सुभाष गाताडे
आइआइटी-मद्रास के प्रबंधन ने अंतत: छात्रों के समूह ‘आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल’ की मान्यता बहाल कर दी। अब भले ही विवाद पर परदा गिरने की बात प्रबंधन द्वारा कही जा रही है, मगर इस बहाने जो तथ्य उभर कर आए उन पर चर्चा आगे भी होती रहेगी। ये मसले हैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन, शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता में दखल, उच्चशिक्षा में जातिगत प्रभुत्व, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दी जा रही तिलांजलि, आदि।
मामले पर उग्र प्रतिक्रिया के बाद भले ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह कहा कि उसने इस मामले में कोई निर्देश संस्थान को नहीं दिया, मगर यह बात सबके सामने थी कि साल भर पुराने छात्रों के समूह- आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल- की गतिविधियों को लेकर मंत्रालय अतिसंवेदनशील था, मगर उसी परिसर में दक्षिणपंथी समूहों की गतिविधियों का वह मूकदर्शक रहा, जो परिसर में अतार्किकता, अंधश्रद्धा फैलाने में लगे हैं और निस्संकोच आइआइटी के नाम और उसके संसाधनों का दुरुपयोग करते रहे हैं। मसलन, विवेकानंद स्टडी सर्कल को देखा जा सकता है जो वैदिक काल में क्वांटम भौतिकी की उपस्थिति की बात करता है।
यह बात भी सामने आ रही है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा अनाम शिकायतों को तवज्जो न देने के निर्देश के बावजूद मंत्रालय द्वारा आइआइटी के कामकाज में हस्तक्षेप करने का प्रस्तुत निर्णय अपवाद नहीं था। कुछ माह पहले मध्यप्रदेश के एक संघ कार्यकर्ता द्वारा भेजे गए पत्र के आधार पर स्मृति ईरानी की अगुआई वाले इस मंत्रालय ने विश्वविद्यालय परिसरों के रसोईघरों की निगरानी करने का निर्णय लिया था ताकि यह पता किया जा सके कि वहां क्या पक रहा है। आइआइटी और आइआइएम के निदेशकों को पत्र भेज कर पूछा गया कि वे संस्थान में खाना बनाने और खाना परोसने के बारे में जानकारी भेजें और उन्हें यह भी कहा गया कि शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग मेसों की संघ स्वयंसेवक की मांग को पूरा करें।
संघ कार्यकर्ता का तर्क था कि ‘ये संस्थान पश्चिम के बुरे संस्कार फैला रहे हैं और माता-पिताओं को परेशान कर रहे हैं।’ कुछ समय पहले इस मंत्रालय को फिर बचाव की मुद्रा अख्तियार करनी पड़ी थी, जब दिल्ली-आइआइटी के निदेशक ने ऊपर से पड़ रहे दबावों के कारण अपने पद से इस्तीफा दिया था। खबर आई थी कि परिसर में किसी क्रिकेट अकादमी के लिए मैदान उपलब्ध कराने के लिए निदेशक पर दबाव डाला जा रहा था, क्योंकि क्रिकेट अकादमी चलाने वाला व्यक्ति सत्ता के गलियारों के करीब था।
ऐसी मनमानी कार्रवाई के लिए महज मानव संसाधन विकास मंत्रालय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दरअसल, मोदी सरकार के अंतर्गत ऐसी ही संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने इस सरकार की कार्यप्रणाली को करीब से देखा है, बता सकता है कि किस तरह यह सरकार प्रक्रियाओं का उल्लंघन करने, संस्थाओं को अतिक्रमित करने और शासन के स्थापित नियमों को चुनौती देने से बाज नहीं आती। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब दूरदर्शन-न्यूज के निदेशक को बदलने के मामले में यह सरकार कठघरे में आई थी।
हुआ यह कि किसी अलसुबह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने दूरदर्शन-न्यूज के निदेशक के पद पर एक सूचना अधिकारी की ‘नियुक्ति’ कर दी और उन्हें सीधे मंत्रालय में रिपोर्ट करने के लिए कहा गया, जबकि ऐसा कदम उठाने का उसे कोई अधिकार ही नहीं था। स्वायत्त कहे जाने वाले प्रसार भारती का बोर्ड ही ऐसा कदम उठाने के लिए अधिकृत है। एक तरह से इस कदम से यही संदेश दिया गया कि जब तक मौजूदा सरकार बनी रहेगी तब तक प्रसार भारती की स्वायत्तता मुल्तवी रहेगी।
