विनोद कुमार
मोदी ने आखिरकार मन की बातें कह दीं, इस अंदाज से मानो वे किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून पर वैसे बहस तो देशव्यापी चल रही है, टीवी चैनलों से लेकर प्रिंट मीडिया तक। लेकिन मूलभूत सवाल सिरे से नदारद नजर आता है। मसलन, भूमि भी एक अचल संपत्ति ही है। संविधान किसी को यह अधिकार नहीं देता कि किसी की संपत्ति को जब्त कर ले। जिंदल, मित्तल, अदानी, अंबानी सहित देश के कॉरपोरेट घरानों के पास अकूत संपत्ति है। लेकिन कभी भी ऐसा नहीं सुनने में आया कि राष्ट्रहित के नाम पर उनकी संपत्ति का अधिग्रहण हो गया हो। सहारा-शीर्ष ने गरीब जनता का पैसा ठगी से इकट्ठा कर विशाल साम्राज्य खड़ा कर रखा है। यह बात देश और अदालत के सामने शीशे की तरह साफ है, बावजूद इसके अदालत को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है कि उनकी संपत्ति को नीलाम कर या किसी अन्य तरीके से गरीबों को पैसा लौटाया जाए।
लगभग तमाम चर्चित औद्योगिक घराने बैंकों की विशाल धनराशि, जिसका बड़ा हिस्सा सर्वसाधारण की ही बचत से बैंकों में इकट्ठा होता है, दबाए बैठे हैं। लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, उलटे ‘बुरे ऋण’ (बैड डेब्ट) के नाम पर समय-समय पर उन्हें माफ कर दिया जाता है। फिर आप किसी गरीब की जमीन, जो उसके जीवन का आधार है, को कैसे बिना उसकी मर्जी के जब्त कर सकते हैं? पांचवीं, छठी अनुसूची के बाहर की जमीन तो उनकी मर्जी से कोई भी खरीद सकता है। फिर ऐसे किसी कानून की जरूरत क्यों आन पड़ी?
सवाल यह भी है कि यह सब विकास के नाम पर होता है। क्या विकास में जनता की भागीदारी जरूरी नहीं? आप तथाकथित विकास के नाम पर जो भी योजनाएं बनाते हैं, क्या उनके बारे में जनता को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार नहीं? गांव में तालाब बने, नहर बने, सड़क या पुलिया, इसमें गांव वालों की राय जरूरी नहीं? ये खुदाई फौजदार कौन हैं जो दिल्ली में बैठ कर गांव-घर की योजनाएं बनाते हैं? और अगर पिछले साठ-पैसठ वर्षों में इस तरह से बन रही योजनाओं से गांवों का, आम आदमी का कोई भला हुआ होता, तो भी कोई बात होती, लेकिन जो हाल है आम आदमी का, वह किसी से छिपा नहीं।
बहुत-से लोग यह तर्क देते हैं कि उद्योग-धंधा बढ़ेगा तो रोजगार मिलेगा। कभी इस तथ्य का मूल्यांकन हुआ कि अब तक जो उद्योग-धंधे विकसित हुए, उनसे संगठित क्षेत्र में कितने रोजगार का सृजन हुआ? जो वास्तव में भूमि अधिग्रहण से उजड़े, विस्थापित हुए, उस समुदाय विशेष से कितने लोगों को नौकरी मिली? क्या मोदी सरकार के पास कोई रूपरेखा है कि आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र में कितने नियमित रोजगार का सृजन होने वाला है? यह सवाल मौजूं इसलिए है, क्योंकि रोजगार पैदा करने वाले सार्वजनिक उद्योगों में रोजगार निरंतर सिमटता जा रहा है। मसलन, बोकारो इस्पात संयंत्र में शुरुआती दौर में बावन हजार लोगों को नियमित रोजगार मिला था, वहां अब महज बीस-बाईस हजार कर्मचारी रह गए हैं। निजी क्षेत्र की टिस्को में किसी जमाने में बीस हजार कर्मचारी कार्यरत थे, अब चार-पांच हजार रह गए हैं। नई तर्ज की कंपनियां तो सिर्फ टेक्नोक्रैट और बाबू किस्म के लोगों को नियमित रोजगार देती हैं। शेष काम तो ठेका श्रमिकों से कराने के चक्कर में रहती हैं।
आइए हम प्रधानमंत्रीजी के मन की बातों के आधार पर ही इस प्रस्तावित कानून की पड़ताल करें। उनका कहना है कि इस कानून का विरोध किसानों को गरीब बनाए रखने की साजिश है। क्या है इसका मतलब? मतलब यह कि जमीन बेचने से रोक कर हम किसानों का अहित करेंगे। उन्हें जमीन से मुक्त होना चाहिए ताकि वे रोजगार के अन्य उपायों से बेहतर कमाई कर सकें। यही बात झारखंड बनने के बाद पहले मुख्यमंत्री बने बाबूलाल मरांडी कहते थे। यानी आदिवासी को अपनी जमीन बेचने का हक होना चाहिए। जमीन बेच कर वह धन्नासेठ बन जाएगा। शहर में रह सकेगा। बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा सकेगा, आदि।
विडंबना यह कि हर किसी के पास पूंजी से पूंजी बनाने-बढ़ाने की कला नहीं होती। इसमें कुछ ही लोग महारत रखते हैं। जमीन बेच कर जो राशि हाथ में आती है वह फुर्र हो जाती है। उसके बाद जीवन चलाना और भी दूभर हो जाता है। रांची शहर में रिक्शा खींचने वाल अस्सी फीसद आदिवासी ही हैं। जीवन चलाने के लिए नियमित रोजगार चाहिए। यह कहां से आएगा?
