धर्मेंद्रपाल सिंह

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुख्य तर्क एक ही था कि मनमोहन सरकार द्वारा लागू भूमि अधिग्रहण कानून की वजह से विकास का चक्का थम गया है। जो परियोजनाएं स्वीकृत हैं, उनके लिए भी जमीन मिलना लगभग कठिन है। इसीलिए अध्यादेश लाना पड़ा। लेकिन सरकार के इस तर्क की अब धज्जियां उड़ गई हैं। सूचना के अधिकार के तहत सरकार से ही प्राप्त जानकारी के अनुसार केवल आठ प्रतिशत परियोजनाएं जमीन के कारण प्रभावित हुई हैं। शेष बानबे फीसद में विलंब का कारण मंजूरी में देरी और कर्ज मिलने में होने वाली कठिनाई आदि हैं। आज देश के तमाम बैंकों का काफी पैसा उद्योग और कॉरपोरेट जगत के पास फंसा पड़ा है। यह रकम (एनपीए) बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज का चौदह प्रतिशत है जिसके वसूल होने की आशा बहुत क्षीण है। इसीलिए बैंक नया ऋण देने में झिझक रहे हैं। सरकार यह सच न बता कर ठीकरा किसानों के सिर फोड़ना चाहती है।

उक्त तथ्य सामने आने के बाद भाजपा के नेता और मंत्री बचाव में नए-नए तर्क गढ़ रहे हैं। ‘गोल पोस्ट’ बदलने का प्रयास किया जा रहा है। कॉरपोरेट समर्थक और किसान-विरोधी छवि को मिटाने के लिए मोदी सरकार मजदूरों की हितैषी बनने की कोशिश कर रही है। बहस को भटकाने का प्रयास हो रहा है। सरकार सिद्ध करने की कोशिश कर रही है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वह देश के भावी विकास और किसानों से भी कमजोर, भूमिहीन तबके को रोजगार मुहैया कराने के लिए लाई है। बहस को किसान बनाम भूमिहीन मजदूरों के हितों के टकराव में रंगने की कोशिश की जा रही है।

इस टकराव को हवा देने के लिए भाजपा नेता नए-नए तर्क गढ़ रहे हैं। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि देश में तीस करोड़ लोगों के पास कोई जमीन नहीं है। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो जाने पर औद्योगीकरण तेज गति से होगा, जिससे भूमिहीनों को बड़ी संख्या में रोजगार मिलेगा। जेटली के बयान से जुड़ी दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं।

पहली यह कि उन्होंने तीस करोड़ का आंकड़ा कहां से लिया, यह नहीं बताया। मौजूदा अध्ययन उनके बयान की पुष्टि नहीं करते। सरकार ने जुलाई 2013 में राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति का मसविदा जारी किया था जिसमें देश में कुल इकतीस प्रतिशत परिवारों को भूमिहीन दर्शाया गया, लेकिन इसमें भूमिहीन की परिभाषा स्पष्ट नहीं की गई। दूसरी ओर वर्ष 2003-04 की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट में शहरों में पचास फीसद और गांवों में दस फीसद परिवार भूमिहीन बताए गए। अगर एक परिवार में औसत पांच सदस्य माने जाएं तो इस हिसाब से कुल भूमिहीन आबादी बीस करोड़ बैठती है। रिपोर्ट में भूमिहीन परिवार उसे माना गया जिसके पास 215 वर्ग गज जमीन का टुकड़ा भी न हो।

भूमिहीनों पर 2008 में सेंटर फॉर इकॉनामी स्टडी के डॉ विकास रावल ने एक पर्चा तैयार किया, जिसके अनुसार गांवों में 41.63 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं। डॉ रावल के अनुसार गांव में अगर किसी परिवार के पास मात्र रिहायशी जमीन है तो उसे भूमिहीन की परिभाषा से बाहर नहीं किया जा सकता। उनके हिसाब से अकेले गांवों में 41.63 फीसद परिवार (30.7 करोड़ लोग) भूमिहीन हैं। ताजा एनएसएसओ-2013 रिपोर्ट में केवल ग्रामीण इलाकों के आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके अनुसार अब वहां भूमिहीन आबादी दस फीसद से घट कर 7.4 प्रतिशत रह गई है।

