अनिल प्रकाश
आज हिमालय से लेकर गंगासागर तक पूरी गंगा घाटी संकटग्रस्त है। दसियों करोड़ लोगों की जीविका, उनका जीवन और जीव-जंतुओं और वनस्पतियों तक के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। एक समय राजीव गांधी ने गंगा की सफाई की योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा और उसकी सहायक नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही गया। मनमोहन सिंह के समय तक गंगा सफाई के नाम पर पैंतीस हजार करोड़ रुपए विभिन्न मदों में खर्च हुए ऐसा भी कई लोग बताते हैं। उन्होंने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। लेकिन कुछ हुआ नहीं। मोदी सरकार ने भी गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन-तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। लेकिन गंगा का सवाल जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं।
यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल और स्वच्छ रखने के लिए कृषि, उद्योग, शहरी विकास और पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। अभी जो बाजारवादी और कॉरपोरेटी समाधान सामने लाए जा रहे हैं उनसे पूरी गंगा घाटी और उसके आसपास बसे लोगों की जीविका, नदी पर उनके सामुदायिक अधिकार, खेती और उनकी बसाहट भी क्षतिग्रस्त हो जाएगी।
दरअसल, ‘गंगा को साफ करने’ या ‘क्लीन गंगा की अवधारणा’ ही सही नहीं है। सही अवधारणा तो यह होनी चाहिए कि ‘गंगा को या नदियों को गंदा मत करो’। काफी हद तक शुद्धीकरण तो नदियां खुद करती हैं। नदी-जल में बड़ी संख्या में एककोशीय प्लैंक्टन होते हैं, जो सूर्य की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं। गंदी चीजें सोख लेते हैं और आॅक्सीजन छोड़ते हैं। यही नदी के स्वयं शुद्धीकरण की प्रक्रिया है। गंगा में और भी विशेष गुण हैं। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को गंगा के स्वच्छ जल में डाल कर देखा तो पाया कि चार घंटे बाद हैजे के विषाणु नष्ट हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्ला करने से या भैंसों के गोबर करने से गंगा या कोई अन्य नदी प्रदूषित होती है तो यह हंसने की बात ही होगी।
कुछ वर्ष पहले आगरा में यमुना नदी में तैर कर नहा रही पैंतीस भैंसों के मालिकों को पुलिसवाले पकड़ कर थाने ले आए थे। भैंसवालों ने कई दिन बाद बड़ी मुश्किल से भैसों को थाने से छुड़ाया। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्टरियों के मालिक या शहरी मल-जल बहाने वाले नगर निगम के अधिकारी कभी पुलिस के निशाने पर नहीं रहे। ऐसे तो नदी के प्रदूषण के कई कारक हैं, लेकिन पहले हम उनके तीन प्रमुख कारकों की चर्चा करते हैं।
नदियों के प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों और रंगीन या काले तरल (एफ्लूएंट) का गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि दलील देते हैं कि गंगा के प्रदूषण के लिए औद्योगिक अपशेष सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आंकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है। लेकिन जितना भी अपशेष गिरता है वह कम नहीं है। जब कल-कारखानों या ताप बिजलीघर का गरम पानी और जहरीला रसायन नदी में गिरता है तो नदी की स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है। इससे नदी में डेड जोन बन जाते हैं।
गंगा में जगह-जगह एक किलोमीटर से बीस किलोमीटर तक के डेड जोन बन गए हैं। इस जोन से गुजरने वाली कोई मछली, डॉल्फिन या कोई अन्य जीव-जंतु और वनस्पति जीवित नहीं बचते। नदी के अंदर के इन मौत के इलाकों को समाप्त करने के लिए औद्योगिक कचरा गिराने पर सख्त पाबंदी जरूरी है। कानून बना कर ऐसी फैक्ट्रियों को सील करना पड़ेगा और उनके मालिकों/ प्रबंधकों को कानून का उल्लंघन करने पर जेल भेजना होगा। जरूरी हो तो ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिए उद्योगों को सबसिडी दी जा सकती है। अन्यथा निर्मल गंगा की रट लगाना बंद कर देना चाहिए।
अभी देश की लगभग चालीस प्रतिशत कृषिभूमि की सिंचाई का प्रबंध है। इसी सिंचित भूमि में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का ज्यादा प्रयोग होता है। खेतों से बह कर ये रसायन नदी में पहुंचते हैं और जीव-जंतुओं और वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थितिकी को बिगाड़ देते हैं। इन रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों से हमारी खेती भी ऊसर होती जा रही है और फलों-सब्जियों और अनाजों के माध्यम से लोगों के खून में जहर पहुंच रहा है। लोग कैंसर, मिस्कैरेज और अन्य घातक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। गंगा और अन्य नदियों को प्रदूषण-मुक्त रखने के लिए रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सबसिडी (जो लगभग एक लाख करोड़ रुपए सालाना के आसपास होती है) को बंद करके यह राशि जैविक खेती करने वाले किसानों को दी जानी चाहिए। इसके बिना न तो नदी स्वस्थ और निर्मल रहेगी और न ही मनुष्य स्वस्थ रह सकेगा। जैविक खेती में खेती की लागत भी घटती है और किसानों का मुनाफा भी बढ़ता है।
