अरुण तिवारी

एक बार फिर धरती डोली। इस बार भी भूकम्प का केंद्र नेपाल में था और इस बार भी झटके पूर्वी और उत्तरी भारत तक महसूस किए गए। इस दफा भी भूकम्प ने कहर ढाया है। मंगलवार को नेपाल में कई लोगों के मौत के मुंह में चले जाने की खबर आई। बिहार में भी कई मौतें हुर्इं। त्रासदी का आंकड़ा और बढ़ सकता है। हाल में सरकारी महकमों और कई संस्थाओं ने इस बाबत शिक्षित करने का दायित्व निभाया कि भूकम्प में अपना बचाव कैसे करें।

हम इन सभी कदमों की प्रशंसा करें। पर क्या हम इस कदम की प्रशंसा करें कि केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हिमालयी उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं को दी ताजा मंजूरी को लेकर सवाल उठाया और किसी ने इसकी परवाह नहीं की। उमा भारती ने कहा कि इन परियोजनाओं के कारण गंगा का पारिस्थितिकीय प्रवाह सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाएगा। असलियत यह है कि परियोजनाओं के लिए बांध, सुरंग, विस्फोट, निर्माण और मलबे के कारण गंगा, हिमालय और हिमवासी… तीनों ही तबाह होने वाले हैं। ‘मैं आया नहीं हूं; मुझे मां ने ही बुलाया है’- क्या यह कहने वाले प्रधानमंत्री को नहीं चाहिए था कि वे हस्तक्षेप करते और कहते कि मुझे मेरी मां गंगा और पिता हिमालय की कीमत पर बिजली नहीं चाहिए? हिमालयी जलस्रोत वाली नदियों में बांध और सुरंगों का हिमवासी और पर्यावरणविद लगातार विरोध कर रहे हैं?

क्या कोई सरकार आज तक बांध नीति बना पाई? प्रधानमंत्री ने 2014 की अपनी पहली नेपाल यात्रा में ही उसे पंचेश्वर बांध परियोजना का तोहफा दिया। वहां से लौटे विमल भाई बताते हैं कि 280 मीटर ऊंचाई की यह प्रस्तावित परियोजना, खुद भूकम्प जोन 4-5 में स्थित है। मध्य हिमालय का एक बड़ा हिस्सा इसके दुष्प्रभाव में आने वाला है। आगे जो होगा, उसका दोष किसका होगा; सोचिए? नदी नीति, हिमालयी क्षेत्र के विकास की अलग नीति और मंत्रालय की मांग को लेकर लंबे समय से कार्यकर्ता संघर्षरत हैं। सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है? क्या हम इसकी प्रशंसा करें?

राहुल गांधी की केदारनाथ यात्रा पर प्रदेश कांग्रेस के महासचिव ने कहा कि इसका मकसद यह बताना भी था कि कभी त्रासदी का शिकार हुआ केदारनाथ इलाका अब ठीक कर लिया गया है। देश भर से पर्यटक अब यहां आ सकते हैं। मात्र दो वर्ष पूर्व उत्तराखंड में हुई तबाही को आखिर कोई कैसे भूल सकता है? प्रथम इंसान की रचना हिमालय में हुई। हिमालय को देवभूमि कहा जाता है। इस नाते हिमालय पर्यटन नहीं, तीर्थ का क्षेत्र है। अब विनाश की आवृत्ति के तेज होने के संदेश भी यहीं से मिल रहे हैं। पर्यटन और पिकनिक के लिए हिमालय में पर्यटकों की बाढ़ आई, तो तबाही पर नियंत्रण फिर मुश्किल होगा। क्या किसी ने टोका कि कृपया गलत संदेश न दें?

