अख़लाक़ अहमद उस्मानी
दुनिया से कटे हुए ईरान ने पिछली एक तिहाई सदी में बहुत संघर्ष किया है और बड़ी मुरादों के बाद इस बार की मीठी ईद तेहरान के अपने पुराने मौसमों में नई खुशियां लेकर आई है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर दुनिया की पांच जमा एक शक्तियों की सहमति बन जाने के बाद तेहरान से कई प्रतिबंध हटेंगे, जिससे उसके कारोबार, देश में निवेश, नए रोजगार, नई तकनीक के आयात, दवाइयां, हवाई जहाज और जीवन रक्षक मशीनों के कल-पुर्जे और शिक्षा के क्षेत्र में नए द्वार खुलेंगे। भारत के बाद दुनिया के दूसरे सबसे जवान देश ईरान में बेरोजगार युवाओं की इस समझौते पर आशाएं टिकी हुई थीं और राष्ट्रपति हसन रूहानी और विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने चुनाव में किए गए वादों को रिकॉर्ड समय में पूरा कर देश में नई जान और ऊर्जा फंूक दी है।
1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान के तेल संसाधनों से अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप की कंपनियों को भगा दिया गया था, साथ ही अमेरिकी दूतावास पर कब्जे के बाद दोनों देशों के बीच संबंध समाप्त हो गए थे। इसी बीच ईरान ने शांतिपूर्वक परमाणु कार्यक्रम के नाम पर यूरेनियम का संवर्धन करना शुरू किया, तो अमेरिका और इजराइल ने इसे ईरान की परमाणु बम बनाने की कोशिश माना। समय के साथ ईरान पर जारी प्रतिबंध बढ़ते गए। ईरान में खतरनाक स्तर की बेरोजगारी दर और ठप कारोबार के बीच लोगों ने हसन रूहानी को चुना। वे रोजगार बढ़ाने, प्रतिबंध समाप्त करने, पश्चिम से संबंध सुधारने और कुछ हद तक परमाणु कार्यक्रम टालने के मुद्दों पर चुनाव जीते। उन्होंने देश के आंतरिक हालात के हिसाब से राजनीति की। रूहानी काफी हद तक अपने वादे पूरे करने और देश की आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने में कामयाब नजर आ रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी की कई नई शर्तों को ईरान ने माना या सहमति से बदलवाया। ईरान ने भरपूर सहयोग किया, क्योंकि उसे निवेश और कारोबार की बहुत आवश्यकता है। मगर ईरान की यह जरूरत एकतरफा नहीं है। विश्व राजनीति में रूस के कारोबार के नुकसान को बढ़ा कर उसे यूके्रन के बहाने जर्जर करने, रूस के ऊर्जा स्रोतों के विकल्प के रूप में ईरान को खड़ा करने और ईरान की मजबूती से पश्चिम एशिया में इजराइल के पर कतरने जैसे अमेरिका के भी सभी काम इसी बहाने सध रहे हैं। यूरोप की कंपनियों और घरेलू राजनीति में ऊर्जा की आवश्यकताओं की राजनीति को रूस नहीं तो उसका विकल्प देने के भारी दबाव ने भी ईरान की मदद की।
बराक ओबामा जाते-जाते रूबल की स्थिति को इतना खराब करना चाहते हैं कि वह तेल और गैस के भरोसे भी चले, तो रेंग कर। इसीलिए सऊदी अरब के दबदबे वाले ओपेक ने पिछले दो साल से तेल का उत्पादन इतना अधिक कर दिया कि तेल के दाम अस्सी प्रतिशत तक नीचे आ गए। रूस और ईरान यह दबाव नहीं झेल पाए। रूबल बरबादी की कगार पर आकर फिर संभलने की कोशिश करने लगा, लेकिन ईरान ने हथियार डाल दिए। तेल निर्यात से होने वाली उसकी कमाई आधी तो क्या, उसका तेल पूल घाटा कई गुना बढ़ गया। सऊदी अरब, ओपेक और अमेरिका की इस रणनीति ने ईरान को परमाणु कार्यक्रम पर झुकने को बाध्य किया और रूस को विश्व राजनीति में पंचायत के बजाय अपनी अर्थव्यवस्था संभालने के काम में लगा दिया।
