पंकज शर्मा
प्रधानमंत्री बनने का नरेंद्र मोदी का सपना देश की जनता ने हुलक कर पूरा किया था, लेकिन जो सपना मोदी ने जनता को दिखाया था, उसके अंकुर तो इस दौरान कहीं फूटते दिखाई दिए नहीं। एक साल पहले ‘मोदी-मोदी’ का जाप कर रहा देश हकबकाया देख रहा है कि आत्म-मुग्धता के सरोवर में स्नान-रत एक प्रधानमंत्री को पसीने से लथपथ भारत के असली मसलों की जैसे कोई चिंता ही नहीं है और किस तरह उसका मन अपनी वैचारिक स्वच्छंदता की लहरों पर अठखेलियां भर कर रहा है।
इस एक साल में भारतीय जनता पार्टी के नाम पर चल रही मोदी की सरकार ने जो कुछ किया है, अगर अगले चार बरस उसे ही चार बार और दोहरा दिया तो 2019 की गर्मियां आते-आते हम एक ऐसे पाषाण-युग में प्रवेश कर चुके होंगे, जिसकी चट्टानें तोड़ कर किसी मीठे झरने की तलाश करने में कई पीढ़ियां खप जाएंगी। आज जिन्हें यह बात बेतुकी लग रही है, वे इस मोदी-वर्ष में हुए फैसलों की एक बानगी देखें।
नरेंद्र मोदी को चूंकि कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना करनी है, इसलिए उन्हें आजादी के बाद कांग्रेस के किए सामाजिक कामों की जड़ों में भी मट्ठा डालना है। चूंकि कांग्रेस का नाम सुनते ही मोदी के बदन में आग लग जाती है, इसलिए उन्हें उन सभी राष्ट्रीय व्यक्तित्वों, प्रतीकों, संस्थानों, परंपराओं, संस्कारों और कार्यक्रमों को नेस्तनाबूद करना है, जिन पर कांग्रेस की छांह भी पड़ गई हो। सो, मोदी ने आते ही मूर्ति-भंजक की भूमिका अख्तियार कर ली है। उनकी निगाह देश-निर्माण में नेहरू की भूमिका पर नहीं, नेहरू की अंगुलियों में फंसी कैप्स्टन सिगरेट पर है।
मोदी का वश चलता तो वे कंधों के सहारे चलते गांधी को भी खुद ही आड़े हाथों लेते। लेकिन मजबूरियों के चलते यह काम उन्होंने संघ-परिवार के इंटरनेट-गुरिल्लों पर छोड़ रखा है। मोदी को राजधर्म का पालन करने की सीख देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भले कुछ सोचें, मोदी को इंदिरा गांधी का वह पराक्रम भी प्रभावित नहीं कर सकता, जिसने इस महाद्वीप का भूगोल बदल दिया था। मोदी के लिए सावरकर वीर हैं, आतंकवाद की बलि चढ़ी इंदिरा गांधी नहीं। उनके लिए श्यामाप्रसाद मुखर्जी बलिदानी हैं, राजीव गांधी नहीं।
यहां तक भी देश मन मसोस कर रह जाए, क्योंकि मोदी समर्थ हैं और इसलिए उनमें भला कोई दोष कैसे हो सकता है! लेकिन मोदी के भारत में सामाजिक सरोकारों की एक साल में हुई अनदेखी को क्या कोई माफ करेगा? पौने दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की कटौती इस एक बरस में मोदी ने सामाजिक कार्यक्रमों के मद में की है। गरीबों को गरिमामय जीवन का हक देने वाली योजनाओं के आबंटन में मोदी सरकार ने छियासठ हजार करोड़ रुपए कम कर दिए हैं। देश के पिछड़े इलाकों को मिलने वाले अनुदान में से छह हजार करोड़ रुपए इस साल काट दिए गए। अपने ‘मन की बात’ में मोदी कभी यह नहीं बताएंगे, मगर असलियत यही है कि भारत की दो तिहाई आबादी के लिए बनाई गई खाद्य सुरक्षा योजना को लागू करने का उनका कोई मन नहीं है और वे इस कार्यक्रम में लगने वाली एक लाख करोड़ रुपए की रकम का इस्तेमाल कहीं और करना चाहते हैं।
कृषि और सिंचाई का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सत्रह प्रतिशत का योगदान है और आज भी देश की आधी आबादी खेती पर निर्भर है। लेकिन मोदी के नए अर्थशास्त्र को इससे भी कोई लेना-देना नहीं है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के बजट में इस साल साढ़े सात हजार करोड़ रुपए की कमी करने में जब मोदी ने एक बार भी ठिठक कर नहीं सोचा तो पशुपालन और डेयरी विकास के लिए बने कार्यक्रमों में सात सौ करोड़ रुपए की कटौती करते वक्त उनके माथे पर क्या शिकन पड़नी थी?
वे तो इस बरस राष्ट्रीय सिंचाई योजनाओं में भी आठ हजार करोड़ रुपए की कटौती कर उन्हें अपने हाल पर छोड़ चुके हैं और राष्ट्रीय जीवन-यापन मिशन भी उन्हें इतना गैर-जरूरी लगा कि उसके बजट को भी उन्होंने पहले से डेढ़ हजार करोड़ रुपए कम कर दिए हैं।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले कृषि-वृद्धि दर पांच प्रतिशत के करीब थी। मोदी के अपने सिंहासन पर एक साल पूरा करते-करते अगर यह एक प्रतिशत ही रह गई है, खेती लायक जमीन अगर तेजी से घटी है और अनाज के निर्यात में इस साल अगर एक चौथाई की कमी आ रही है तो हम अच्छे नसीब वाले मोदी को कैसे कोस सकते हैं? हमें तो अपनी ही बदनसीबी पर तोहमत मढ़नी होगी। कांग्रेस ने अपने दस बरस में अनाज के निर्यात को साढ़े सात अरब डॉलर से बयालीस अरब डॉलर तक पहुंचा दिया था। लेकिन इससे किसी को क्या?
अपने प्रधान सचिव की नियुक्ति जैसे अदना फैसले के लिए अध्यादेश लाने जैसा अभूतपूर्व काम करने वाले मोदी ने अपने एक साल में पिछली सरकार के जिस अध्यादेश को अपनी मौत खुद मर जाने दिया, वह अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों से निपटने के लिए लाया गया था। इस अध्यादेश में व्यवस्था की गई थी कि जिला स्तर पर विशेष अदालतों का गठन कर मामलों की सुनवाई की जाए और न्याय दिलाने के लिए सरकारी वकीलों की खासतौर पर नियुक्ति की जाए। इस अध्यादेश के जरिए गले में जूतों की माला पहना कर घुमाने जैसे मामलों को भी अपराध की श्रेणी में शामिल किया गया था। एक कदम आगे बढ़ कर मोदी सरकार ने इस साल अनुसूचित जाति उप-योजना का बजट तेरह हजार करोड़ रुपए कम कर दिया और अनुसूचित जनजाति उप-योजना का बजट भी साढ़े सात हजार करोड़ रुपए घटा दिया।
अपने मंत्रियों तक को निजी सचिव चुनने का हक न देने वाले से लोकतंत्र की आधारशिला को मजबूत बनाने की उम्मीद रखने वालों को यह जान कर धक्का लग सकता है कि पंचायत राज व्यवस्था को भुरभुरा बनाने की कवायद भी मोदी-वर्ष में शुरू हो गई है। मोदी सरकार ने पंचायत राज के बजट को 98 प्रतिशत घटा दिया है। 3400 करोड़ का बजट पंचायत राज संस्था को मिला करता था। अपने पहले साल में मोदी ने उसे सिर्फ 94 करोड़ रुपए देने की मेहरबानी की है। पंचायत राज की ही तरह महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना को भी मोदी सरकार की तिरछी भौंहों का इसलिए सामना करना पड़ा है कि उसने कांग्रेसी कुम्हार के चाक पर आकार लिया है। केंद्र ने मनरेगा के लिए राज्यों को धन देने से हाथ खींच लिया है और छह हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम रोक ली है।
अपनी हर सभा में भारत माता का जयकारा बुलवाने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने माताओं और बच्चों की भलाई के लिए शुरू की गई योजनाओं में भी दस हजार करोड़ रुपए की कटौती अपने पहले साल में की है। भाजपा सरकार की महिला और बाल विकास मंत्री तक ने वित्तमंत्री को चिट्ठी लिख कर कहा कि इससे सामाजिक कामों पर तो उलटा असर पड़ेगा ही, राजनीतिक नुकसान भी भुगतना पड़ेगा। लेकिन परदेसी दौरों में बच्चों के गालों को थपकाने और माताओं के साथ मुस्कान भरी सेल्फी खिंचवाने में विशेष दिलचस्पी रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री को भारतीय बच्चों की खिलखिलाहट चुराने से कोई गुरेज नहीं है।
इसी का नतीजा है कि अपने पहले साल में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का बजट दस हजार करोड़ रुपए और माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा का बजट डेढ़-डेढ़ हजार करोड़ रुपए घटा दिया है। देश के हर ब्लॉक में केंद्र सरकार की मदद से बनने वाले कुल छह हजार आदर्श स्कूलों की योजना को भी मोदी सरकार ने रद््द कर दिया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का बजट भी 3650 करोड़ रुपए कम कर दिया गया है। मोदी ने 2022 तक सभी को मकान देने का वादा किया है, लेकिन इस वादे का क्या हाल होगा, इसका संकेत उनके पहले वर्ष में ही मिल गया है। इस साल आवास योजनाओं के बजट में चार हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की कटौती की गई है।
कलफदार डिजाइन चूड़ीदार पाजामा और कुर्ता पहन कर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करने की नरेंद्र मोदी की अदा उनके सहयोगियों को इतनी पसंद आई थी कि वे भी सेनेटाइजर पल्लू में बांध कर कचरा साफ करने पहुंच गए थे। मोदी भले ही इस अभियान को अपने सीने से चिपकाए घूम रहे हों, लेकिन असलियत तो यह है कि पेयजल और सफाई सहित इस अभियान पर होने वाले खर्च में इस साल पहले के मुकाबले नौ हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई।
मोदी की सिंहासन-बत्तीसी की पहली सालगिरह की ये चंद परतें हैं। इन परतों के बीच से शासन व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था, सरकारी वित्तीय संस्थानों, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं, सरकारी प्रचार तंत्र और राजनयिक गलियारों में संघ परिवार के वैचारिक हमखयालों की सेंधमारी के काले साए झांक रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री की रणनीतिक खामोशी की आड़ में हो रहे सामाजिक धु्रवीकरण का जिन्न झरोखे में आकर खुलेआम बैठ गया है। इसलिए नरेंद्र मोदी के सिंहासन की पुतलियों के दिल में न जाने कितने सवाल अभी से करवट लेने लगे हैं।
लेकिन मोदी कम से कम दस बरस राज करने का व्रत लेकर घर से निकले हैं और उन्हें किसी के सवालों की कोई परवाह नहीं है। ऐसी बत्तीस क्या, छत्तीसों पुतलियों को मसलने की कला वे जानते हैं। मोदी की कामयाबी की संभावनाओं पर आप-हम बहस कर सकते हैं, लेकिन उनकी संकल्प-शक्ति पर कोई बहस नहीं हो सकती। ऐसे या वैसे, उन्होंने तीस बरस बाद भारत की राजगद््दी पर स्पष्ट बहुमत वाली एक सरकार को बैठाने का करिश्मा करके दिखाया है। सब जानते हैं कि वे अपना मकसद हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। मोदी के पहले बरस की यह बूंदाबादी आगामी चार साल लगातार तेज होगी। यही सबसे बड़ा डर है।
(लेखक कांग्रेस से संबद्ध हैं।)
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