कहा गया कि यह पिछले तीस सालों में दुनिया भर में आए भूकम्पों की तुलना में सबसे तीव्र भूकम्प था। गौरतलब है कि आज इससे ज्यादा जरूरत, यह कहने की है कि यह भूकम्प न पहला है और न आखिरी। भूकम्प पहले भी आते रहे हैं; आगे भी आते ही रहेंगे। हिमालय की उत्तरी ढाल यानी चीन के हिस्से में कोई न कोई आपदा, महीने में एक-दो बार हाजिरी लगाने जरूर आती है।

कभी यह ऊपर से बरसती है और कभी नीचे सब कुछ हिला के चली जाती है। अब इनके आने की आवृत्ति, हिमालय की दक्षिणी ढाल यानी भारत, नेपाल और भूटान के हिस्से में भी बढ़ गई है। यह अब होगा ही। इनके आने के स्थान और समय की घोषणा सटीक होगी, अभी इसका दावा नहीं किया जा सकता। भूकम्प का खतरा हिमालय में इसलिए भी ज्यादा है कि शेष भू-भाग, हिमालय को पांच सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है।

इसका मतलब कि हिमालय चलायमान है। हिमालय में हमेशा हलचल होती रहती है। एक प्लेट, दूसरी प्लेट को नीचे की तरफ ढकेलती रहती है। एक प्लेट उठेगी, तो दूसरी नीचे धसकेगी ही। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस नाते हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन का होते रहना स्वाभाविक घटना है।

हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। उत्तराखंड को सामने रख दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं। उत्तराखंड की पर्वत शृंखलाओं के तीन स्तर हैं: शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमाल और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों में सबसे अधिक संवेदनशील है ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी। इस संवेदनशीलता की वजह है, इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें। उत्तराखंड में दरारें त्रिस्तरीय हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ती दो हजार किलोमीटर लंबी, कई किलोमीटर गहरी, संकरी और झुकी हुई।

बदरीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुंड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी- ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं। भागीरथी के ऊपर लोहारी-नाग-पाला तक का क्षेत्र दरारों से भरा है। दरार क्षेत्र में करीब पचास किलोमीटर चौड़ी पट््टी भूकम्प का केंद्र है। बजांग, धारचूला, कफकोट, पेजम आदि कई इलाके भूकम्प का मुख्य केंद्र हैं।

भूखंड सरकने की वजह से दरारों की गहराई में मौजूद ग्रेनाइट की चट्टानें रगड़ती, पिसती-चकनाचूर होती रहती हैं। ताप निकल जाने से जम जाती हैं। फिर जरा सी बारिश से उधड़ जाती हैं। उधड़ कर निकला मलबा नीचे गिर कर शंकु के आकार में इकट्ठा हो जाता है। वनस्पति जमकर उसे रोके रखती है। यह भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। पर इसे मजबूत समझने की गलती, हमारा अस्वाभाविक कदम होगा। पर्वतराज हिमालय की हकीकत और इजाजत को जाने बगैर… इसकी परवाह किए बगैर निर्माण करने को स्वाभाविक कहना, नासमझी ही कहलाएगी। मलबे या सड़कों में अगर पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है। जब तक ऐसी नासमझी जारी रहेगी, तब तक विनाश रोकना संभव नहीं होगा।

समझें कि पहले पूरे लघु हिमालय क्षेत्र में एक समान बारिश होती थी। अब वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टि का दुश्चक्र चल रहा है। यह और चलेगा। अब कहीं भी यह होगा। कम समय में कम क्षेत्रफल में अधिक वर्षा होगी। इसे ‘बादल फटना’ कहना गलत संज्ञा देना है। जब हिमालय में ऐसा होगा, तो ग्लेशियर के सरकने का खतरा बढ़ जाएगा। हमें पहले से चेतना है। याद रखना है कि नेपाल भूकम्प से पहले कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व में विनाश इसलिए नहीं हुआ कि आसमान से कोई आपदा बरसी; विनाश इसलिए हुआ, चूंकि हमने हिमालय में निर्माण के खतरे की हकीकत को याद नहीं रखा।

दरअसल, हमने हिमालयी इलाकों में आधुनिक निर्माण करते वक्त गलतियां कई कीं। हमने दरारों वाले इलाके में भी मनमाने निर्माण किए। लंबी-लंबी सुरंगों को बनाने के लिए डायनामाइट लगा कर पहाड़ का सीना चाक किया। ध्यान से देखें तो हमें पहाड़ियों पर कई ‘टैरेस’ दिखाई देंगे। टैरेस यानी खड़ी पहाड़ी के बीच-बीच में छोटी-छोटी सपाट जगह। स्थानीय बोली में इन्हें ‘बगड़’ कहते हैं। ‘बगड़’ नदी द्वारा लाई उपजाऊ मिट््टी से बनते हैं। यह उपजाऊ मलबे के ढेर जैसे होते हैं। पानी रिसने पर बैठ सकते हैं।

हमारे पूर्वजों ने बगड़ पर कभी निर्माण नहीं किया था। वे इनका उपयोग खेती के लिए करते थे। हम बगड़ पर होटल-मकान बना रहे हैं। हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है; रास्ता नीचे; फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊंचाई पर क्यों बसाए? वह भी उचित चट््टान देख कर। वे सारा गांव एक साथ भी तो बसा सकते थे। नहीं! चट्टान जितनी इजाजत देती थी, उन्होंने उतने मकान एक साथ बनाए; बाकी अगली सुरक्षित चट्टान पर। हमारे पूर्वज बुद्धिमान थे। उन्होंने नदी किनारे कभी मकान नहीं बनाए। सिर्फ पगडंडिया बनार्इं।

हमने क्या किया? नदी के किनारे-किनारे सड़कें बनार्इं। हमने नदी के मध्य बांध बनाए। मलबा नदी किनारे फैलाया। हमने नदी के रास्ते और दरारों पर निर्माण किए। बांस-लकड़ी की जगह पक्की कंक्रीट छत और मकान…. वह भी बहुमंजिला। तीर्थयात्रा को पिकनिक यात्रा समझ लिया है।

एक कंपनी ने तो भगवान केदारनाथ की तीर्थस्थली पर बनाए अपने होटल का नाम ही ‘हनीमून’ रख दिया है। सत्यानाश! हम ‘हिल व्यू’ से संतुष्ट नहीं हैं। हम पर्यटकों और आवासीय ग्राहकों को सपने भी ‘रिवर व्यू’ के ही बेचना चाहते हैं। यह गलत है, तो नतीजा भी गलत ही होगा। प्रकृति को दोष क्यों? हमने धड़धड़ाती वोल्वो बस और जेसीबी जैसी मशीनों के लिए पहाड़ के रास्ते खोल दिए। पगडंडियों को राजमार्ग बनाने की गलत की। यह न करें। अब पहाड़ों में और ऊपर रेल ले जाने का सपना देख रहे हैं। क्या होगा?

पूर्वजों ने चौड़े पत्ते वाले बांझ, बुरांस और देवदार लगाए। एक तरफ से देखते जाइए! इमारती लकड़ी के लालच में हमारे वन विभाग ने चीड़ ही चीड़ लगाया। चीड़ ज्यादा पानी पीने और एसिड छोड़ने वाला पेड़ है। हमने न जंगल लगाते वक्त हिमालय की संवेदना समझी और न सड़क, होटल, बांध बनाते वक्त। अब तो समझें।
दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है। जलनिकासी मार्गों की सुदृढ़ व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए।

हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना और धरती के पेट को समझ कर निर्माण स्थल का चयन करें। जलनिकासी के मार्ग में निर्माण न करें। नदियों को रोकें नहीं, बहने दें। जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी दरारें हैं लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़क के भीतर पानी रिसने-पैठने की गुंजाइश नगण्य है। इसीलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं। हम भी ऐसा करें।
हिमालय को भीड़ और शीशे की चमक पसंद नहीं। अत: वहां जाकर मॉल बनाने का सपना न पालें। इसकी सबसे ऊंची चोटी पर अपनी पताका फहरा कर, हिमालय को जीत लेने का घमंड पालना भी ठीक नहीं।

हिमालयी लोकास्था, अब भी हिमालय को एक तीर्थ ही मानती है। हम भी यही मानें। बड़ी वोल्वो में नहीं, छोटे से छोटे वाहन में जाएं। पैदल तीर्थ करें, तो सर्वश्रेष्ठ। हिमालय को गंदगी पसंद नहीं। अपने साथ न्यूनतम सामान ले जाएं और अधिकतम कचरा वापस लाएं। आपदा प्रबंधन तंत्र और तकनीक को सदैव सक्रिय और सर्वश्रेष्ठ बनाएं। हम ऐसी गतिविधियों को अनुमाति न दें, जिनसे हिमालय की सेहत पर गलत फर्क पड़े और फिर अंतत: हम पर। हिमवासी, हिमालय की सुरक्षा की गारंटी लें और मैदानवासी, हिमवासियों की जरूरतों की।

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