इस पूरे खेल में सबसे अधिक घाटा सऊदी अरब और इजराइल का होगा। सऊदी अरब ने रूस को गिराने के लिए तेल के दामों को बरबादी की दर तक जाकर अमेरिका का साथ दिया, मगर उसका हर जगह पतन हुआ। अमेरिका ने पांच अन्य महाशक्तियों के साथ ईरान को परमाणु कार्यक्रम टालने की स्थिति में प्रतिबंध हटाने की गारंटी देने से सऊदी अरब को तेल कारोबार में कड़ी टक्कर मिलेगी। वहाबी सऊदी अरब की शिया ईरान से दुश्मनी में दोस्त अमेरिका ने साथ नहीं दिया। ईरान समझौते से सऊदी के पक्के दोस्त इजराइल की स्थिति को बहुत हास्यास्पद और बुरी होती गई। ईरान के समझौते को तो वह नहीं रुकवा पाया, बल्कि पश्चिम एशिया में उसकी मर्जी से चलने वाले वहाबी आतंकवाद की फैक्टरी सऊदी अरब के कमजोर होने से बंद हो सकती है। वहाबी आतंकवाद का अंतिम लाभ क्षेत्र में इजराइल को मिलता है, क्योंकि अरबों के आपस में लड़ने से तेल अवीव का यहूदी सुरक्षित महसूस करता है।
ईरान का समझौता तेहरान और वाशिंगटन की दोतरफा सहमति से आगे बढ़ा है। बाकी पात्र इसमें मात्र सूत्रधार हैं।
फिर इस समझौते से अमेरिका और ईरान को मिला क्या? अमेरिका ने इस समझौते से यह पक्का करने में कामयाबी हासिल की कि ईरान अपने सेंट्रीफ्यूज से यूरेनियम संवर्धन को आधा करेगा। यह पांच टन से तीन हजार किलोग्राम पर आ जाएगा। अमेरिका और बाकी पांच महाशक्तियां मानती हैं कि इससे ईरान के पास इतना संवर्धित र्इंधन नहीं होगा, जिससे परमाणु बम बनाया जा सके, लेकिन बिजली बनाई जा सकती है। परमाणु बम बनाने के लिए प्लूटोनियम की भी आवश्यकता होती है, जो भारी जल संयंत्र से प्राप्त होता है। ईरान ने अरक स्थित भारी जल संयंत्र बंद करने की सहमति दे दी है, यानी वह प्लूटोनियम नहीं बना पाएगा। साथ ही ईरान ने अभी तक नियंत्रित परमाणु स्थलों तक अंतरराष्ट्रीय परमाणु संस्था को जाने की इजाजत दे दी है।
परमाणु अप्रसार संधि वाले ईरान ने इससे पहले भी कई बार इस बात का इशारा किया है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिप्रिय आवश्यकताओं, जैसे बिजली बनाने, के लिए हैं। दरअसल, प्रतिबंध से जूझ रहे ईरान को अभी तक कुछ ही तेल निर्यात करने की इजाजत रही है, ऐसे में अगर वह बहुत अधिक तेल बिजली बनाने में खर्च कर देगा, तो उसका निर्यात और घट जाएगा। मगर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पहले अमेरिका, इजराइल, सऊदी अरब और यूरोप ने परमाणु बम हासिल करने की हरकत करार देते हुए प्रतिबंध काफी कड़े कर दिए थे।
ईरान के वर्तमान समझौते पर सहमत होने से उसका परमाणु संवर्धन करीब चार प्रतिशत रह जाएगा। इसके बदले अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य महाशक्तियां हर क्षेत्र में उस पर लगाए गए प्रतिबंध ढीले कर देंगी। ईरान को उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसके परमाणु कार्यक्रम को ‘अवैध’ से ‘वैध’ की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। ईरान की घरेलू राजनीति में बेहद मजबूत रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स और कुद्स सेना को भी आतंकवादी श्रेणी से बाहर निकाला जा सकता है। चौबीस में से तेईस ईरानी बैंकों के कारोबार पर प्रतिबंध है, वह भी समाप्त हो जाएगा। उसके आठ सौ बड़े कारोबारियों पर भी प्रतिबंध हटने से उसकी अर्थव्यवस्था कुलांचे भरने लगेगी।
दुनिया भर में ईरान की जब्त करीब डेढ़ सौ अरब अमेरिकी डॉलर की संपत्ति और धन उसे वापस मिल जाएगा। उसको अपना कोई परमाणु संयंत्र नष्ट नहीं करना पड़ेगा। यानी जब वह आरामदायक स्थिति में आएगा, अपने परमाणु कार्यक्रम को बहुत गति दे सकता है। जैसे फर्दो और नतांज में परमाणु संवर्धन केंद्र सलामत रहेंगे और बुशैर में परमाणु रिएक्टर भी कायम रहेगा। क्या यह माना जाए कि ईरान सेंट्रिफ्यूज और रिएक्टर को विकसित करने के अपने एजेंडे पर चुपचाप कार्य करता रहेगा। नए निरीक्षण से पहले ईरान किसी भी टीम को चौबीस दिनों तक इंतजार करने के लिए कह सकता है। पांच जमा एक महाशक्तियां ईरान के परमाणु कार्यक्रम में मदद भी कर सकती हैं।
भारत को उम्मीद है कि इस समझौते से ईरान के साथ उसका कारोबार बढ़ेगा। भारत 2009 में दो करोड़ दस लाख टन कच्चा तेल ईरान से खरीदता था, जिसे मनमोहन सिंह सरकार ने घटा कर आधा कर दिया था। भारत सऊदी अरब के बजाय अपनी जरूरत का कच्चा तेल फिर ईरान से लेगा, तो उसे यह गारंटी भी मिलेगी कि सऊदी अरब के तेल कारोबार से पलने वाले वहाबी तत्त्वों को काबू में लाया जा सकता है। हाल ही में विकीलीक्स ने खुलासा किया था कि सऊदी अरब ने वहाबी विचारधारा को मजबूत करने के लिए भारत में सत्रह सौ करोड़ रुपए खर्च किए थे, जो जाहिर है भारत को निर्यात किए गए तेल से कमाए जाते रहे हैं।
इजराइल और यहूदी विचारक और विरोधी कहते हैं कि अमेरिका और पांच महाशक्तियों ने बहुत बड़ी भूल की है। इनका मानना है कि मजबूत रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स और कुद्स सेना को भी आतंकवादी श्रेणी से बाहर निकालने पर क्या इराक में अमेरिका के विरुद्ध जंग कर रहा शिया लड़ाका और अमेरिका की नजर में आतंकवादी कसीम सुलेमानी और 1994 में अर्जेंटीना में एक हमले में पचासी यहूदियों की हत्या करने के आरोपी अहमद वाहिदी भी मुख्यधारा में आ सकते हैं? इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने यह कह कर समझौते को पढ़ने से मना कर दिया कि यह इजराइल के खिलाफ है।
इजराइल परमाणु अप्रसार संधि का हिस्सा नहीं है, जबकि ईरान है। इजराइल के पास करीब दो सौ परमाणु बम हैं, ईरान के पास एक भी नहीं। इजराइल की आपत्तियां कितनी जायज हैं? ईरान ने विकट हालात में भी लोकतंत्र और सहयोग की भावना को जिंदा रखा। अपने आप को वहाबी कैंसर से बचाया और युवाओं को पथभ्रष्ट नहीं होने दिया। ईरान ने 1979 की इस्लामी क्रांति में भी अपने देश को बचाया था, 2015 में भी उसने ऐसा ही किया।
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