शहरों के सीवर और नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करने की बातें बहुत हो चुकी हैं। लेकिन नतीजा अभी तक दिखाई नहीं पड़ा है। शहरी मल-जल से कुछ शहरों में खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लाया जाता है। इस ट्रीटेड पानी को भी नदी में नहीं गिराना चाहिए, क्योंकि उसमें इतना कॉलीफार्म बैक्टिरिया होता है, जो नहाने के लिए भी उचित नहीं है। इसका उपयोग उद्योगों और सड़कों, ट्रेनों आदि के धोने में किया जा सकता है। ऐसा प्रयोग गंगा और अन्य नदियों के सभी शहरों-कस्बों में किया जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा और असि नदी गंगा में मिलती हैं। ये नदियां शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती हैं। अब तो भू-माफिया वरुणा और असि के किनारे मिट्टी भर-भर के उस पर मकान भी बनवाने लगा है। चिराग तले के इस अंधेरे को दूर करने की शुरुआत हो तो अच्छा रहेगा।
गंगा और अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ों लोगों पर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन इनसे जुड़ा है। लगभग नौ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों के प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा में हिमालय क्षेत्र में टिहरी और अन्य स्थानों पर बांध बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आई है। सोलह बांध बंध चुके हैं, तेरह बांधों का निर्माण जारी है और चौवन बांध प्रस्तावित हंै। एक तो पहले ही हिमालय के सघन वनों की कटाई से हिमालय क्षतिग्रस्त था, इन बांधों के कारण हिमालय क्षेत्र में तबाही मचने का सिलसिला शुरू हो चुका है।
दुनिया की पर्वत शृंखलाओं में हिमालय सबसे नया पहाड़ है। हिमालय क्षेत्र में हर साल लगभग एक हजार भूकम्प के झटके आते हैं। कभी-कभी भीषण भूकम्प की आशंका भी रहती है। इसलिए एक नई हिमालय नीति की भी जरूरत है। विनाशकारी बांधों का निर्माण रोका जाना चाहिए और निर्मित बांधों की साइंटिफिक डीकमीशनिंग होनी चाहिए। क्या सरकार इस दिशा में सोचने की हिम्मत जुटा सकेगी?
जब नदी की गहराई कम हो जाती है तो पानी फैलता है और कटाव और बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह और मुर्शिदाबाद जिलों में भारी कटाव हुआ है। स्कूल, अस्पताल और गांव बह गए हैं। लाखों लोग तटबंधों पर झोपड़ी बना कर रहने को विवश हैं। इसके साथ ही बिहार में भी बाढ़-कटाव का प्रकोप बहुत बढ़ा है। जल-जमाव बढ़ने के कारण डेढ़ करोड़ एकड़ से ज्यादा भूमि ऊसर हुई है। हर साल लगभग पचहत्तर हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि ऊसर होती जा रही है।
फरक्का बराज के करण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गई। फिश लैडर बाल-मिट््टी से भर गया (ऐसा दुनिया के ज्यादातर बराजों में हुआ है)। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा की ब्रीडिंग इलाहाबाद से ऋषिकेश के बीच के मीठे पानी में होती है। इसके रुक जाने के कारण गंगा में सैंतालीस किस्म की मछलियां समाप्तप्राय हो गर्इं। गंगा और उसकी सहायक नदियों में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा मछलियां समाप्त हो गई हैं। इससे भोजन में (खासकर गरीबों के) प्रोटीन की भारी कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के शहरों से लेकर गांवों तक के लोग आज आंध्र प्रदेश से लाई जा रही मछली खाते हैं। मछली से जीविका चलाते हुए भरपेट भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए।
जब गडकरी साहब ने इलाहाबाद से डायमंड हारबर तक सोलह बराजों के निर्माण की बात शुरू की तो गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी। गंगा में नावों और छोटे जहाजों से नौपरिवहन क्यों नहीं हो सकता? विशाल जहाजों को चलाने के लिए बराजों के निर्माण से गंगा छोटे-छोटे तालाबों में बदल जाएगी। इससे गंगा-जल की गुणवत्ता काफी घट जाएगी। कौन नहीं जानता- ‘बंधा जल गंदा, बहता निर्मल होए’। गंगा की उड़ाही (डी-सिल्ंिटग) की बात तो ठीक है, लेकिन बराजों की शृंखला खड़ी करके गंगा की उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं है।
अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर इसी तरह के बराज बने थे, लेकिन उससे फायदे की जगह भारी नुकसान होने लगा। पिछले पंद्रह साल से अमेरिकी सरकार उन बराजों की डीकमीशनिंग करवा रही है, यानी तुड़वा रही है। ध्यान देने की बात है कि मिसिसिपी घाटी में जितनी गाद हर साल आती है उससे दोगुनी गाद गंगा घाटी में आती है। गंगा महाराष्ट्र या दक्षिण भारत की नदी नहीं है। यह भारी मात्रा में गाद प्रवाहित करने वाले हिमालय की नदी है। इसके साथ इस प्रकार की छेड़छाड़ तबाही को ही जन्म देगी।
गंगा किनारे रिवर फ्रंट बनाने या उसे पिकनिक स्पॉट बनाने और मुनाफे के लिए ऐयाशी के अड््डे खड़े करने की कोशिश पूरे गंगा क्षेत्र को सेक्स टूरिज्म के अड्डों में बदल देगी, जैसा दुनिया के अनेक समुद्रतटीय हिस्सों में हुआ है। अगर ऐसा हुआ तो न केवल हमारी संस्कृति को खतरा होगा, बल्कि धर्म के नाम पर यह घोर अधार्मिक कृत्य भी हो जाएगा। लगता है केंद्र सरकार ने इन पहलुओं पर विचार नहीं किया है। अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट ठेकेदार तो गंगा का बाजारीकरण करके भारी मुनाफा कमाना चाहते हैं। भारत सरकार को इस परियोजना को आगे बढ़ाने से पहले सभी पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए।
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