बनवारी
पश्चिमी शिक्षा ने हमारी राजनीतिक बुद्धि को कितना कुंद कर दिया है, इसका प्रमाण आधुनिक राज्य व्यवस्था के बारे में हमारी अधकचरी समझ है। इस अधकचरी समझ के कारण ही स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हम यह तय नहीं कर पाए कि हमारे सभ्यतागत स्वभाव और संस्कार के अनुरूप हमारी राज्य व्यवस्था क्या हो। महात्मा गांधी के नेतृत्व में हमने जो स्वतंत्रता संग्राम छेड़ा था, उसका लक्ष्य स्वराज्य की प्राप्ति था। लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता पाते समय हमने अंगरेजों के बनाए राज्य-तंत्र को अधिकांश में ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। संविधान सभा में इस पर आपत्ति हुई, पर वह इतनी कमजोर थी कि अपने विधान को सम्यक बनाने की दिशा में बहस को आगे नहीं बढ़ा पाई।
स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था क्या हो, इसे लेकर महात्मा गांधी और कांग्रेस के दूसरे नेताओं में भारी मतभेद था। कांग्रेस के अधिकतर नेता पश्चिमी यूरोप की बीसवीं सदी की राजनीतिक घटनाओं को देखते-पढ़ते पले-बढ़े थे। पश्चिमी यूरोप में जिस तरह की डेमोक्रेसी पनपी थी, उससे वे बहुत प्रभावित थे। अंगरेजी शिक्षा ने पश्चिमी डेमोक्रेसी के स्वरूप और इतिहास के बारे में उन्हें जो सिखाया था, उसके पार जाकर देखने का न उनके पास समय था और न उनकी वैसी कोई जिज्ञासा थी। यह केवल राजनेताओं की ही विफलता नहीं थी। हमारा शैक्षिक समुदाय राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत होने के बावजूद यह स्पष्ट करने में पूरी तरह विफल रहा कि भारत की अपनी परंपरागत राज्य व्यवस्था किन सिद्धांतों पर खड़ी थी। उनके लिए यह असंभव नहीं होना चाहिए था, क्योंकि तब तक भी देश के लगभग चालीस प्रतिशत भाग में भारतीय रजवाड़ों का ही शासन था।
महात्मा गांधी समय-समय पर स्वराज्य के बारे में अपनी अवधारणा स्पष्ट करते रहे थे। स्वराज्य के रूप में भारतीय राज्य व्यवस्था को निरूपित करने वाले वे कोई पहले व्यक्ति नहीं थे। श्रृंगेरी के शंकराचार्य विद्यारण्य स्वामी ने स्वराज्य की स्थापना के लिए ही विजयनगरम राज्य की स्थापना करवाई थी। समर्थ रामदास ने भी शिवाजी को स्वराज्य की ही प्रेरणा दी थी। हमारे अपने समय में स्वराज्य का उल्लेख पहले स्वामी दयानंद कर चुके थे। फिर भी स्वराज्य के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की व्याख्या आसान नहीं थी। तेरहवीं शताब्दी से भारत में जिस विदेशी शासन की नींव पड़ी थी, उसने हमारी अपनी शैक्षिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं को निर्जीव कर दिया था। वे व्यवस्थाएं स्थानीय स्तर पर बनती-मिटती रहती थीं। लेकिन हमारे सार्वजनिक राष्ट्रीय जीवन में उनकी स्मृति शेष होती गई। इसलिए उन व्यवस्थाओं के बारे में अनभिज्ञता जताते हुए जब कांग्रेस के धुरंधर नेता महात्मा गांधी से अपनी असहमति जता रहे थे तो उन्होंने एक थके हुए वृद्ध नेता की तरह भारत की भविष्य की राज्य व्यवस्था का प्रश्न भगवान पर और देश के साधारण लोगों के विवेक पर छोड़ दिया।
पिछले छह-सात दशकों में भारतीय संविधान को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढालने का नारा अनेक बार लगा है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले जनांदोलन का भी यह एक बड़ा बिंदु था। लेकिन जब तक आधुनिक राज्य के बारे में हमारी समझ गहरी नहीं होती और स्वराज्य की भारतीय राज्य व्यवस्था के बारे में हमारी अनभिज्ञता दूर नहीं होती, इस समस्या का कोई हल निकलने वाला नहीं है। निश्चय ही इसके लिए एक बड़ा राजनीतिक संकल्प चाहिए। पर इस संकल्प के लिए जो वैचारिक आधार चाहिए, जब तक वह विकसित नहीं होता, हम अपने नेताओं से बहुत अपेक्षा नहीं कर सकते। इसका आरंभ तो स्वराज्य के स्वरूप के बारे में तीव्र जिज्ञासा और आधुनिक राज्य व्यवस्थाओं के स्वरूप और इतिहास की गहरी समीक्षा से ही होगा।