मोदी कहते हैं कि बहुत जरूरी होने पर ही उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण होगा। इसका मतलब यह हुआ कि जो जमीन उपजाऊ नहीं, या कम उपजाऊ है, उसके अधिग्रहण में तो किसी तरह की नैतिक अड़चन ही नहीं है। हमारी सभ्यता में उपजाऊ जमीन का मतलब बहुफसली जमीन से, सिंचित जमीन से लगाया जाता है। उस लिहाज से तो आदिवासीबहुल झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, झालिदा, बांकुड़ा की जमीन तो पूरी की पूरी ढाड़ या बंजर या कम उपज वाली है। सिंचाई की सुविधा भी नाममात्र की। बावजूद इसके वे आदिवासी आबादी के जीवन का आलंबन हैं। बारिश आधारित धान की एक फसल से ही आदिवासी जनता को पूरे साल की न सही, चार-पांच महीनों की खुराकी प्राप्त होती है। शेष महीने वनोत्पाद पर निर्भर हैं। फिर आसपास के इलाकों में थोड़ी-बहुत मजूरी कर ली।
यह जमीन निकल गई तो क्या होगा उनके जीवन का? जीवन अनुदानों से, भीख से नहीं चलता। जीवन चलाने के लिए आलंबन चाहिए। क्या हमें यह समझ नहीं कि हमारे देश में सबसे दयनीय स्थिति दलितों की है और उसकी एक वजह यह कि दलित समुदाय के पास जमीन नहीं है, कुछ अति पिछड़ी जातियों के पास भी नहीं है। वे भूमिहीन मजूर हैं। पूरे उत्तर भारत में वे बासगीत के पर्चे के लिए हाल तक संघर्ष करते रहे हैं और कोई भी सरकार उन भूमिहीनों को बसने की जमीन देने के दायित्व को भी अब तक पूरा नहीं कर सकी है।
इन्फ्रास्ट्रकक्चर यानी बुनियादी ढांचे की बातें सभी करते हैं। क्या है यह बुनियादी ढांचा? गांव में सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल, इसमें रोक कहां हैं? कब इसके लिए जमीन नहीं मिली? क्या वास्तव में जमीन ही समस्या है? एक बार गांव जाकर तो देखिए। गांव की संकरी सड़कें भी सीमेंट की सड़कों में बदल दी गई हैं। बिना एप्रोच वाली सड़कों पर पुलिया बना दी गई है। स्कूल भवन एक बार नियमित रूप से चलने के पहले ही खंडहर में बदल रहे हैं। कहीं शैक्षणिक अनुदान का अभाव, कहीं योग्य शिक्षकों का। अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं। डॉक्टर है तो करीब के शहर में रहता है और कस्बों में प्राइवेट प्रैक्टिस करता है। बुनियादी ढांचे की राह की सबसे बड़ी रुकावट है सरकारी महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार। विकास योजनाओं में जन भागीदारी का अभाव। मोदी कहते हैं कि निजी उद्योग के लिए सहमति का प्रावधान जारी है। लेकिन जमीनी नजारा तो कुछ और है।
जनता किसी योजना से असहमत है, इसके लिए क्या करे? कैसे सरकार समझेगी कि स्थानीय जनता अपने क्षेत्र में खनन नहीं चाहती। उद्योग नहीं चाहती। पोस्को के खिलाफ लगातार आंदोलन हो रहा है। सरकार फिर भी वहां कारखाना लगाने पर तुली है। नियमगिरि इलाके में तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जिला सत्र न्यायालय की उपस्थिति में बारह ग्रामसभाओं की बैठकें हुई और कौंध आदिवासियों ने उस इलाके में बॉक्साइट के खनन को सिरे से नकार दिया। झारखंड के सिंहभूम जिले में जिंदल और भूषण इस्पात कारखाना लगाना चाहते हैं। दोनों इलाकों में लगातार आंदोलन हो रहा है। अब अपनी असहमति जताने के लिए लोग क्या करें?