यहां इस बात पर जोर देना अहम है कि आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल की मान्यता को समाप्त करने के इस प्रसंग में शिक्षा संस्थानों के परिसरों में जनतांत्रिक दायरों के संकुचन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ते हमले और असहमति की हर आवाज को कुचलने की मोदी सरकार की नापाक कोशिशों की अवश्य चर्चा चली है, मगर इस सिलसिले में दो अहम मुद्दों पर बात नहीं हो सकी है। पहली बात का ताल्लुक शिक्षा के ‘भारतीयकरण’ के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विजन अर्थात भविष्यदृष्टि से है और दूसरा मसला उच्च शिक्षा में जातिवाद की मौजूदगी का है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब संघ के मुखपत्र ‘आर्गनायजर’ ने अपने संपादकीय में शिक्षा के रूपांतरण पर निगाह डाली है जिसमें उसने इस बात पर जोर दिया है कि ‘शिक्षा के भारतीयकरण’ को ‘हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों पर आधारित होना होगा और वही एकमात्र रास्ता है भारत की आबादी को मानवीय विकास के केंद्र में तब्दील करने का।’
भारतीयों को उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणाली से उखाड़ने वाली शिक्षा देने के लिए अंगरेजों को जिम्मेदार ठहराते हुए वह कहता है: ‘उन्होंने जिस व्यवस्था का निर्माण किया वह राज्य मशीनरी के संचालन के लिए थी, जिसे उन्होंने अपनी सुविधा के लिए बनाया था… इस ब्रिटिश विरासत का परिणाम यह हुआ कि हम लोगों ने अपने ज्ञान, रचनाशीलता के खजाने को खो दिया।’
संपादकीय इस बात पर जोर देता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था ‘न इधर की है और न उधर की है।’ इसका नतीजा यही हुआ है कि स्नातक ‘इस दुनिया में उतने उत्पादक’ नहीं होते और उच्च स्तर के पेशेवर (प्रोफेशनल्स) ‘सामाजिक और नैतिक तौर पर उखड़े होते हैं।’
ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो भारत के इतिहास की थोड़ी-बहुत जानकारी रखता है, बता सकता है कि किस तरह ज्ञान की पारंपरिक प्रणाली में शिक्षा से व्यापक समुदाय को वंचित रखा जाता था। उत्पीड़ित जातियों और स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। शिक्षा ऊंची जातियों का विशेषाधिकार थी और यह प्रणाली धर्म द्वारा स्वीकृत थी। हिंदुओं की चर्चित किताब ‘मनुस्मृति’ में इन नियमों का उल्लंघन करने की सजा भी मुकर्रर की गई है। हकीकत यही है कि अंगरेजों के आगमन के बाद ही इस पारंपरिक व्यवस्था में पहली बार दरारें पड़ने लगीं और आजाद भारत में संविधान लागू होने के साथ, जबकि विभिन्न आधारों पर चले आ रहे भेदभावों की समाप्ति का एलान किया गया और सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के लिए शिक्षा और रोजगार में विशेष अवसरों की योजना बनी, इन तबकों की स्थितियों में गुणात्मक अंतर आ सका।
वैसे पारंपरिक ज्ञान के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सम्मोहन कोई नया नहीं है। दरअसल, इस बात के दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं कि किस तरह उसने एक व्यक्ति-एक मत पर आधारित आधुनिक संविधान निर्माण का विरोध किया था और इस बात पर लगातार जोर दिया था कि स्वाधीन भारत को मनुस्मृति को ही संविधान के तौर पर अपनाना चाहिए। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर और ‘हिंदुत्व’ के अग्रणी विचारक सावरकर, दोनों ने ही संविधान-निर्माण के दिनों में मनुस्मृति की तारीफ में कसीदे पढ़े थे। इस बात की महज कल्पना ही की जा सकती है कि अगर उन दिनों संघ इतना ताकतवर होता और वह संविधान निर्माताओं पर दबाव डालने में सफल होता तो संविधान की क्या शक्ल होती। जाहिर है कि दलित, आदिवासी या बहुजन तबकों से शायद ही कोई इन अभिजात संस्थानों में पहुंच पाता।
आरक्षण की नीति के बाद भी जाति आधारित अलगाव और उससे जुड़ा भेदभाव हमारे दैनंदिन जीवन में, यहां तक कि आइआइटी, आइआइएम, एम्स जैसे अभिजात शिक्षा संस्थानों में भी बना हुआ है। और जहां तक आइआइटी-मद्रास का सवाल है, तो आरक्षण लागू करने के मामले में वह निचले पायदान पर खड़ा दिखता है। कुछ साल पहले ‘तहलका’ ने ‘कास्ट इन कैंपस: दलित्स नाट वेलकम इन आइआइटी मद्रास’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें उसने ‘इस अभिजात संस्थान के चंद दलित छात्रों और शिक्षकों के बारे में विवरण दिया था, जिन्हें व्यापक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।’
रिपोर्ट के मुताबिक ‘आइआइटी-मद्रास जैसे संस्थानों ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए निर्धारित साढ़े बाईस फीसद कोटे का एक हिस्सा ही प्रदान किया है। इंस्टीट्यूट के डेप्युटी रजिस्ट्रार डॉ पंचालन द्वारा दी गई सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सितंबर 2005 में, छात्रों में दलितों की तादाद 11.9 फीसद थी, वे उच्च पाठ्यक्रमों में और कम संख्या में थे- 2.3 फीसद रिसर्च में और 5.8 फीसद पीएचडी में।…
ऐसे लोग जो दलितों के लिए आरक्षण पर उचित अमल की बात करते हैं, उनके मुताबिक आइआइटी मद्रास वाकई में आधुनिक समय का अग्रहरम- यानी ब्राह्मणों का अड्डा है। नौकरियों के क्षेत्र में भी वही स्थिति है। उन पर एक अन्य गंभीर आरोप है कि संस्थान के निदेशकों ने फैकल्टी सदस्य नियुक्त करने के मामले में नियमों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया है और वे रिक्तियों की जानकारी अखबारों में नहीं देते हैं।’
इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख था कि ‘संकाय सदस्यों की 460 की संख्या का और छात्रों का बहुलांश ब्राह्मण ही है।’ गणित विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर सुश्री वसंता कंडासामी ने रिपोर्टर को बताया था कि संस्थान की समूची फैकल्टी में महज चार दलित हैं, जो संख्या कुल फैकल्टी संख्या का महज 0.86 फीसद है। इस खुलासे को लेकर और अन्य आइआइटी में उसी किस्म की स्थितियों को लेकर बात आई-गई हो गई।
अगर हम आइआइटी-मद्रास को देखें तो देख सकते हैं कि स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। इंडियारेजिस्टस डॉट कॉम को दिए अपने साक्षात्कार में आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल के एक सदस्य ने इसी बात को दोहराया कि किस तरह संस्थान में जाति का दबदबा दिखता है। उसके मुताबिक सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि फैकल्टी की सत्तासी फीसद संख्या ऊंची जातियों से है। पिछले सात सालों में अनुसूचित जनजाति के महज तीन छात्रों को एमएस कार्यक्रम में दाखिला मिल सका है।
जिस तीव्रता से आइआइटी-एम ने आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल की गतिविधियों पर पाबंदी लगाई, क्या उसका ताल्लुक इस बात से भी था कि वर्ण मानसिकता से लैस लोगों और हिंदुत्व की असमावेशी विचारधारा के हिमायतियों में आपस में काफी सामंजस्य है? क्या यह कहा जा सकता है कि यह एक तरह से दमित जातियों की दावेदारी के प्रति वर्चस्वशाली जातियों के ‘गुस्से’ का प्रतिबिंबन है?
एक छोटे-से समूह की मान्यता खत्म कर, विभिन्न शिक्षा संस्थानों में असहमति की आवाजों को यह संकेत दिया गया कि वे या तो चुप हो जाएं या परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाएं। मगर अब आलम यह है कि इस कार्रवाई ने शिक्षा संस्थानों के परिसरों में खदबदाते असंतोष को नए सिरे से सतह पर ला दिया है।
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