उक्त तीनों स्रोत वित्तमंत्री के तीस करोड़ के आंकड़े की पुष्टि नहीं करते। दूसरी बात रोजगार से जुड़ी है। सरकार का तर्क है कि अधिग्रहण से प्राप्त जमीन पर उद्योग लगेंगे, जिनमें गरीब जनता को रोजगार मिलेगा। जबकि औद्योगीकरण की राह में जमीन एकमात्र रोड़ा नहीं होती। जहां भूमि उपलब्ध है, जरूरी नहीं कि वहां रोजगार के अवसर बढ़ ही जाएं।

अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि भूमि अधिग्रहण कानून-1894 के अमल के वक्त भी अस्सी प्रतिशत परियोजनाओं में देरी होती थी। इस कानून के रहते सरकारी एजेंसियों को कुख्यात ‘आपात आवश्यकता’ धारा के तहत बिना पड़ताल और औचित्य के भूमि अधिग्रहण का अधिकार था। अब सरकार भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को जटिल और समय-साध्य बता कर ही कानून में संशोधन करना चाहती है।

मनमोहन सिंह के शासनकाल में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर जम कर जमीन अधिग्रहीत की गई। छूट भी खूब दी गई। बदले में उद्योगों ने बड़े पैमाने पर रोजगार देने का वादा किया था। पिछले वर्ष संसद के पटल पर सेज से जुड़ी नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट रखी गई। रिपोर्ट से पता चलता है कि रोजगार का वादा कभी पूरा नहीं हुआ। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कैसे अधिग्रहीत भूमि का दुरुपयोग हुआ।

रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला ‘लगता है एसइजेड का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और आकर्षक तत्त्व जमीन था। काम केवल 62.42 प्रतिशत जमीन पर हुआ। चौदह प्रतिशत जमीन की अधिसूचना वापस ले ली गई और कई मामलों में ऐसी जमीन के ‘कमर्शियल’ उपयोग की अनुमति दे दी गई। मजे की बात यह है कि अधिकतर भूमि का अधिग्रहण ‘सार्वजनिक हित’ की आड़ में किया गया था।’

सीएजी रिपोर्ट ने समस्त सरकारी दावों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। बताया गया है कि वर्ष 2007-2013 के बीच सेज के नाम पर सरकार से औद्योगिक घरानों ने करीब तिरासी हजार करोड़ रुपए की सुविधाएं तो ले लीं, लेकिन बदले में काम न के बराबर हुआ। कॉरपोरेट जगत ने दावा किया था कि सेज की बदौलत लगभग चालीस लाख नए रोजगार सृजित होंगे, जबकि हकीकत यह है कि लक्ष्य के मुकाबले मात्र आठ प्रतिशत (284785) नई नौकरियां आर्इं। अब फिर नौकरियों की आड़ में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की कोशिश हो रही है।

ताजा एनएसएसओ रिपोर्ट भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004-05 के बाद कृषि में साढ़े तीन करोड़ रोजगार कम हुए हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में जो नए रोजगार आए उनमें तीन चौथाई निर्माण क्षेत्र में हैं। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े कामगारों का हिस्सा बढ़ा नहीं, घटा है। उन्हें काम मिला भी है तो बतौर दिहाड़ी मजदूर मिला है।
ताजा अध्यादेश कुछ संशोधनों के साथ आया है, लेकिन सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन की शर्त समाप्त कर दी गई है। यह कानूनी प्रावधान प्रभावित लोगों का सुरक्षा कवच है, जो दुनिया के अधिकतर देशों में लागू है। जमीन लेने का काम डंडे के जोर से नहीं, सहमति और पारदर्शिता से होना जरूरी है। अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन किए बिना कोई परियोजना लगाने से जन आक्रोश जन्म लेता है जिस कारण परियोजना लगाने में अक्सर देरी हो जाती है, फलस्वरूप लागत भी बढ़ जाती है। सिंगूर का उदाहरण सामने है।

अधिग्रहण की चपेट में आए लोगों के जीवन पर विपरीत असर पड़ना लाजिमी है। विस्थापितों के न्यायसंगत पुनर्वास के लिए उनकी ठीक-ठीक संख्या, रोजगार, आवास और जन-सुविधाओं पर पड़ने वाले असर का जायजा लिया जाना जरूरी है। 2013 के कानून की धारा 4 (5) के अनुसार यह आवश्यक है। कानूनन मूल्यांकन-रिपोर्ट का प्रकाशन और उस पर जन-सुनवाई भी होनी चाहिए। अब सरकार प्रभावित लोगों को बसाने का काम पूरी तरह अधिकारियों के हवाले करना चाहती है। भविष्य में अफसरों के आदेश पर जनता या उसके प्रतिनिधि कोई कारगर एतराज नहीं कर पाएंगे।

आजादी के बाद विकास के नाम पर अधिग्रहीत जमीन के कारण छह करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं, जिनमें से एक तिहाई से भी कम को ठीक से बसाया गया है। अधिकतर विस्थापित सीमांत किसान, खेतिहर मजदूर, मछुआरे और खानों में खटने वाले श्रमिक हैं।

विस्थापितों में चालीस प्रतिशत आदिवासी और बीस प्रतिशत दलित हैं। नब्बे फीसद कोयला, पचास प्रतिशत खनिज और अधिकतर बांध आदिवासी इलाकों में हैं। मतलब यह कि समाज के सबसे कमजोर 3.6 करोड़ लोगों को अनाप-शनाप हुए अधिग्रहण का मूल्य चुकाना पड़ा है। गांव या जंगल से उजड़ जाने पर ये लोग अक्सर महानगरों और नगरों में फैली झुग्गी-झोपड़ियों की ‘शोभा’ बढ़ाते हैं।
एक बात और बताना जरूरी है। अकेले केंद्र सरकार के पास जमीन अधिग्रहण के तेरह अन्य कानून हैं। और इन कानूनों के तहत ही किसानों से कौड़ियों के भाव जमीन ली जाती है। यह तथ्य चौंकाता है कि देश में पंचानबे प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत नहीं होता। मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून के तहत अन्य कानूनों में भी बदलाव किया जाना था। अध्यादेश के बाद यह प्रक्रिया थम गई है। हमारे संविधान में भूमि विकास राज्यों का विषय है, जबकि भूमि अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है। मतलब यह कि जमीन अधिग्रहण कानून केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार भी बना सकती है।

महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे औद्योगिक दृष्टि से संपन्न राज्यों की सरकारें ज्यादातर भूमि अधिग्रहण अपने कानूनों के तहत करती हैं। महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने अपने औद्योगिक विकास कानून के तहत अठहत्तर गांवों की 67500 एकड़ जमीन किसानों से ली। राज्य सरकार की योजना मुंबई-दिल्ली कॉरीडोर के साथ लगी इस जमीन को विकसित कर उस पर बस्तियां बसाने और उद्योग लगाने की है। तमिलनाडु सरकार ने भी चेन्नई हवाई अड्डे के विस्तार और विकास के नाम पर किसानों से हजारों एकड़ जमीन ली है। इस जमीन का अधिग्रहण केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत न कर राज्य सरकार ने अपने ‘डेवलपमेंट एंड एक्जिक्यूशन आॅफ लैंड फॉर इंडस्ट्रियल परपज’ कानून के तहत किया। राज्य सरकारों के कानूनों के अंतर्गत अधिग्रहीत भूमि का मुआवजा तो कम है ही, उजाड़े गए किसानों या प्रभावित लोगों के पुनर्वास का भी इनमें कोई प्रावधान नहीं है।

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर सियासत गरम है। दो माह के अज्ञातवास से लौटे राहुल गांधी ने लोकसभा में आरोप लगाया कि केंद्र में ‘सूट-बूट’ की सरकार है, जो किसान-मजदूर विरोधी और कॉरपोरेट समर्थक है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी जमीन के मुद्दे पर मोर्चा खोल रखा है। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से विपक्ष के दुष्प्रचार का करारा जवाब देने की अपील की है। निश्चय ही इस अध्यादेश से सरकार की छवि को गहरी चोट पहुंची है। और तो और, भाजपा की सहयोगी पार्टियां शिवसेना और अकाली दल भी अध्यादेश के मौजूदा प्रारूप से नाखुश हैं। जबकि केंद्र सरकार जल्द से जल्द नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू करना चाहती है।

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