आज दुनिया भर में अनेक तरह की शासन प्रणालियां हैं। लेकिन उनमें एक बात सामान्य दिखाई देती है कि सब जगह राज्य की स्वीकृति एक केंद्रीय तंत्र के रूप में है और उसे सर्वसत्तावादी अधिकार प्राप्त हैं।
यह शासन-प्रणाली निरंकुश राजतंत्रवादी हो, साम्यवादी हो या डेमोक्रेसी के रूप में हो, सब शासन प्रणालियों में राज्य ही ‘लॉ गिवर’ है, विधि का एकमात्र निर्माता और प्रदाता है। इस आधुनिक राज्य का विकास मुख्यत: पिछली एक शताब्दी में यूरोपीय जाति ने किया है और उसकी शिक्षा का जो विश्वव्यापी प्रसार हुआ है, उसे संसार भर में स्वीकार्य बना दिया है। लेकिन यह आधुनिक राज्य यूरोप के परंपरागत राज्य से अलग है। इसके विकास में यूरोप ने भारत और चीन की राज्य व्यवस्था के कुछ पहलुओं को आत्मसात करते हुए उसे एक आधुनिक स्वरूप प्रदान किया है। इस पच्चीकारी से आधुनिक राज्य का स्वरूप अवश्य बदला है, लेकिन उसका मूल स्वभाव नहीं बदला। इस पच्चीकारी के द्वारा यूरोपीय जाति को यह प्रचारित करने में सफलता मिल गई है कि यह आधुनिक राज्य नए विचारों और नई परिस्थितियों में से विकसित हुआ है, इसलिए वह दुनिया भर के लिए मानक है।
उन्नीसवीं शताब्दी तक विश्व में अनेक राज्य व्यवस्थाएं प्रचलित थीं। इतिहास में हर समाज या देश ने अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी राज्य व्यवस्थाएं विकसित करने का प्रयत्न किया है। विभिन्न समाजों में विचारों का आदान-प्रदान चलता रहा है और उसके आधार पर राज्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन-परिष्कार होते रहे हैं। उन सबके बारे में यहां बात करना संभव नहीं है। यहां मोटे तौर पर तीन राज्य व्यवस्थाओं का उल्लेख आवश्यक है। एक जो यूरोप में विकसित हुई है, दूसरी जो चीन में और तीसरी जो भारत में प्राचीनकाल से प्रचलित रही है। यूरोप में एक शताब्दी पहले तक जो राज्य व्यवस्था प्रचलित थी, उसे औपनिवेशिक राज्य कहा जा सकता है।
इसका विकास यूनान के नगर राज्यों और रोम साम्राज्य के दौर में हुआ था, जिसे बाद में यूरोप में राज्य-तंत्र के फैलने के साथ-साथ स्वीकार कर लिया गया। यह राज्य व्यवस्था विजेता-समूहों के अभिजात शासक वर्ग के रूप में स्थापित किए जाने पर आधारित है। विजित लोग यूनान और रोम काल में दास समझे जाते थे और यूरोपीय राज्य व्यवस्था में भू-दास। इस राज्य व्यवस्था के अंतर्गत अभिजात वर्ग के अतिरिक्त किसी और को शिक्षा, संपत्ति और जीवन का अधिकार नहीं था।
अमेरिका में स्वतंत्र राज्य के उदय, फ्रांसीसी क्रांति और ब्रिटिश शासकों की कराधान बढ़ाने की लालसा ने राज्य के आधार को क्रमश: कुछ विस्तृत किया। इस प्रक्रिया में अभिजात वर्ग उच्च मध्यवर्ग में बदल गया, पर उसके राजनीतिक विशेषाधिकार समाप्त हो गए। सामान्य लोगों को शिक्षा, संपत्ति और जीवन संबंधी अधिकार मिले, लेकिन उसी अनुपात में राज्य की विधायी शक्ति और उसका तंत्र बढ़ गया।
यूरोपीय सभ्यताओं वाले देशों में आधुनिक राज्य को जन-इच्छा से जोड़ने के लिए कई विवादास्पद विषयों पर जनमत संग्रह करवाए गए हैं। लेकिन इस तरह के जनमत संग्रह से सामाजिक और नैतिक विषयों का राजनीतिकरण करने में ही सहायता मिलती है, उससे सामान्य लोगों के मूल अधिकारों या उनके सामुदायिक विवेक की रक्षा नहीं होती। अंतत: उससे केंद्रीय राज्य की शक्ति और स्वीकृति ही बढ़ती है। डेमोक्रेसी में यह भ्रम पैदा होता है कि राज्य जन-इच्छा के अधीन है। लेकिन व्यवहार में पहले के अभिजात वर्ग की जगह एक राजनीतिक वर्ग ने ले ली है, जो चुनाव लड़ने और जीतने में सिद्धहस्त है और राजनीतिक दलों के रूप में संगठित है।