जिंदल पहले चांडिल क्षेत्र में गया। वह उन विस्थापितों का इलाका है जो चांडिल बांध बनने से विस्थापित हुए थे। सरकारी वादों से छले गए। विस्थापितों ने वहां जिंदल का विरोध किया तो वहां से अपनी योजना पोटका के आसनबनी क्षेत्र में ले गए। आसपास है पोटका और जमशेदपुर शहरी क्षेत्र। सुवर्णरेखा नदी के बगल का यह इलाका कुर्मी समुदाय का है जो जबर्दस्त खेती करते हैं। वे लोग लगातार धरना, ज्ञापन, अधिकारियों का घेराव आदि करते रहे हैं। लेकिन सरकार जिंदल के पक्ष में खड़ी है। प्रशासन उसका लठैत बन गया है। हाता से पोटका जाने वाली सड़क के दोनों तरफ की जमीन भूषण को चाहिए। दोनों तरफ खेती होती है। लोग विरोध कर रहे हैं। दाहिनी तरफ की जमीन एक वोल्टास कंपनी ने किसी जमाने में नौकरी देने के वादे के साथ खरीदी थी। नहीं चली। उसी से भूषण ने जमीन खरीद ली। वहां बस एक लंबी अधूरी चहारदिवारी खड़ी कर ली। प्रतीक्षा है कि स्थितियां अनुकूल बनें तो नए सिरे से आगे की कार्रवाई हो।
सरकारी योजनाओं, थोपी हुई विकास योजनाओं का हश्र क्या होता है, इसका एक अद्भुत उदाहरण है चांडिल बांध। अब तक पच्चीस हजार करोड़ की धनराशि खर्च हो चुकी है। अड़तीस गांव पूर्ण रूप से और अठहत्तर गांव आंशिक रूप से, कुल 116 गांव प्रभावित हुए। प्रस्तावित योजना में दो लाख पचपन हजार हेक्टेयर में जमीन की सिंचाई की बात कही गई थी, लेकिन अकूत जल भंडारण के बावजूद सिंचाई पांच-सात किमी के दायरे में भी नहीं। क्योंकि खेतों तक नहर ही नहीं गई। चांडिल बांध के पानी का इस्तेमाल मुख्यत: कुछ औद्योगिक घरानों के लिए हो रहा है या फिर टाटा कंपनी कर रही है जमशेदपुर के निवासियों को पानी की आपूर्ति करके। वह भी पानी बेच कर। दूसरी तरफ बांध में तेजी से गाद भरता जा रहा है।
साठ के दशक में बोकारो स्टील, सिंदरी खाद कारखाना, हटिया, रांची के एचइसी, पतरातु तापविद्युतघर आदि के लिए विशाल भूखंडों का अधिग्रहण हुआ था। बोकारो स्टील में अधिग्रहीत आधी जमीन का ही इस्तेमाल हुआ। सिंदरी कब का बंद हो चुका है। एचइसी बंदी के कगार पर है। पतरातु तापविद्युत केंद्र से बिजली कम धुआं ज्यादा निकलता है। उनकी जमीन पुराने कानून के तहत मूल रैयतों को वापस हो जानी चाहिए। वैसा हुआ तो नहीं। कम से कम मोदी उन्हीं जमीनों पर नए कारखाने लगवाएं। सिर्फ जमशेदपुर शहर में कई पुराने निजी कारखाने बंद हैं। इंडियन केबल कंपनी बंद है। कृषि उपकरण बनाने वाली एग्रिको में काम नहीं होता, आउटर्सोसिंग से माल बनता है। यानी बाहर से माल लाकर एग्रिको का ठप्पा लगता है। बिहार स्पंज आयरन लिमिटेड बंद है। हांलांकि अर्जुन मुंडा ने अपने मुख्यमंत्रित्व-काल में छत्तीस करोड़ का पुनरुद्धार पैकेज दिया था। मोदी इनकी जमीन अपने नए कॉरपोरेट मित्रों को क्यों नहीं मुहैया करा देते?
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta