अरुण डिके

ऋग्वेद की एक ऋचा है ‘विश्व पुष्टं ग्रामिण आसमिन अनातुरम’ यानी मेरे गांव से ही मुझे विश्व की पुष्टि का दर्शन हो। हमारे ऋषि-मुनियों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की कृषि जलवायु पर आधारित विशाल खाद्य शृंखला जंगलों से खोज कर तैयार की थी। पूछिए हमारे योजनाकारों से और कृषि विश्वविद्यालयों से कि क्या हुआ उस बेशकीमती हमारी धरोहर का? कम पानी में भी सामान्य स्तर की मिट्टी में पैदा होने वाला ज्वार, बाजरा, मक्का जैसा अनाज और कोदो-कुटकी, रागी, राला, जौजई जैसे मोटे अनाज छोड़ कर केवल गेहूं की महंगी फसल के अनुसंधान और उनके फैलाव पर देश की तिजोरी क्यों खाली हुई? क्यों मूंगफली, तिल, रामतिल अलसी, सरसों जैसी आसानी से पकने वाली दलहनी और तिलहनी फसलों को छोड़ केवल सोयाबीन का फैलाव इस देश में हुआ? जबकि गांव-गांव में तेल की घानियां चलती थीं, चरखे चलते थे और रोजगार उपलब्ध थे। अब मनरेगा में पैसा बांटना कहां तक उचित है?

समृद्धि दो तरीके की होती है। एक धन यानी कागजी मुद्रा, जिसके बल पर गरीबी और अमीरी नापी जाती है। दूसरी समृद्धि है दौलत की यानी आपके खेत, उनमें खड़े पेड़-पौधे, झाड़ियां, लहलहाती फसलें, कुएं, तालाब, मछलियां, पशुधन आदि। कागजी मुद्रा कमाने के चक्कर में हमने किसानों को अपनी ही दौलत लूटना सिखाया। ट्रैक्टर आए तो बैल गायब हो गए। झाड़ियां, पेड़ खेतों से गायब हो गए। खाद, दवाई, बीज आदि महंगे होते गए, फसलें सस्ती हो गर्इं। किसान गांव छोड़ कर शहरों की तरफ पलायन करने लगे। जिनमें हुनर था वे छोटा-मोटा कोई व्यवसाय और मजदूरी करने लगे, जिनमें नहीं था वे भटक गए।

आजादी के बाद जगह-जगह जो कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केंद्र खोले गए उन्होंने हमारी पारंपरिक वैज्ञानिक खेती को देखे-समझे बिना ही विदेशी तकनीकों को अपना लिया। आइए देखते हैं क्या थी हमारी पारंपरिक वैज्ञानिक खेती।
एक, हमारे यहां छोटी जोत हुआ करती थीं जिनकी मेड़ पर झाड़ी-झंखाड़ हुआ करते थे। ये गरमी में नमी को पकड़ कर फसलों को देते थे। बगैर एसी के वृक्षों के नीचे चारपाई पर किसान अपनी थकान दूर करते थे। जल, जंगल और खेत की मिट्टी पर अधिकारपूर्वक बोलने वाले फ्रांस के क्लाड बोर्गवियंन बताते हैं कि खेत में नत्रजन से ज्यादा कर्ब का महत्त्व है।

भारत जैसे गरम देशों में मिट्टी में कर्ब एक फीसद से कम है, लेकिन वह हमारी झाड़ियों और पेड़ों में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। इसलिए अगर आपको जमीन में कर्ब और नत्र के लिए जीवांश बढ़ाना हो तो खेत में ज्यादा से ज्यादा हरीतिमा (बायोमास) होना जरूरी है। आज भी देश में लाखों किसान इसी तर्ज पर सफल खेती कर रहे हैं।

दो, खेती में पूंजी निवेश की बात योजनाकार करते हैं। यह पर्याप्त मात्रा में प्रकृति ने हमें दी है। एक है प्रखर सूर्य प्रकाश, और दूसरी, पर्याप्त वर्षा। खेतों में पैदावार सूर्य प्रकाश से ही बढ़ती है यह बात महाराष्ट्र के (स्व) श्रीपाद अच्युत दाभोलकर ने सिद्ध करके बताई थी।

साठ और सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में जो अंगूर क्रांति हुई उसका पूरा श्रेय दाभोलकरजी की सूर्य खेती को जाता है। अंगूर की बेलों को उन्होंने इस प्रकार फैलाया था कि हर पत्ते को ज्यादा सूर्य प्रकाश मिलता था। फलस्वरूप अंगूर की पैदावार बीस प्रतिशत बढ़ गई थी। यानी ग्यारह-बारह टन की जगह चौदह-पंद्रह टन प्रति एकड़ हो गई थी। मात्र सूर्य प्रकाश से एक किलो गेहूं का बीज बोकर दस-ग्यारह क्विंटल पैदावार लेने वाले किसान भारत में मिल जाएंगे।

जापान के (स्व) मासानोव फूकुओका ने भी शून्य जुताई की खेती के बीजों की मिट्टी की गोलियां बना कर चावल और अन्य फसलों की पैदावार मात्र मुट्ठी भर दाने प्रति एकड़ लेकर सिद्ध की है। सौर खेती से दस गुंठा (एक गुंठा- एक हजार वर्गफुट) खेत से पांच सदस्यों का परिवार पल सकता है, दाभोलकरजी ने यह सिद्धांत पेश किया था। मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने उन्हें भोपाल बुला कर कृषि विभाग के आला अफसरों से उनका परिचय कराया था और प्रदेश के सारे शासकीय प्रक्षेत्र उन्हें प्रयोग करने के लिए दिए थे। लेकिन दुर्भाग्य से दाभोलकरजी का तीस अप्रैल, 2001 को अचानक निधन हो जाने से उनके बेशकीमती प्रयोगों का पटाक्षेप हो गया।

मुंबई में एक कार्यक्रम में दाभोलकरजी का सिद्धांत सुन और समझ कर सोनिया गांधी ने उन्हें दिल्ली बुलवाया था। अरुण शौरी और केसी पंत, दाभोलकरजी से प्रभावित थे। शिक्षाविद इवान इलिल उन्हें एक माह के लिए जर्मनी ले गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी दो घंटे उनकी चर्चा अपने वैज्ञानिक सलाहकार एपीजे अब्दुल कलाम के साथ करवाई थी, उसका पूरा ब्योरा उपलब्ध है। न्यूनतम आदानों से लाभकारी खेती का दाभोलकर फार्मूला गुमनाम हो गया। किसी भी कृषि विश्वविद्यालय ने उसकी सुध नहीं ली।

वर्षा के पानी को सहेज कर हर किसान को कम से कम आधा एकड़ खेती के लिए पानी कैसे मिल सकता है यह महाराष्ट्र के ही दूरगामी सोच के विलासराव सालुंखे ने अपने क्रांतिकारी ‘पानी पंचायत’ कार्यक्रम के द्वारा सफल करके दिखाया था। पेशे से इंजीनियर विलासराव के दो उद्योग पुणे के पास सासवड में हैं। लेकिन उनका झुकाव खेती की तरफ था। अपने उद्योग की परवाह न करते हुए विलासराव दूरदराज के गांवों में जाते और किसानों को इकट्ठा कर पानी पंचायत की महत्ता उन्हें समझाते। विनोबा के भूदान की तर्ज पर उन्होंने भी जरूरतमंद किसान को कम से कम आधा एकड़ सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था करवा दी थी। दुर्भाग्य से विलासराव सालुंखे भी 2002 में चल बसे, लेकिन उनकी पत्नी और उनके दोनों बेटे पानी पंचायत के अन्य साथी सहयोगियों के साथ पानी पंचायत का कार्य सुचारु रूप से चला रहे हैं। यह कार्य भी हमारे कृषि विश्वविद्यालयों को नहीं मालूम।

तीसरा वैज्ञानिक तथ्य। खेतों में गोबर, गोमूत्र और वनस्पति जैसे प्राकृतिक संसाधन हैं, उन्हीं से आप जैविक खाद और मिट्टी को उपजाऊ कैसे बना सकते हैं, इसका गहरा अध्ययन अंगरेज वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड ने बारह साल इंदौर में किया था।

ब्रितानी हुकूमत ने उन्हें भारत के किसानों को रासायनिक खेती सिखाने 1905 में यहां भेजा था। बिहार में पूसा में उन्होंने इंपीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च सेंटर (आज का आइएआरआइ) में अपना कार्य प्रारंभ किया। वे रोज सवेरे टहलने जाते और आसपास के हरे-भरे खेत देख अचंभित हो जाते। जब उन्हें पता चला कि बगैर रसायनों के ये अनपढ़ किसान मात्र गोबर की खाद से ही उपज प्राप्त कर लेते हैं, उनकी जिज्ञासा जागी। भारत की खेती देखने उन्होंने पूरे देश का दौरा किया। उन्हें वैज्ञानिक तथ्य परखने के लिए भूमि चाहिए थी, जो इंदौर के होलकर महाराजा ने उपलब्ध कराई।

इस तरह 1923 में इंदौर में हॉवर्ड ने इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंडस्ट्री की स्थापना की। ग्यारह साल फसल अवशेष, गोबर, गोमूत्र और पानी से खाद बनाने का तरीका खोजा; गरमी, सर्दी और बारिश में जड़ें किस प्रकार भूमि से अन्न-पानी लेती हैं इस पर अनुसंधान किया और पूरे विश्व को बताया कि जैविक खेती सीखने भारत आइए।

वे 1934 में इंग्लैंड वापस चले गए। 1940 में उनकी मृत्यु हो गई। 1948 में उनकी पत्नी ने उनके अनुसंधानों पर एक महत्त्वपूर्ण किताब लिखी ‘एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट’ (हमारी खेती का वसीयतनामा)। उनके कार्यों का निरीक्षण करने गांधीजी भी 23 अप्रैल, 1934 को इंदौर आए थे जिसके छायाचित्र इंदौर कृषि महाविद्यालय में उपलब्ध हैं। रासायनिक खादों ने पूरे विश्व की उपजाऊ मिट््टी को बरबाद किया है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2014-15 को मृदा वर्ष ‘साइल इयर’ घोषित किया। ऐसे समय सर अलबर्ट हॉवर्ड का स्मरण आवश्यक है।

चौथा तथ्य। केवल फसलें उगा कर किसानों का पेट नहीं भरता। फसलों से गांव-गांव कुटीर उद्योग भी जरूरी हैं। यही भारतीय खेती की विशेषता थी।

भारत की ही इस विरासत को थोड़ा आगे बढ़ाया अमेरिका के अश्वेत वैज्ञानिक डॉ जॉर्ज वॉशिंगटन कार्वर ने। अलाबामा के किसानों ने जब कार्वर को कहा कि हम जो कपास पैदा कर रहे हैं उसमें कीट और रोग बहुत लगते हैं, तब कार्वर ने उन्हें सलाह दी कि कपास छोड़ो और मूूंगफली लगाओ। किसानों ने मूंगफली बोना शुरू किया। पहले दो-तीन साल तो उन्हें अच्छा पैसा मिला, लेकिन जब मूंगफली की पैदावार बढ़ी तो भाव गिर गए और किसान फिर सड़क पर आ गए।

कार्वर समझ गए कि खेत के कच्चे माल की कोई कीमत नहीं होती। खेत में ही उससे नए उत्पाद बनाना चाहिए। कार्वर इसी काम में लग गए और कुछ सालों के कठिन परिश्रम के बाद सफलता उनके हाथ लगी। उन्होंने मूंगफली से दूध, दही, मक्खन, पनीर, चॉकलेट, दवाइयां, पेंट, वार्निश, बिस्कुट जैसे तीन सौ पदार्थ बना कर किसानों को समृद्धि का रास्ता बताया।

उद्योगपति हेनरी फोर्ड कार्वर के मित्र थे। उन्होंने एक बार कार्वर को अपने कारखाने बुलवाया और अपने खेतों में उग रही सोयाबीन भी दिखाई। साल भर बाद कार्वर ने उसी सोयाबीन तेल से मोटर के कुछ हिस्से तैयार करके हेनरी फोर्ड को भेंट किए। आज भी भारत के कई राज्यों में किसान आसानी से मूंगफली का मक्खन बना लेते हैं।

पांचवां तथ्य। हमारे देश में फसलों की इतनी विविधता है कि अगर किसानों को प्रशिक्षित किया जाए तो वह उनकी अतिरिक्त आय का साधन बन सकती है। कुछ सालों से विदर्भ के किसानों ने हमारी पुरानी पारिवारिक फसल लाल अंबाडी पर सफल कुटीर उद्योग चला कर नई राह दिखाई है। लाल अंबाडी एक क्रांतिकारी फसल है। इसके पत्तों की खटास से बहुत अच्छी तरकारी बनती है। अंबाडी के लाल फूल सुखा कर उनसे शीतल पेय, दवाई, चटनी और मुरब्बा तैयार होता है। अंबाड़ी के तने को पानी में रखने से उससे बहुत अच्छा तागा निकलता है, जो नल बांधने के काम आता है। उससे फर्नीचर भी तैयार होता है।

हमारे यहां बड़ी तादाद में व्यापार प्रबंधन की शिक्षण संस्थाएं हैं। अगर इनसे प्रशिक्षित युवा किसानों द्वारा उत्पादित इन वस्तुओं की बिक्री का काम हाथ में लें तो निश्चित ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हो सकती है।

पिछले साठ वर्षों में कृषि विश्वविद्यालयों से निकले लाखों विद्यार्थियों ने खाद, बीज, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों में ऊंची तनख्वाहों पर नौकरी कर ली, बैंकों में और अन्य रोजगार पकड़े और शहरों में बस गए। बहुत कम विद्यार्थियों ने गांव की राह पकड़ी। हमारी कृषि शिक्षा प्रणाली ने विद्यार्थियों को गांवों से तोड़ा। इसके विपरीत कई इंजीनियर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर भारी-भरकम तनख्वाह छोड़, गांवों में जाकर बस गए हैं, धन छोड़ प्राकृतिक दौलत जुटाने में लगे हैं।

जब देश आजाद हुआ तब हमारे खजाने के एक रुपए में छप्पन पैसे भागीदारी हमारे गांवों की थी। किसानों की आत्महत्या अगर पिछले पचास वर्षों की सबसे बड़ी त्रासदी है, तो खेतों, किसानों और गांवों के प्रति हमारा नकारात्मक नजरिया उससे भी ज्यादा त्रासद है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए कार्य कर रही सामाजिक संस्थाओं को चाहिए कि कार्वर, हॉवर्ड, सालुंखे फूकुओका और दाभोलकर के कार्यों पर लिखी पुस्तकों का अध्ययन करें और किसानों के हाथ मजबूत करें। यही समय ही मांग है।

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