
अब वे सीना तान कर, आंखों में आंखें डाल कर विदेशियों की ओर देख सकते हैं। मोदीजी, उनके मंत्री और उनकी पार्टी के नेता ऐसा दावा करने की हिम्मत कर सकते हैं कि मोदी सरकार ने तो एक साल में ही भारत को स्वर्गादपि गरीयसी बना दिया है। विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय इस पर जम कर तालियां भी बजा सकते हैं, क्योंकि ताली बजाना व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के तहत आता है।
मोदीजी को इस पर भी अब गर्व होने लगा है- जो बार-बार व्यक्त होता रहता है- कि वे जमकर काम करते हैं, अवकाश (राहुल गांधी की तरह) नहीं लेते। क्या इसके लिए हमें उन्हें धन्यवाद देना चाहिए? क्या यह उनकी हम सामान्य लोगों पर की गई कृपा है? अगर है तो हमें उन्हें धन्यवाद देने में कंजूसी भी नहीं करनी चाहिए और नहीं है तो उनसे पूछना चाहिए कि प्रधानमंत्रीजी आप बार-बार अपनी कार्यक्षमता के गुण गाकर हमसे आखिर कहना क्या चाहते हैं?
वे कहते हैं तो जरूर वे दिन में अठारह घंटे काम करते होंगे, हालांकि प्रधानमंत्री अगर लंच-डिनर देते या लेते हैं या नाश्ते पर किसी से बातें करते हैं तो यह भी उनके काम में शामिल होता है। वे कहीं अपनी तारीफों के पुल खुद बांधते हैं या दूसरों से बंधवाते हैं तो वह भी उनके काम का हिस्सा माना जाता है और मोदीजी की इस तरह की व्यस्तताएं भी कम नहीं हैं।
वे दिन में चार-पांच बार कपड़े बदलते हैं तो यह भी उनकी प्रधानमंत्री के रूप में कार्यक्षमता का प्रमाण है। अगर वे देश-विदेश में सेल्फी लेते रहते हैं तो कैसे कहें कि यह उनका काम नहीं है। अगर वे एक-दो घंटे योग करते हैं तो यह भी देशहित में किया गया उनका काम है, क्योंकि वे स्वस्थ रहेंगे तो देश स्वस्थ रहेगा।
चलिए वे हम पर निरंतर कृपा बरसाते रहते हैं तो हम भी उन पर कृपा करके उस सब को उनका काम मान लेते हैं और यह भी मान लेते हैं कि वे बेहद मेहनती हैं और अगर उन्हें इस बात से खुशी मिलती है कि वे अब तक के सबसे मेहनती प्रधानमंत्री हैं तो चलिए यह भी मान ही लेना चाहिए। लेकिन वे शायद आत्ममुग्धता में भूल रहे हैं कि यही दावा पहले मनमोहन सिंह के बारे में भी किया जाता था, हालांकि मोदीजी के विपरीत वे अपना यह गाना खुद नहीं गाते थे, दूसरे गवैयों की प्रतिभा पर वे भरपूर भरोसा करते थे।
मनमोहन सिंह के बारे में भी बताते हैं कि वे चैन से नहीं बैठते थे, हालांकि वे इसका दावा शायद इसलिए भी नहीं करते थे कि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि वे बेचैन रह कर किसकी सेवा कर रहे हैं। वैसे उनकी उम्र मोदीजी से काफी ज्यादा थी, उन्हें बीमारियां भी थीं, वे सार्वजनिक जीवन में मोदीजी जितने व्यस्त भी नहीं रहते थे, सेल्फी का उन्हें शौक भी नहीं था, इसलिए वे अपना कीमती वक्त इसमें बरबाद नहीं किया करते थे यानी उनका काम (अगर वह वाकई काम था, फाइलें निबटाना, मीटिंगें करना और मंत्रियों को भ्रष्टाचार करने देना नहीं था।) परिमाण में मोदीजी से ज्यादा ही रहा होगा, कम नहीं। फिर भी लोगों ने उन्हें बुरी तरह ठुकरा दिया और उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया, जहां से कम से कम उनका निकलना मुश्किल होगा।