इस दलीय तंत्र के मुखिया और स्थायी नौकरशाही राज्य की शक्ति के वास्तविक संचालक हैं और सामान्य लोगों के जीवन पर उनका संपूर्ण नियंत्रण बना रहता है। उनके निर्णय से ही दोनों महायुद्धों में अनावश्यक ही सात-आठ करोड़ लोगों के जीवन की आहुति दे दी गई थी। उन्हीं का निर्णय अमेरिका को पूंजीवादी बनाए हुए है, फ्रांस को समाजवादी और रूस को साम्यवादी। लेकिन यहां यह याद करना आवश्यक है कि यूरोप के औपनिवेशिक राज्य के इस विस्तार में भारत और चीन की व्यवस्थाओं की पच्चीकारी कब और कैसे हुई।
असल में 1800 के आसपास ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय शासकों का भारतीय और चीनी समाज की राजनीतिक व्यवस्थाओं से निकट परिचय हुआ। इस परिचय के दौरान उन्होंने सीखा कि पुराने भारत में चुनी हुई नगर परिषदें शासन चलाती थीं और चीन से उन्होंने सीखा कि राज्य तंत्र को शासकीय परीक्षा पर निर्भर कर दिया जाए तो अभिजात वर्ग के बाहर से भी योग्य व्यक्तियों को राज्य तंत्र में सम्मिलित किया जा सकता है। इस तरह औपनिवेशिक राज्य को आधुनिक राज्य का स्वरूप मिला। लेकिन इसके अंतर्गत सामान्य लोगों को मिले सभी अधिकार राज्य-तंत्र की ही इच्छा के अधीन हैं और उन्हें कभी भी निरस्त किया जा सकता है।
परंपरागत चीन में राज्य सम्राट को केंद्र में रख कर खड़ा हुआ था। लेकिन उसका व्यवहार राजधर्म के अधीन था, जिसे चीनी समाज द्वारा लंबे समय में विकसित-स्वीकृत किया गया था। यूरोप में तो समाज जैसी कोई स्वतंत्र सत्ता थी ही नहीं, चीन में यह मान्यता सदा रही है कि अगर सम्राट राजधर्म का उल्लंघन करे तो वह देव स्वीकृति खो देता है और फिर प्रजा को अधिकार है कि वह उसको बदल दे।
इस तरह चीन में केंद्रीय सत्ता होते हुए भी उसकी मर्यादा रही है। चीन में भी राज्य की अवधारणा एक केंद्रीय तंत्र के रूप में ही की गई है और राज्य ही समाज की सभी संपत्तियों का स्वामी माना गया है। लेकिन चीन में राजधर्म को सदा लोकहित से जोड़ कर देखा जाता रहा है और इसलिए चीन का सम्राट ऐसा कोई काम नहीं कर सकता, जिससे लोकहित पोषित न होता हो। चीन में उत्पादक वर्ग अर्थात किसानों की ऊंची प्रतिष्ठा रही है, जबकि यूरोप में उन्हें दासवत ही देखा जाता रहा।
भारत में समाज को प्रमुखता दिए जाने के कारण विधि का अधिकार और सभी तरह की संपत्तियों का स्वामित्व सदा समाज की विभिन्न इकाइयों के पास रहा। सभी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक इकाइयां सर्वानुमति के पंचायती सिद्धांत के अनुसार कार्य करती रहीं। भारत में सदा राज्य-तंत्र नीचे से ऊपर की ओर खड़ा किया गया और स्थानीय संस्थाओं को स्वराज्य की मूल इकाई माना गया। कराधान और न्याय का अधिकार भी सदा स्थानीय इकाइयों का रहा है और कराधान में स्थानीय संस्थाओं के साथ ही राज्य का भाग अलग किया जाता रहा है, पहले नहीं। राजा को राजदंड के स्वामी के रूप में देखा गया अर्थात उसकी भूमिका बाहरी शक्तियों से देश की रक्षा करने और समाज की व्यवस्थाओं का आपराधिक भावना से उल्लंघन करने वाले लोगों को दंड देने की और लोकहित के कार्य करने की रही है।
हमारे यहां राजाओं का अधिकार छीन कर महाराजा या सम्राट नहीं बनते थे, स्थानीय सत्ता को अनुलंघीय माना जाता था। आज हमारे यहां जो राजतंत्र है, उसका मूल ढांचा तेरहवीं शताब्दी में ईरानी और तुर्क व्यवस्थाओं के आधार पर मुसलिम शासन में पड़ा और उसका वैचारिक आधार अंगरेजों के माध्यम से आए यूरोपीय प्रभाव से बना। इसलिए हमारे इस राज्य-तंत्र का हमारे समाज से कोई आत्मीय संबंध नहीं बन पाता। बस हम उसे ढोए चले जा रहे हैं।
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