इसलिए प्रधानमंत्रीजी, महत्त्व सिर्फ इसका नहीं है कि कौन कितने घंटे काम करता है, महत्त्व इसका है कि काम जो वह करता है क्या है, किसके लिए वह करता है। मोदीजी गरीबों के लिए काम करते हैं इसका दावा वे जरूर बार-बार किया करते हैं और अपने चाय बेचने वाले अतीत को अब भी खूब भुनाया करते हैं, मगर वे काम किसके लिए करते हैं, किसकी सेवा करते हैं, यह लोगों को अच्छी तरह मालूम है। उनके द्वारा सेवित वर्ग भी ठीक वही है, जो मनमोहन सिंह द्वारा सेवित था।
ऐसा नहीं है कि इस देश में मोदीजी और मनमोहनजी के अलावा कोई काम ही नहीं करता, कि इस गर्म देश में बाकी लोग आरामतलब पैदा होते हैं और आरामतलबी में ही मर जाते हैं। उनके अलावा भी करोड़ों लोग हैं, जो अठारह-अठारह, बीस से उनतीस घंटे काम करते हैं।
बॉलीवुड के कई सितारे और फिल्म निर्देशक तक इससे कम काम नहीं करते। अपनी फिल्म को सफल बनाने के लिए वे जी-जान लगा देते हैं, कोई मसाला मिलाना नहीं छोड़ते, लेकिन उनकी अधिकतर फिल्में फिर भी पिट जाती हैं, कुछ के आने का तो पता चलता है मगर जाने का नहीं, गूगल के गड््ढे में समा जाने का नहीं, भूकम्प में धराशायी हो जाने का नहीं।
बड़े-बड़े पूंजीपति भी कोई हमेशा मौज नहीं मनाते रहते होंगे। जिस तरह मोदीजी अठारह-अठारह घंटे काम करते हैं, वे भी अपनी पूंजी को दिन दूना और रात चौगुना करने के लिए तिकड़में करते होंगे, लेकिन वे नमक और तकिये से लेकर कार बनाते हैं और आइल रिफाइनरी चलाते हैं, इससे वे महान नहीं हो जाते। और देश के गरीब तो सोलह-सोलह, अठारह-अठारह घंटे काम करते ही हैं, कई बार तो चौबीस-चौबीस घंटे भी ड्यूटी पर रहते हैं और ऊपर से भूखे पेट या अधपेट भी रहते हैं, लेकिन इससे उनकी किस्मत बदल नहीं जाती, बिगड़ ही जाती है अक्सर।
इनमें से न जाने कौन कहां, कब मर जाता है, किसी को खबर भी नहीं होती, वह जिंदगी में कौन-कौन से नरक भोगता है, बिना आत्महत्या किए न जाने कितनी बार मरता है, यह किसी को मालूम नहीं पड़ता।
इसलिए बहुत हो चुका यह गाना कि प्रधानमंत्रीजी आप बहुत काम करते हैं, आपकी सेहत वैसे बहुत अच्छी है, मगर उसे और भी अच्छा बनाने के लिए योगादि को अधिक समय देने वास्ते अगर आप कुछ कम भी काम करें, कम विदेश यात्राएं करें, मोदी-मोदी कम सुनें तो भी देश का कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। ज्यादा काम करके भी 2019 के चुनाव में वही होगा, जो कम काम करके होगा। देश के नागरिकों को प्रधानमंत्री इतना काम करने के अहसानों के तले दबा दें, यह ठीक नहीं। वैसे भी अगर मोदी सरकार के इस एक साल में ही हम इस लायक हो गए हैं कि सिर उठा कर, आंखों में आंखें मिला कर चल सकते हैं तो अगले चार सालों में बहुत करने की जरूरत वैसे भी नहीं रह जाती, क्योंकि इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि हमारा सिर और आंखें जो पहले झुकी रहती थीं, उठी रहने लगी हैं।
अरुण जेटलीजी कह रहे हैं कि हमने पिछले एक साल में राजनीतिक शब्दावली से भ्रष्टाचार शब्द को निकाल फेंका है तो यह भी बहुत बड़ी उपलब्धि है। भारत की जनता तो इसी के लिए मोदीजी के गुण वर्षों तक गाती रहेगी। मोदीजी कहते हैं कि दुनिया उन पर ज्यादा विश्वास करती है तो अंतरराष्ट्रीय जगत में यह उपलब्धि भी बहुत बड़ी है। तो एक साल की अत्यधिक मेहनत काफी है, आप चाहें तो अगले चार साल तक भारत यात्रा पर बार-बार आते रह सकते हैं।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta